हर व्यक्ति जानता है कि आज चारों और समस्यायें ही सामस्यायें हैं. पानीबिजली, गेस, नौकरी, बच्चों की भर्ती से लेकर हर ओर समस्यायें ही समस्यायें हैं. लेकिन इन सब के पीछे छुपी हुई एक महाविपदा को हम सब नजरअंदाज कर रहे हैं. कल को जब यह विपत्ति टूट पडेगी तब हम कुछ नहीं कर पायेंगे जब कि अभी चेत गये तो इसका हल निकाला जा सकता है.
पहली समस्या है जंगलों के लुप्त होने की. आप कहेंगे कि “अभी तो भईया गर्मी के साथ संघर्ष कर रहे हैं, जंगलवंगल की कौन सोचे”. यही तो असली समस्या है. हम “आज” और “अभी” के पीछे इतने व्यस्त हैं कि दूरदृष्टि को तिलांजली दे दी है. हर ओर जंगल कट रहे हैं. मौसम बदल रहा है. लेकिन हम वह नहीं कर रहे जो किया जा सकता है. लेकिन इसके पहले जरा आंकडे देख लीजिये:
- पृथ्वी पर हर सेकेंड 2.4 एकड जंगल लुप्त हो जाता है
- हर घंटे 150 के करीब और हर दिन 214,00 एकड
- हर साल 7.8 करोड एकड जंगल खतम हो जाता है.
ताज्जुब की बात यह है कि दुनियां का एक देश ऐसा भी है जहां हर साल जंगल का क्षेत्रफल बड रहा है और वह है संयुक्त राज्य अमरीका. इसके पीछे आज से पचासेक साल पहले तय की गई उनकी नीति है कि जो कंपनियां इमारती लकडी के लिये जंगल काटती हैं, उनको एक पेड काटने के बदले तीन लगाने होंगे. जब ये तीन बडे हो जायेंगे तो तीन पर एक की अनुमति बडी उदारता से पुन: दी जायगी. फल यह हुआ कि दुनियां में सबसे अधिक लकडी काटने वाले अमरीका में हर साल करोडों पेड काटने के बावजूद हर साल पेडों की संख्या बढ रही है.
अब सवाल है कि मेरे आपके समान एक अदना सा आदमी क्या कर सकता है. यदि आप सारी दुनियां को एक साथ पलटने की सोचते हैं तो एक अकेला आदमी कुछ भी नहीं कर सकता है. लेकिन यदि आप कलम की शक्ति से परिचित हैं तो उसकी सहायता से कम से कम सैकडों या हजारों लोगों को वृक्ष-प्रेमी बना सकते हैं. उनके मन में अलख जगा सकते हैं कि वे कुछ करें. ऐसे ही हर आंदोलन चालू होता है.
ग्वालियर में वनमित्र न्यास नामक एक संस्था है. लोगों से मिली सहयोग राशि की मदद से वे सारे शहर में (खास कर कालोनियों के किनारे पडी खाली भूमि पर) पेड लगाते हैं. अडोसपडोस के कुछ सज्जनों को उसे सींचने और संभालने का काम सौप देते हैं. पिछले सालों में इस छोटे से आंदोलन ने बहुत बडा काम किया है. एक संस्था, लेकिन अब हजारों विशाल पेड हो गये हैं.
सवाल इस बात का नहीं कि आप क्या कर सकते हैं बल्कि इस बात का है कि आप कुछ करना चाहते हैं क्या. यदि चाहते हैं तो आप आसमान छू सकते हैं. जरा इस राह पर निकल कर तो देखिये.
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Desert by flydime
आपने ग्वालियर का अच्छा उदाहरण दिया. पर हमारे यहां सडक बनाने के नाम पर पूरे शहर को वीरान कर दिया है. बाहर दिन मे धूप मे निकलो तो मरघटों जैसा सन्नाटा लगता है. पहले पेडो के नीचे लोग बाग बैठे सुस्ताते दिखाई देते थे अब सि्फ़ मरघट बचा है, शहर तो कहने भर का है. शायद हम मर चुके हैं यह चिट्ठाकारी मेरा भूत कर रहा है.
रामराम.
एक था सम्राट अशोक, उस ने राहों के आस पास छायादार वृक्ष लगवाए। फिर उस के बाद? शायद कोई सम्राट न हुआ!
हम आपका समर्थन करते हैं.
The government is only interested in making money from forests.it does not think about improving the conditions of forest.i live in uttarakhand where about 70% land is covered with forests according to government figures.but only a small part of this forest is dense,which is filled with various types of trees.
हमलोगों के आसपास भी नगरीय संस्कृति पनपी । सड़कों का निर्माण, फिर दो लेन से बढ़ाकर उनका चार लेन किया जाना – सब कुछ ने मीलों दूर तक वृक्ष समाप्त ही कर दिये । अब कंक्रीट दिखती है दूर-दूर तक ।
हम इन्हीं कंक्रीट की चिकनी सड़कों से फिसल-फिसल कर पार्कों में उगे वृक्षों की शरण में जाना चाहते हैं, और संतुष्ट हो जाते हैं ।
इस बेहद जरूरी प्रसंग की प्रविष्टि के लिये आभार ।
इस मामले में हम अमेरिका का अनुसरण नहीं करते!
बेहद प्रासंगिक और प्रेरक कथन..
मैंने अभी हाल में ही भोपाल के एक सेवानिवृत्त वन कर्मचारी के बारे में पढ़ा था जिसने भोपाल में ही अकेले लगभग दस वर्षों की मेहनत से शहर के पास पड़ी जमीं पर पचासों एकड़ वन क्षेत्र विकसित किया.
लेकिन उस लेख का अंत दुखद था.. भूमि जिस पर वर्षो वर्ष लगा कर वन विकसित किया गया था, वह उपेक्षित परन्तु सरकारी थी. विकास की आंधी चली.. बिल्डर्स के लोगों ने जंगलों में आग लगाई और बल पूर्वक मनों लकडियाँ ले गए.. सरकार ने लाख गुहार लगाने के बाद भी कोई मदद नहीं की क्योंकि बाद में पता चला की वन विभाग के लोगों ने भी ