पिछले कुछ सालों से भारत में विदेशी पत्रिकाओं एवं सीडी की बाढ आई हुई है. इसका असर सीधे सीधे हमारी युवा पीढी पर हो रहा है. इसके सबसे अच्छे दो नमूने हैं “प्रोग्रेस” के नाम पर भारतीय जवानों को शराबी बनाने की साजिश (पब संस्कृति) और बाबा-बाल्टियान दिवस (वेलेन्टाईन) जैसे मानसिक-व्यभिचार पर आधारित त्योहार.
यदि आप को यकीन न हो तो जरा सोचें कि आजादी के साठ सालों में वह कौन सी पहली घटना है जहां एक भारतीय स्त्री ने अन्य स्त्रियों का आह्वान किया कि वे अपनी जांघिये उतार कर एक गैर मर्द को भेजें!! चड्डी-कांड आजाद भारत के नैतिक पतन का एक कडुआ उदाहरण है, जहां स्त्रियां (फेसबुक पर) बढबढ कर एक दूसरे का आह्वान कर रही थीं कि नई चड्डी के बदले पहनी चड्डी उतार कर भेजी जाये.
इसी तरह किसी नर्सिंग-होम चलाने वाले डाक्टर से पूछ कर देखिये कि बाल्टियान-दिवस का क्या असर होता है. ईमानदार होगा तो वह बतायगा कि गर्भपात के लिये काफी केस तय्यार हो जाते हैं. बगल का चित्र जरा देखें. इस चित्र में अंग्रेजी में लिखी बात मैं ने नहीं चित्रकार ने लिखी है. साफ बात है कि कम से कम कुछ लोगों की नजर में बाल्टियान दिवस का मतलब लुचपन है. इस चित्र को प्रदीप महतो नामक एक भारतीय ने फ्लिकर पर छापा है, न कि किसी विदेशी ने.
अब सवाल यह है कि इन दोनों बातों का आज के शीर्षक से क्या संबंध है!! जरा ध्यान से सुन लीजिये.
छायचित्र: शाराब पीकर धूल चाटती एक बाला
मानव मन में तमाम तरह के नियंत्रण-केंद्र होते हैं. सही गलत का ख्याल रख कर ये मानसिक-नियंत्रण-केंद्र लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं. ये मानव की विषय-वासना एवं काम-वासना आदि को नियंत्रित करता है जिससे कि मनुष्य भोगविलासी न बने, और जीवन के किसी भी बात में में लुचपन (अति) या घामडपन न करे. सभ्य समाज में जो परिष्कृत व्यवहार दिखता है उसका एक कारण यह है कि मानसिक-नियंत्रण-केंद्र इन लोगों को अपरिष्कृत एवं फूहड/जंगली व्यवहार से बचा कर रखता है. लेकिन शराब, कई प्रकार की नशीली चीजें, एवं संगत लोगों के इस मानसिक-नियंत्रण-केंद्र को कमोबेश निष्क्रिय कर देता है.
जैसे ड्राईवर का नियंत्रण छूटने पर गाडी मनमाने दिशा में जाती है, उसी तरह मानसिक-नियंत्रण-केंद्र का नियंत्रण कम हो जाने पर या हट जाने पर सभ्य लोगों का व्यवहार एकदम से अपरिष्कृत एवं फूहड/जंगली हो जाता है. जानते हुए भी उनको पता नहीं लगता कि वे क्या कर रहे हैं. होली के अवसर पर ग्वालियर में मैं ने इसे कई बार देखा है जब चपरासी लोग पुरानी रंजिश निकालने के लिये चाय या अन्य पेय के साथ धतूरा मिला कर अपने अधिकारियों को पिला देते हैं.
कल तक जो लोग पवित्रता की मूर्ति थे, जैसे ही धतूरा उनको लग जाता है, वैसे ही वे लोग कपडे उतार कर दफ्तर में चहलकदमी करने लगते हैं, खडेखडे दफ्तर में कहीं भी लघुशंका करने लगते हैं, बेशर्मी के काम या जानवरों के समान असभ्य व्यवहार करने लगते हैं. स्त्रियों से खुल कर अश्लील बाते करते हैं, लोगों को खुल कर गाली देते हैं. मजे की बात यह है कि उनका आधा मन होश में रहता है लेकिन इन कामों को करने से अब उनका मन उनको रोकता नहीं है क्योंकि मानसिक-नियंत्रण-केंद्र काम नहीं कर रहा होता है. स्त्रियों से वेश्यावृत्तिअ करवाने के पहले उनको ऐसा कार्य के लिये तय्यार करने लिये उनको अकसर शराब पिलाई जाती है और अश्लील फिल्में दिखाई जाती हैं जिससे उनका मानसिक-नियंत्रण-केंद्र कमजोर जो जाये. यही कार्य अब पब संस्कृति और विदेशी कामआतुरता के त्योहार हिन्दुस्तान के पढे लिखे जवानों से करवा रही है.
