मेरे पिछले आलेख डॉक्टर की छोकरी सब विषयों में गोल है!! को पढ कर एक मित्र ने टिप्पणी की कि “शास्त्री जी, पहले आप ने चड्डी-कांड का विरोध किया, फिर हिजडों की हिमायत की, अब अध्यापन के दौरान जो किया उसकी कहानी बता रहे हैं. क्या जरूरत है इन पचडों में फंसने की. इस तरह तो आपका सारा जीवन खंडित हो जायगा. अरे एक ही तो जिंदगी है, दूसरों की फिकर करते रहेंगे तो आप कब जियेंगे”.
प्रश्न अच्छा लगा. खास कर इसलिये कि आप ने उसे मन में रखने के बदले पत्र लिख कर पूछ लिया. आप इसे मन में रखे रहते तो मुझे जवाब देने का मौका न मिलता. लेकिन जवाब देने के “पचडे” के द्वारा मैं जीवन के एक मूल्य को आप सब के समक्ष रख पा रहा हूँ.
मानव जीवन में “नजरिये” का मुल्य बहुत अधिक है. यदि नजरिया गलत होगा तो आप जी लेंगे, लेकिन आप को कभी जीने का संतोष न होगा. नजरिया सही हो तो न केवल आप जी लेंगे, बल्कि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी आप जी लेंगे. साथ ही साथ आपको हमेश इस बात का संतोष होगा कि आप ने जीवन में कुछ “हासिल” किया.
मैं इन पचडों में इसलिये पडता हूँ क्योंकि जीवन छीन लेने वाले की अपेक्षा वह व्यक्ति महान होता है जो जीवनदान करता है. जब आप की उमर 50 से कम होती है तो अधिकतर लोगों का नजरिया यह होता है कि मै क्या पा सकता हूँ. लेकिन 50 के बाद अधिकतर व्यक्ति व्यक्ति यह सोचने लगते हैं कि उन्होंने क्या हासिल किया. तब जाकर समझ में आता है कि जो जीवन में हमेशा “लेता” रहा है उसके पास कुल मिला कर कुछ भी नहीं बचता है. लेकिन जो हमेशा “देता” रहा है उसके पास इतना सब कुछ हो जाता है कि अब यदि वह सात जनम तक देता रहे तो भी उसके पास बहुत कुछ बच जायगा.
जो देता रहा है उसको अब बदलाव की जरूरत नहीं है. लेकिन समस्या यह है कि जो सिर्फ लेता रहा है उसके पास बदलाव के लिये न तो अधिक समय बचता है, न ही देने के लिये कुछ बचा रहता है. अत: मेरे दोस्त, मेरे पास सिर्फ एक ही जिदगी है, सच है. लेकिन मैं इसे इस तरह से जीना चाहता हूँ कि मैं मानव चोले में जन्म लेने का ऋण उतार सकूँ.
आपने सही कहॉ जिवन मे हर व्यक्ति को अपना एक नजरीया स्पष्ट कना चाहिऐ। आप्ने हमेसा शिक्षाप्रद अनुभवो को साझा किया है इसमे कोई बुराई नही ,
हम उऋण ही होना चाहते हैं।
मानव का चोला मिला मिला संग में कर्ज।
कर्ज सभी उतरे तभी जब पूरा हो फर्ज।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
ये पचड़े नहीं हैं भाई. समय की ज़रूरत हैं.
सब यदि अपने लिए जियें तो मनुष्य और पशु का भेद कहाँ रहेगा?
‘यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिये मरे।’
“लेकिन मैं इसे इस तरह से जीना चाहता हूँ कि मैं मानव चोले में जन्म लेने का ऋण उतार सकूँ.”
यही तो मानव जीवन प्राप्त करने का मूल कर्तव्य है । धन्यवाद ।
जीवन छीन लेने वाले की अपेक्षा वह व्यक्ति महान होता है जो जीवनदान करता है. — आपकी यह बात दिल को छू गई.. आभार
यदि उस टिप्पणीकार की मानी जाये तो मतदान, शादी, बातचीत, खाना-पीना, साँस लेना – सभी तो पचड़े हैं? जहाँ गीता कहती है कर्म करो, फल की चिंता मत करो, वहीं कुछ लोग कहते हैं “काम से काम रखो, पचड़ों मे मत पड़ो”। अब ऐसे लोगों का क्या कीजियेगा? शास्त्री जी, दुनिया में हर किसी का कोई न कोई निंदक जरूर होता है, और होना भी चाहिये। हर निंदक आपके व्यक्तित्व को और बल देगा, ऐसी मेरी कामना है। कलम-रूपी तलवार चलाते रहिये, सारी सामाजिक कुरीतियों को काट फेंकिये! तथास्तु!
मेरे पास सिर्फ एक ही जिदगी है, सच है. लेकिन मैं इसे इस तरह से जीना चाहता हूँ कि मैं मानव चोले में जन्म लेने का ऋण उतार सकूँ.
अति सुंदर बात कही आपने. शुभकामनाएं.
रामराम.
ये आज आपकी फ़ोटो को क्या हो गया है? कुछ धंधली दिखाई दे रही है? कहीं मेरी आंखों मे ही तो कोई खराबी नही है?
रामराम.
@ताऊ रामपुरिया
दूसरों की मदद के “पचडे” में पडने वाले का जीवन खंडित हो जाता है. अत: यह चित्र मेरे दोस्त के नजरिये को दिखाता है!!
बहुत बढिया … इसलिए लो मत … सिर्फ दो।
kul milakar aapke likhe huye lekh mujhe bahut achchhe lagte hain, visheshkar bhashashaili jo bahut saral hai phir vishay chahe kitna bhi gambheer kyon n ho
सत्यवचन महाराज !
अति सुन्दर विचार। आपके दोस्त(?)के इस नजरिए से तो यह जिन्दगी ही पचड़ा हो जाएगी ।