आजकल भारत में हर ओर “आजादी” और “अधिकारों” की बडी चर्चा है. चाहे बंद कारखानों के कर्मचारी हों, रेगिंग करने वाले हों, स्त्री-मुक्ति के वक्ता हों, अल्पसंख्यक हों, या और किसी प्रकार से “संख्यक” हों, हरेक का दावा है कि संविधान उनको कानूनी तौर पर जो आजादी देता है उसका हनन हो रहा है.
भारत के उदार कानून का यहां तक दुरुपयोग हो रहा है कि अपने सामने जो कोई पड गया उसको निर्दयता से गोली मार देने वाला पकिस्तानी अज़मल कसाब भी अब धृष्टता के साथ भारतीय न्यायपालिका से अपने जीने के “हक” की मांग कर रहा है.
मजे की बात यह है कि आज भी दुनियां के दो तिहाई राष्ट्रों में जनता को किसी तरह का हक नहीं है. एक उदाहरण है साऊदी अरेबिया का जहां एक होस्टल में आग लगने पर जब जीवन बचाने के लिये लडकियां दौड कर बाहर आईं तो उनकों बेंतों से पीट पीट कर अंदर जाने और जल मरने को धार्मिक-अधिकारियों ने मजबूर किया क्योंकि जीवन बचाने के लिये भी भाग कर उस कैद से बाहर आने का अधिकार वहां नारी जात को नहीं है.
दुनियां के पश्चिम के विकसित राष्ट्र, मध्य में हिन्दुस्तान जैसे कुछ राष्ट्र, और पूर्व में सिंगापुर, साउथ कोरिया जैसे कुछ राष्ट्र मात्र हैं जहां नागरिकों को हर तरह की आजादी दी जाती है. विडंबना की बात यह है कि जिन देशों में आजादी नहीं है, वहां के नागरिक वहां तो भीगी बिल्ली बने रहते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश में आने के बाद अपने “अधिकारों” की दुहाई देते हैं.
अधिकारों की दुहाई देने वाले लोगों से यदि कहा जाये कि अधिकार/आजादी के साथ साथ संविधान “कर्तव्यों” की बात भी करता है तो पता चलता है कि उनको न तो यह बात मालूम है, न ही उनको कर्तव्यों से कोई मतलब है. करेला और वह भी नीमचढा.
जब भी आजादी के नाम पर लोग समाज के स्थापित मूल्यों को तोडते हैं, तब तब वे कुछ फूलों के लिये पूरे पेड को सुखाने की कोशिश कर रहे हैं. पेड है हिन्दुस्तान. फूल है वह आजादी जो आज हर नागरिक को मिली हुई है. लेकिन यदि पेड को नजरअंदाज का दिया जाये तो कुछ समय के बाद न तो पेड बचेगा, न फूल. हिन्दुस्तानियों को निर्दयता के साथ गोलियों से भूनने के बाद जो पकिस्तानी अज़मल कसाब धृष्टता से अपने “हक” की मांग कर रहा है, चाहे वह हो, या गुलाबी-चड्डी-कांड के वक्ता हों, हर किसी को फूल चाहिये लेकिन पेड को पानी नहीं देंगे. पेड की जडें जरूर खोदेंगे.
कल को जब टेक्स देने से हिचकिचायें, प्लेटफार्म टिकट लेने में झिझक हो, या इस तरह का और कोई कार्य हो, तो यह न भूलें कि पेड को सुखाने की कोशिश न करें. जब गुलाबी-चड्डी-कांड जैसा किसी तरह का आंदोलन स्थापित सामाजिक मूल्यों की धज्जी उडाने की कोशिश करे तो यह न भूलें कि जब पेड न रहेगा तो बाकी क्या बचेगा.
आजादी के नाम पर ऐसे किसी भी आंदोलन या सोच विचार समर्थन न करें जो शाश्वत मूल्यों को ध्वंस करता हो!!
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Photograph by Tatters:)
समसामयिक और स्वस्थ चिन्तन।
उचृंखलता है नहीं आजादी का अर्थ
पेड़ नहीं तो सुमन भी हो जायेंगे व्यर्थ।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
समस्या यह भी है की उन शास्वत मूल्यों की व्याख्या भी हम अपने नज़रिए से करने की आजादी चाहते हैं
बहुत भारी बात कर दी, आपने। देखीए किसे पल्ले पडती है, किसे नही ?
मेरे विचार से अधिकार और कर्तव्य के बीच सामजस्य होना चाहिये । बिना कर्त्तव्य पालन के अधिकारों कि बात करना बेमानी होगा ।
वाह, कहाँ कसाब और कहाँ पिन्क चड्ढी !तुलना पर आश्चर्य है।
घुघूती बासूती
आज का यह आलेख जमा नहीं। कर्तव्यों का स्मरण कराया जाना चाहिए। लेकिन उस का कसाब और गुलाबी चड्डी से क्या लेना देना है। यह आलेख कर्तव्यों का स्मरण कराने के स्थान पर तानाशाही की वकालत करता और अधिकारों की मांग का विरोध करता अधिक प्रतीत हो रहा है।
इसके मूल में कारण हमारे वे राजनेता हैं जो अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए किसी भी घटना को बे-सिर पैर की बातों से जोड़ कर उसका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते हैं. अगर इन्हें रोका जा सके तो बहुत कुछ सुधर जाएगा.
बेतुकी तुल्ना। दो बेहद ही अलग-अलग मुद्दों के घालमेल से ज़्यादा कुछ नहीं।
@ghughutibasuti
प्रिय घुघुती बासूती जी,
एक लबे अर्से के बात सारथी चिट्ठे पर आपका आगमन हुआ जिसके लिये मैं दिल से आभारी हूँ.
आपकी टिप्पणी के लिये भी आभार !!
आप सामान्यतया आलेख की विषयवस्तु को देख कर टिप्पणी देती हैं, लेकिन लगता है कि आज किसी कारण से विषय पर ध्यान देने के बदले आलेख के एकाध वाक्य को उसकी पृष्ठभूमि से अलग करके आप ने देखा है.
आलेख का मुद्दा
“अधिकारों की दुहाई देने वाले लोगों से यदि कहा जाये कि अधिकार/आजादी के साथ साथ संविधान “कर्तव्यों” की बात भी करता है तो पता चलता है कि उनको न तो यह बात मालूम है, न ही उनको कर्तव्यों से कोई मतलब है.:
था जिसके लिये कुछ उदाहरण दिये गये थे. हो सकता है कि किसी उदाहरण से आपको मतांतर हो. यह आपकी अपनी समझ है. लेकिन उदाहरण आलेख हीं
है यह बात मैं याद दिला दूँ. शास्त्रार्थ उदाहरण पर केंद्रित नहीं होता है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप ने किसी और के प्रभाव में मुझे “फिक्स” करने की कोशिश की हो? वैसे आप इस तरह के कार्य करती नहीं हैं, फिर भी मुझे शंका है कि शायद यहां आपकी सोच से अधिक किसी और की प्रेरणा है.
मूल विषय के साथ कोई असहमति हो तो आईये विषय को आगे बढाते हैं.
सारथी पर अपना आशीर्वाद बनाये रखें!!
सस्नेह — शास्त्री
@दीप्ति
प्रिय दीप्ति जी,
सारथी चिट्ठे पर पधारने के लिये शुक्रिया. लगता है कि आप ने आलेख को पढे बिना ही टिप्पणी दे दी !!
आलेख का विषय “तुलना” नहीं बल्कि निम्न है
अधिकारों की दुहाई देने वाले लोगों से यदि कहा जाये कि अधिकार/आजादी के साथ साथ संविधान “कर्तव्यों” की बात भी करता है तो पता चलता है कि उनको न तो यह बात मालूम है, न ही उनको कर्तव्यों से कोई मतलब है.
अत: विषय को समझे बिना आप ने टिप्पणी दी है.
सारथी पर आपका स्वागत है. यदि किसी विषय से आपको मतांतर है तो
मूल मुद्दे के बारे में जरूर लिखिये.
किसी भी वाक्य को पृष्ठभूमि से अलग करके देखा जाये तो हर वाक्य गलत ही दिखेगा.
अगली बार “असली विषय” पर अपना मतांतर रखिये न कि इधर उधर से चुने एक वाक्य पर!