पब संस्कृति, वेलेंटाईन डे आदि जहां से हिन्दुस्तान आवक हुए हैं जरा उस समाज को देखें. जरा यह देखें कि ये चीजें किस तरह से लोगों को मोहांध और कामांध बना रही है. जरा यह भी देखें कि किस तरह वहा प्रति वर्ष इन के चक्कर में कितने लाख लोग अपनी अस्मत लुटा देते हैं, कितनी लडकिया लुट जाती हैं, नोच ली जाती हैं, और कितने गर्भस्थ शिशु मार डाले जाते हैं.
हिन्दुस्तान को इन “आवकों” की क्या जरूरत है!!
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Valantine Day 1 by Pradip Mahato । Drunk girl by crossfirecw
सारथी जी,
यहाँ मैं आप से थोडा असहमत हूँ.
नशा पहली बार हमारे यहाँ नहीं आया है, जिसे हम पब संस्कृति कह रहे हैं वह आखिर है क्या? जमींदारों के यहाँ मुजरे बुलाये जाते थे. स्वयं शहर के एक से एक रईस कोठों पर जाते थे. आज भी हमारे यहाँ हर शहर में एक रेड लाइट एरिया होता है. हम उसे तो न रोक पाए.
महिलाओं के नशा करने की बात करें तो मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि उपलब्धता की बात है, जब भी उन्हें उपलब्ध हुआ है तब अपनी मर्जी से उन्होंने भी उसका पान किया है. पहले शराब बहुत महंगी होती थी या यह कहिये कि सिर्फ अमीरों के लिए बनती थी. विलायत से आने वाले शराबों की बात छोड़ दें, तो चलिए आदिवासियों के इलाके में, या पहाडी इलाकों पर आपको एक से एक घर में बनाये हुए पेय मिलेंगे जिसमे इन शराबों से ज्यादा नशा होता है. और ताड़ी तो जनसुलभ वस्तु है ही.
जो नशा नहीं करते थे वे तब भी ऐसी जगहों पर नहीं जाते थे जो हमारे यहाँ रईसी का द्योतक होता था, और आज भी नशा न करने वाले व्यक्ति ऐसी जगहों पर नहीं जाते.
मेरी दुविधा यह समझने में है कि “वस्तुतः विरोध किस बात का है”. पश्चिम की तरह खुल कर नशा करने का या अपने यहाँ की तरह छुप कर नशा न करने का.
अब जिस पब संस्कृति को लेकर अपने यहाँ इतना हंगामा हो रहा है उसमे और स्थानीय पारंपरिक नशा केन्द्रों में मैं कुछ अंतर देखता हूँ,
१) लड़के लड़कियों में भेद नहीं होता. कोई भी जा कर बैठ सकता है, नशा कर सकता है.
२) सब के लिए एक ही तरह से उपलब्ध है.
३) थोड़ा बहुत नाच गाना भी होता है.
४) जो पबों में जाते हैं वे छुप कर नहीं बल्कि खुलेआम जाते हैं.
५) आधुनिक मानसकिता वाली लड़कियां अपनी नयी नयी आजादी का पूरा फायदा उठाना चाहती हैं.
६) यदि लड़कियों की उपस्तिथि न हो तो लड़कों के लिए यह कोई नयी चीज नहीं है.
अब मेरा कहना है कि,
यदि नशा करने से परहेज है, जो व्यक्ति को अपाहिज और मानसिक विकलांग और न जाने किस किस हालत में ले आती है तो नशा का विरोध कीजिये. बंद करवा दीजिये सरे मदिरालय. वह कोई नहीं करता.
यदि लड़कियों के नशा करने से परहेज है तो सिर्फ उन्ही की आजादी से क्या समस्या है. लड़कों को आप नंगा नाचने की छोट दें और अपने मन का बोझ लड़कियों पर दाल कर कहो कि तुम हमारी संस्कृति की वाहक हो. गलत है.
मुझे यह तर्क समझ में नहीं आता. आप प्रबुद्ध हैं और अच्छा विषय ले कर चर्चा शुरू किया है. कृपया मेरी दुविधा हरें.
