[लेखक: दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi कोटा, राजस्थान, India. Lawyer since 1978. Interest in writing, litrary-cultural-social activities. 1978 से वकील। साहित्य, कानून, समाज, पठन,सामाजिक संगठन लेखन,साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में रुचि]
वह अस्पताल में नर्स है और मैं मेल नर्स। उस का भी कोई नहीं और मेरा भी कोई नहीं।
मैं ने पूछा -कोई नहीं?
-होने को सब कोई हैं, माता-पिता थे, उन का देहान्त हो गया। भाई हैं, बहने हैं। पर उन में कोई मेरा नहीं।
-कैसे?
-यह अलग कहानी है। बाद में बताऊंगा। पहले हम एक तरफ तसल्ली से बैठेंगे, खड़े-खड़े बात नहीं हो सकेगी।
यह मेरे एक सहायक के विवाह की दावत थी। दूल्हा-दुल्हिन मंच पर बैठे थे। डीजे की रोशनियों और शोर में कुछ बच्चे उछल-कूद कर रहे थे कुछ तल्लीनता से नाच रहे थे। मुझे दावत छोड़ने में अभी समय था। अपने सहायक की दावत में पूरे समय न रहना उचित नहीं होता। हम इन सब से दूर एक कोने में आ कर कुर्सियों पर बैठ गए।
वह एक पचास पार का अधेड़ था। उस ने कहना शुरु किया।
-नर्स बीमार हो गई। उस को संभालने वाला कोई नहीं। मैं ने ही उसे संभाला। वह मेरा अहसान मानने लगी। मेरे नजदीक आ गई। उसे पता था मैं अकेला रहता हूँ। वह मेरे यहाँ आने लगी। एक दिन मैं बीमार था, ड्यूटी नहीं जा सका। कोई खबर भी अस्पताल को नहीं दे सका। वह मेरे घर आ गई। मुझे तेज बुखार में देखा। डाक्टर को बुला कर मुझे दिखाया। वह मियादी बुखार निकला। वह रात भर मेरे यहाँ रही मुझे संभाला। दूसरे दिन उस ने भी छुट्टी कर ली। तीसरे दिन मेरी हालत स्थिर हुई तो मैं ने जबरन उसे ड्यटी भेजा। मेरा अपना कोई मुझे संभालने नहीं आया। वह कोई पन्द्रह दिन मेरे यहाँ ही रही। बाद में स्थिति यह हुई कि हम साथ ही रहने लगे। उस का स्थानांतरण दूसरे अस्पताल में हो गया। हमें साथ रहते कोई पाँच बरस हो गए हैं। हम दोनों का एक दूसरे के अलावा कोई नहीं है।
मैं समझ गया कि यह एक सहावासी रिश्ता (लिव-इन रिलेशन) है।
मैं यह चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरी सारी जायदाद उसे ही मिले। मैं यह भी चाहता हूँ कि मेरी नौकरी के लाभ मेरी पेंशन आदि भी उसे ही मिलें।
मैं ने कहा- सब कुछ उस के नाम वसीयत कर दो। वसीयत की रजिस्ट्री करा दो। पर नौकरी के सारे लाभ तो तभी मिलेंगे जब वह तुमसे शादी कर ले और तुम्हारी पत्नी हो जाए। तुम दोनों शादी क्यों नहीं कर लेते?
उस में दो अड़चनें हैं। मैं शादी नहीं कर सकता।
मैं ने पूछा -क्या अड़चन?
मैं जब पैदा हुआ तभी मेरे माँ-बाप जान गए थे कि मैं कभी शादी नहीं कर सकूंगा। मैं उस के काबिल नहीं था। उन्हों ने मुझे नौ-दस की उम्र में हिजड़ों के साथ कर दिया। पर मुझे स्कूल अच्छा लगता था। मुझे हिजड़ों ने ही पढ़ाया। मैं उन का लिखने पढ़ने का काम करता। उन्हें नर्सों की हमेशा जरूरत होती थी। उन्हों ने मुझे नर्सिंग का कोर्स करवा दिया। मैं ने प्रार्थना पत्र दिया तो सरकारी अस्पताल में नर्स हो गया।
ऐसी क्या कमी थी तुम में?
मेरे यौन अंग ही नहीं है। कैसे शादी करूं उस से?
सब दस्तावेजों में क्या लिखा है? पुरुष?
हाँ वहाँ तो पुरुष ही लिखा है। लेकिन सब को पता है मैं क्या हूँ।
-तो तुम पुरुष लिख कर उस से शादी क्यों नहीं कर लेते?
-वह तो बहुत कहती है। पर मैं उस की आजादी नहीं छीनना चाहता। अभी वह स्वतंत्र है। वह चाहे जिस से शादी कर सकती है। मैं यह चाहता भी हूँ कि वह किसी से शादी कर ले। लेकिन वह ही किसी और से शादी नहीं करना चाहती।
-तुम उस से शादी कर लो। बाकायदा जिला कलेक्टर जो विवाह रजिस्ट्रार भी है के यहाँ नोटिस दे कर शादी कर लो। वहाँ रजिस्टर भी हो जाएगी। प्रमाण पत्र अपने विभाग में पेश कर दो। उसे सब लाभ मिल जाएँगे।
-संकट यह है कि मेरे विभाग में मेरी असलियत सभी जानते है। वहाँ तो कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन मेरे लाभों के लिए मेरे भाई वगैरह मेरे मरने के बाद जरूर दरख्वास्त देंगे। पेंशन किसी को नहीं मिलेगी। लेकिन दूसरे लाभों के लिए वे यह सब करेंगे।
मैं सोच में पड़ गया कि उसे क्या जवाब दूँ? हो सकता है कि कानून इसे शादी माने ही नहीं। फिर भी मैं ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि -तुम शादी कर लो।
वह गुम सुम हो गया। फिर कहने लगा -उस की शादी करने की आजादी छिन जाएगी।
उस की उम्र क्या है? मैं ने पूछा।
-पैंतालीस से ऊपर होगी।
अब वह इस आजादी का उपभोग नहीं करेगी। तुम शादी कर लो। तुम्हारे बाद कोई कुछ साबित नहीं कर सकता।
इतने में कोई मुझे बुलाने आ गया। हम उस एकांत से उठ लिए। कोई दो बरस हो गए हैं, इस बात को। वह मुझे नहीं मिला, और न ही उस की कोई खबर। मैं नहीं जानता उन्हों ने क्या किया। पर मेरे जेहन में यह प्रश्न आज भी है कि क्या वे शादी कर सकते थे? और क्या उन की शादी को शून्य माना जायगा?