सस्नेह — शास्त्री
@दिनेशराय द्विवेदी
प्रिय द्विवेदी जी,
आपने लिखा ” लेकिन उस का कसाब और गुलाबी चड्डी से क्या लेना देना है।”
कसाब और गुलाबी चड्डी मेरे आलेख का मुख्य विषय नहीं है. आप मुख्य विषय को नजरंदाज कर गये हैं.
सस्नेह — शास्त्री
IN MY OPINION THERE MUST BE CO ORDINATION BETWEEN RIGHTS AND DUTY .,BUT SORRY TO SAY THAT WHAT RIGHT WE HAVE GOT.OUR GREAT POLITICIANS MAKING US FOOL TAKE THE RIGHTS WITH THEM AND AGTER VOTING YOU HAVE TO ASK FOR SOLUTIONS. POLITICIANS MAKES THE LAW , WHAT THIS ALL IS…??? I DONT LIKE THIS SYSTEM. WHY IN BALLOT PAPER THERE IS NO OPTION AS NONE OF THE ABOVE. ” SAB NETA EK HI THALLY KE CHATTE BATTE HAIN ” FORGET THE ERA OF RIGHT IS MIGHT.ANYHOW IN TOTALITY AFTER READING TWICE,I WAS FORCED TO WRITE FEW WORDS. AWAZ TO UTHANI HI PAREGI. REGARDS
शास्त्री जी फिक्स करने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया, अब तक तो नहीं। आशा है भविष्य में भी नहीं आए। कुछ विचारों में हमारा मतभेद है जो मेरे विचार से बहुत स्वस्थ बात है। यदि प्रत्येक विचार या लेख पर सहमति जताई जाए तो शायद ऐसी सहमति का कोई मूल्य नहीं रह जाता। विचारों का मतभेद अपने निकटतम लोगों से भी होता है और नेट मित्रों से भी।
अपनी बात समझाने का आग्रह सदा रहता है किन्तु कोई दुराग्रह नहीं। यदि आपको मेरी टिप्पणी में किसी दुराग्रह की गन्ध आई तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
जब मैंने हिन्दी में लिखना शुरू किया तब मेरे लिए अंग्रेजी में लिखना अधिक सरल व स्वाभाविक था। मेरे हिन्दी के चुनाव का कारण वही था जो आपका था। दोनों अपनी क्षमता के अनुसार हिन्दी का प्रसार बढ़ाना चाहते हैं। विचारों के आदान प्रदान के अतिरिक्त मेरा उद्देश्य उन कारणों को दूर करना भी है जिन कारणों से मेरे बच्चे हिन्दी प्रेम से वंचित रह गए। यदि हम सब लिखेंगे तो कुछ स्तरीय व आज के लिए प्रासंगिक लेखन भी किसी की कलम से अवश्य निकलेगा।
मुझे अपने लेखन के मूल कारण यही नजर आते हैं। किसी को फिट करना या दुख पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि ऐसा हो गया या मैंने ऐसी भावना आप तक पहुँचाई तो क्षमा प्रार्थी हूँ।
आजकल समयाभाव के कारण ही मैं केवल वे ही ब्लॉग पढ़ पाती हूँ जो ब्लॉगवाणी में मेरे खोलने पर सामने दिखते हैं। पीछे जाकर पढ़ना बहुत कम हो पाता है।
जब जब अवसर मिलेगा आपको पढ़ती रहूँगी, परन्तु यदि मेरी टिप्पणी किसी प्रकार की दुर्भावना जगाए तो टिप्पणी न करना ही बेहतर होगा।
यदि मेरा यह उत्तर आपको आश्वस्त कर सका तो बताइएगा अवश्य अन्यथा यदि यह वार्तालाप याद रहा(मैं बहुत जल्दी दुर्भावना व बहुत कुछ भूल जाती हूँ, शायद इस बात को भी भूल जाऊँ 🙂 ) तो मैं टिपियाऊँगी नहीं।
पत्र लिखकर बात को साफ करने के लिए आभार।
घुघूती बासूती
tIME IS NOT FAR WHEN SUCH THINGS WILL HAPPEN