मेरे पिछले दो आलेख अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले ! और अस्मत लुटाना: आलोचनाओं का उत्तर!! पर जो टिप्पणियां आईं है उनके द्वारा विषय कुछ और स्पष्ट हुआ है. विषय को स्पष्ट करने वाली टिप्पणियों के लिये मैं मित्रों का आभारी हूँ. इस बीच प्रबुद्ध मित्रों ने कुछ प्रश्न पूछे हैं जिनके द्वारा विषय के अनुछुए या अस्पष्ट पहलुओं को स्पष्ट करना जरूरी है.
एक बार पुन: याद दिलाना चाहता हूँ कि इस लेखन परंपरा का सारांश एकदम स्पष्ट है और कई पाठकों की टिप्पणियों में यह सारांश बताया गया है जिन में से चार (मिहिरभोज, Isht Deo Sankrityaayan, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, indian citizen) मैं ने कल के आलेख में बताये थे. इसके बाद सुरेश चिपलूनकर ने टिपियाया कि
- "…एक समय अच्छे बुरे का फरक लोगों को मालूम था और अधिकतर लोग ऐब नहीं पालते थे. लेकिन पब संस्कृति और बाल्टियान (वेलेंटाईन) जैसे उत्सव आम आदमी के जीवन में इस अंतर को मिटाने की कोशिश में लगे है.…"। इस वाक्य से पूरी तरह सहमत… और यही असली चिंता का विषय भी है…
कुल मिलाकर कहा जाये तो आलेख की दिशा क्या है एवं आलेख का मुख्य लक्ष्य क्या है यह स्पष्ट है. अब आते हैं कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों की ओर जो विषय को आगे बढाने में मदद करेंगे:
- (दिनेशराय द्विवेदी) इन दिनों व्यस्तता के कारण कुछ आलेख नहीं पढ़ सका था। आज और कल का आलेख पढ़ा। आप के आलेख की सब बातों से सहमत हूँ। लेकिन सारा विवाद आप के आलेख के शीर्षक से उत्पन्न हुआ है जिस में अस्मत शब्द का प्रयोग किया गया है। इस के स्थान पर पतन के गर्त में पहुँचना होता तो कोई विवाद न होता। वस्तुतः स्त्री के लिए अस्मत शब्द का प्रयोग करना विचित्र लगता है।
मुझे लगता है दिनेश जी कि “विवाद” जैसी कोई बात नहीं हुई है. सारथी का लक्ष्य ही शास्त्रार्थ है अत: कौतुक एवं पुनीत जैसे युवा पाठकों ने अपनी सोच विस्तार से बताई है. जब लोग अपनी सोच (चाहे वह मेरी सोच से विपरीत क्यों न हो) इस तरह विस्तार से सबके समक्ष रखते हैं तो विषय के विभिन्न पहलुओं को देखनेजांचने का अवसर मिल जाता है. यह विवाद नहीं है.
यदि पब संस्कृति, बाल्टियान दिवस और जवानी-दीवानी-लुच्चाई का समर्थन करने वाले किसी व्यक्ति को इस तरह के समाजनिर्माण के प्रति समर्पित आलेख विवादास्पद लगे तो उसमें कोई ताज्जुब नहीं है क्योंकि जब तक हर हिन्दुस्तानी पुरुष को ऐबी और हर स्त्री को कामदेवी न बना लें तब तक इस तरह के अराजकत्व-प्रेमी लोग चैन से नहीं बैठेंगे. लेकिन इस तरह के नजरिये के साथ किसी ने सारथी पर टिप्पणी नहीं की है अत: जिन्होंने टिप्पणियां की है उन्होंने सिर्फ विषय को आगे बढाने की कोशिश की है.
एक बात और: यदि आलेख को वस्तुनिष्ठ तरीके से पढें तो आप देखेंगे कि “अस्मत” का प्रयोग यहां सिर्फ स्त्रियों के लिये नहीं किया गया है. इसका प्रयोग चरित्र, शील आदि के अर्थ में हुआ है. मेरे निम्न वाक्यांश को देखें:
- पब संस्कृति, वेलेंटाईन डे आदि जहां से हिन्दुस्तान आवक हुए हैं जरा उस समाज को देखें. जरा यह देखें कि ये चीजें किस तरह से लोगों को मोहांध और कामांध बना रही है. जरा यह भी देखें कि किस तरह वहा प्रति वर्ष इन के चक्कर में कितने लाख लोग अपनी अस्मत लुटा देते हैं …
यहां “अस्मत” का उपयोग पुरुषों के लिये किया गया है. स्त्रियों की चर्चा इस वाक्यांश के बाद अलग से आई है. अब कौतुक के एक प्रश्न को देखते हैं:
- (कौतुक)अब यदि चिंतन को आगे बढायें. तो क्या हम यह मान लें कि वास्तव में यहाँ विरोध दो अलग-अलग चीजों का है, जो मिश्रित हो कर एक “पब संस्कृति” के नाम से आ रहा है? १)खुल कर नशा करना. २)औरतों को बढ़ावा देना. (जैसा कि indian citizen ने कहा कि औरतों को इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि वो बिगडें ताकि पुरुषों को उनका फायदा उठाने का मौका मिले.)
असल समस्या यह है कौतुक कि “पब” शब्द सुनते ही लोग सिर्फ स्त्रियों के बारें में सोचते हैं. पब संस्कृति का मुख्य लक्ष्य स्रीपुरुष दोनों को काम-मोही और मोहांध बनाना है. पबों की स्थापना दुनियां में सबसे पहले जहां हुई थी वहां से आप इतिहास और समाज का अध्ययन करेंगे तो इस बात को देख लेंगे.
मेरा विरोध इस बात से है कि पब-संस्कृति और बाल्टियान दिवस (वेलेंटाईन डे) आदि का थोक में आयात करने दे द्वारा हम लोग भलेबुरे में जो अंतर अभी तक है उसे मिटा रहे हैं. जिस बात को कल तक एक ऐब समझा जाता था उसे आज परिष्कृत लोगों का “सामाजिक चलन” बनाते जा रहे हैं. कामवासना को नियंत्रण में रख कर उसे सही दिशा देने के बदले उसे अराजकत्व में बदलने की कोशिश हो रही है. मैं पुन: याद दिलाना चाहता हूँ कि
- "…एक समय अच्छे बुरे का फरक लोगों को मालूम था और अधिकतर लोग ऐब नहीं पालते थे. लेकिन पब संस्कृति और बाल्टियान (वेलेंटाईन) जैसे उत्सव आम आदमी के जीवन में इस अंतर को मिटाने की कोशिश में लगे है.…"। इस वाक्य से पूरी तरह सहमत… और यही असली चिंता का विषय भी है… सुरेश चिपलूनकर
प्रिय मित्र,
आपकी रवनाएं पठनीय व संग्रह योग्य हैं। मैं एक साहित्यिक पत्रिका का संपादक हूं। आप चाहे तो अपनी रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेज सकते हैं। मेरे ब्लाग पर अवश्य ही विजिट करें।
अखिलेश शुक्ल्
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हमारे अतित कि सभ्यता सस्कृति क्या यही थी? अब आपकी बातो से ऐसा लगता है जैसे वैशयाऐ या मगलामुखी पूरे राष्ट्र पर छा गई है।
ईश्वर करे चर्चा की सार्थकता बनी रहे..