लगता है, ‘अनवरत’ पर यह पोस्ट पढ चुका हूं।
दिनेश जी की रचना के लिये धन्यवाद । प्रविष्टि ने सोचने को मजबूर किया ।
मार्मिक !
कुछ कानूनी दृष्टीकोण भी बताया जाये..
वे साथ तो पहले से ही रह रहे थे। यदि उस संबंध का एक आधिकारिक नामकरण होने से किसी की भलाई होती है, तो इसमें बुरा क्या है? इंसानियत भी यही कहती है। लेकिन कानून की नजर से देखा जाये तो विवाद खड़े हो सकते हैं, इसके लिये दिनेशराय जी की सलाह बहुत अच्छी है। हिंदू विवाह कानून कहीं पढ़ने को मिल जाये तो थोड़ा अतिरिक्त ज्ञानवर्धन भी हो जाता।
कुल मिलाकर एक सार्थक प्रयास।
वे शादी कर सकते थे/हैं। आप हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा पांच का अवलोकन करें। यहाँ कहीं यह शर्त नहीं कि पुरुष नपुंसक और स्त्री बंध्या न हो।
5. Condition for a Hindu Marriage.- A marriage may be solemnized between any two Hindus, if the following conditions are fulfilled, namely:
(i) neither party has a spouse living at the time of the marriage;
(ii) at the time of the marriage, neither party,-
(a) is incapable of giving a valid consent of it in consequence of unsoundness of mind; or
(b) though capable of giving a valid consent has been suffering from mental disorder of such a kind or to such an extent as to be unfit for marriage and the procreation of children; or
(c) has been subject to recurrent attacks of insanity or epilepsy;
(iii) the bridegroom has completed the age of twenty one years and the bride the age of eighteen years at the time of the marriage;
(iv) the parties are not within the degrees of prohibited relationship unless the custom or usage governing each of them permits of a marriage between the two;
(v) the parties are not sapindas of each other, unless the custom or usage governing each of them permits of a marriage between the two.
गहरी पोस्ट .
ऐसी एक जोड़ी शादी कर साथ जीवन यापन कर रहे हैं.
आज पहली बार इस विषय मे जानकारी मिली.
रामराम.
बहुत कुछ सोचने को विवश करती एक विचारणीय पोस्ट…….
शादी का मतलब केवल शारीरिक सम्बन्ध का लाइसेन्स ही नहीं होना चाहिए। यह जीवन में एक दूसरे पर अनेक प्रकार से निर्भर होने और एक दूसरे को सब प्रकार से ‘सपोर्ट’ करने का नाम है। यदि उन दोनो के बीच इस प्रकार का अन्योन्याश्रित संबन्ध स्थापित हो गये थे तो उन्हें निश्चित ही शादी कर लेनी चाहिए थी।
शायद यह इस कहानी के “नायक” की हार ही थी.. जिसे उसने नियति का नाम दिया. जीवन की तमाम मुश्किलों में साथ देने वाले को ऐसे नहीं छोड़ना चाहिए था. बात सिर्फ लोगों के प्रतिकार की थी अगर, तो फिर तो अवश्य शादी करनी चाहिए थी.
वैसे सच कहूँ तो बड़ी उत्सुकता है ये जानने की कि नायक का बाद में क्या हुआ.. कहाँ है वो आजकल…
शास्त्री जी, आपने वाकई में शीर्षक “शादी या सहवासी संबंध ?” रखा है या मुझे समझने में भूल हो रही है.. जैसा कि इस वाक्य से जाहिर है- “मैं समझ गया कि यह एक सहावासी रिश्ता (लिव-इन रिलेशन) है। ” शीर्षक पढ़कर सिर्फ एक मात्रा से अर्थ कहीं का कहीं हुआ जा रहा है. कृपया स्पष्ट करें अन्यथा जिसे मैं “नायक” कह रहा हूँ उसके साथ बड़ा अन्याय होगा..
अपनी अपनी सोच।
एक विचारणीय पोस्ट
एक बार फिर से आभार अच्छे विषय पर जागरुकत फैलाने के लिए
A NICE THROGHT BUT FROM PRACTICL POINT OF VIEW I DONT THINK IT WILL FIND A SPACE IN JUDICIAL SYSTUM….YOU HAVE TO THINK ABOUT LEGAL ANGLE ALSO
हृदयविदारक कहानी है और मेरा ख़याल है कि काल्पनिक कहानी नहीं, यथार्थ है.
मुझे नही लगता किसी को कोई ऎतराज हो, या फ़िर कानुन को कोई ऎतराज हो, इन्हे शादी अगर जरुरी है तो कर लेनी चाहिये, वो मां बाप, भाई बहिन तब कहां थे जब इन्हे बिना कारण घर से निकाला गया…?
इस बारे मे तो ज्यादा जानकारी ही नही है । काफी कुछ वकील साहब ने स्पष्ट कर ही दिया है ।