@कौतुक
प्रिय कौतुक,
सारथी चिट्ठे पर हर व्यक्ति के विचार का स्वागत है — यदि मुझ से असहमत हो तो भी. असहमति को ध्यान से देखा जाये तो कई बार नई बातें सीखने का अवसर बन जाता है.
इस टिप्पणी का उत्तर अगले किसी आलेख में विस्तार से दे दूँगा.
सस्नेह — शास्त्री
पुणे, इंदौर में मैं 2007 तक कॉलेज की शिक्षा के लिए रहा हूँ. पता नहीं क्यों वहां आने वाले लड़के तो लड़के, बड़े कॉलेजों की लड़कियां भी शराब पीकर आधी रात के बाद शराब पीकर सड़क पर पड़ी मिलती हैं. हॉस्टल की एक लड़की ने ही मुझे बताया की, बॉयस होस्टल क्या गर्ल्स हॉस्टल में भी सिगरेट-शराब खुलकर इस्तेमाल की जाती है. लड़कियों में भी गुटका, कंडोम, पिल्स, एबोर्शन आम बात है. इनके लिए पैसों का इंतजाम बॉयफ्रेंड्स के जिम्मे रहता है. सारे माहौल में ही धतूरा मिला दिया गया है, क्या लड़के और क्या लड़कियां, सब धुत्त होकर झूम रहे हैं मदहोश से.
पश्चिमी संस्कृति में काफी कुछ अच्छी बातें भी हैं, उन्हें अपनाएंगे नहीं. हमारी पीढी के पास चुनने विकल्प है की वे क्या अपनाना चाहें और क्या नकारना. पर शायद गिरना आसान है, ऊपर जाना कठिन.
जैसे ड्राईवर का नियंत्रण छूटने पर गाडी मनमाने दिशा में जाती है, उसी तरह मानसिक-नियंत्रण-केंद्र का नियंत्रण कम हो जाने पर या हट जाने पर सभ्य लोगों का व्यवहार एकदम से अपरिष्कृत एवं फूहड/जंगली हो जाता है.
देखिये सर जी, बह के लिये बहस करना अलग बात है. चाहे नई या पुरानी चड्डियां हों या जो भी हों.
ईमानदारी की बात यह है कि किसी भी बाल्टियान दिवस के बाद ही नही बल्कि किसी भी सार्वजनिक उत्सव के बाद अनचाही भ्रूण हत्या की बाढ सी आजाती है. और इसके लिये हमारा आज का वातावरण ही दोषी है. इससे कैसे बचियेगा?
सवाल है कि उम्र किसी बंधन को मानती है या नही?
रामराम.
सभ्यताओं का विकास एक युगीन प्रक्रिया है.. हर समाज में जहाँ एक ओर अकबर जैसे लोग हैं तो दूसरी ओर औरंगजेब जैसे लोग भी हैं जो अपने अपने नजरिये को समाज पर थोप कर उसे अपनी तरह से चलाना चाहते हैं.. कौन किसको सही मानता है यह सिर्फ आपकी उस ख़ास विचारधारा में आस्था की बात है.
कौतुक जी की बात के कुछ अंश से सहमत.. जिन कथित रूप से व्यभिचार के मार्ग पर चल पड़ी कन्याओं की बात लेख में की गयी है उनकी गिनती भारत की सकल आबादी की कितनी प्रतिशत होगी? एक लाख में एक के बारबार भी नहीं.. पर निठारी जैसे कहे अनकहे वाकये, अन्यान्य मिशनरियों द्वारा बरसो तक किये गए यौन शोषण के मामले.. खतना और ऐसी ही जाने कितनी यहाँ पर न लिखी जा सकने वाली क्रूर परम्पराए.. विदेशी महिला पर्यटकों और छात्राओं के साथ बलात्कार.. पुरुषों द्वारा किये गए अपराधों की सजा महिलाओ को दिए जाने वाले पंचायतो के फैसले.. क्या ये भारत और इसकी संस्कृति का हिस्सा नहीं है?? और ऐसे कहे अनकहे शोषण का शिकार हर १० में से ४ या ५ महिलाएं हैं. डा विंसी कोड और महाभारत जैसी पुस्तकों में भी महिलाओं की स्थिति देखें.. इतिहास बदला नजर आएगा.
जहाँ जहाँ महिलाओं ने संस्कृति और सभ्यता के नाम पर दबना स्वीकार किया वहीँ पर उनकी अस्मिता रक्तरंजित हुई. पर प्रबुद्ध वर्ग और राजनेता अभी भी उन चंद लड़कियों के पीछे लाठी लेकर पड़े हैं जो की वस्तुत: समाज की प्रक्रियाओं में काफी कम हिस्सेदारी रखती हैं. क्यों नहीं जीने देते उन्हें अपनी मर्जी से…
“kautak” ji ki baat se poorntya sehmat hoon…
..poorntya !!
apka post accha aur vicharniya hai par…
“kautak” ji ki baat se bhi sehmat hoon…
..poorntya !!
आपकी बात पूरी तरह से विचारणीय है..
गुरूजी इस विषय पर इतना बेबाकी से लिखना कोई आप से सीखे….बहुत ही अच्छा लिखा आपने…जवान लङका ,लङकी और शराब इन तीनों को एक जगह करना ही पब संस्कृति है..और इसके बाद कोई नैतिकता बचती हो सोचने लायक बात है….इस चीज का समर्थन चाहे स्त्री स्वंतंत्रता के नाम पर ही सही ..उचित नहीं कहा जा सकता…
पश्चिमी सभ्यता में केवल ख़ामियां ही क्यों नज़र आती हैं। हर समाज में कुछ बातें अच्छी होती है, कुछ बुरी। हमारी सभ्यता में भी कई लूप होल्स हैं। अगर आप उनका भी ज़िक्र करते तो ये लेख इतना इतना एक तरफा नहीं लगता। आपको पढ़कर लग रहा है कि आप सिर्फ़ और सिर्फ़ विरोध ही करना चाहते हैं
पक्ष विपक्ष तो हो गए अब निष्पक्ष भी विचार आने चाहिए !
कुल मिलकर हम आत्मनियंत्रण खो रहे हैं.
शत-प्रतिशत सही बात कही है शास्त्री जी आपने. हैरत होती है कि किस कदर हमारी दुनिया बदल रही है. हम संयम से कंडोम और अब उससे भी आगे एबोर्शन संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसा सटीक और तटस्थ विश्लेषण कम ही लोग कर सकते हैं.
शास्त्री जी आपकी यह पोस्ट बहुत कुछ सोचने को विवस करती है । आज की युवा शक्ती अन्धी दोड लगा रही है ।
नशे में धुत्त व्यक्ति जानवर से भी गिरा हुआ होता है। उसे काबू करने के लिये रस्सी से बांधकर घसीटने या पीटने में भी किसी तरह की दया नहीं दिखानी चाहिये।
गम्भीर विषय है.
चाचा अब क्या कहें! आप से ऐसी किसी पोस्ट की उम्मीद नही थी हालाँकि मैं जायदा नेट-पढाकू नही हूँ फ़िर भी वक्त मिलता है तो आपका चिट्ठा पढ़ लेता हूँ मगर इसको पढ़ने के बाद मालूम padaa की “कच्चा चिट्ठा” वाली कहावत की व्युत्त्पत्ति कैसे हुयी |
तथाकथित बाबा-बाल्टियान दिवस और pub sankrati पर आपकी bhadaas जान कर कुछ pratikriya भी नही दे paa रहा हूँ |
रही बात madira vyavhaar की तो अगर आप maante हों की sahitya समाज का दर्पण होता है तो हिन्दी sahitya madira prachalan से भरा पड़ा है, हर काल khand की rachnaaon में| कला , sangeet, saahityaa, rajnaitikon की sangoshtiyon में madirapaan का prachalan आम huaa करता था| जैसा की मैंने itihaas और saahitya से jaanaa|
उन sabhaon और goshthiyon में pray: uchch gharaon की ladkiyaan भी jati थी और vahi vyavhaar करती थी |
nimn और मध्यम वर्ग की जो striyaan या ladkiyaan जो ऐसी sabhaon में जा नही पाती थी vo अपने परिवार में प्रयोग की हुयी (अगर कोई पुरूष sadasy प्रयोग करता था तो) चोरी छिपे प्रयोग कर लेती थी|
अब या तो आप itihaas और sahityaa को बे-buniyaad कह दीजिये yaa फ़िर मेरी बात से asahmat हो jaaiye| लिखने को बहुत है परन्तु चोरी मैं भी कर रहा हूँ office के समय की सो अभी itanaa ही baaki इस विषय पर achchaa khasa विमर्श हिन्दी में pahale ही चल रहा है यहाँ भी चल सकता है |
सम्भव huaa तो कभी इस विषय पर लम्बी bahas chalayi jayegi|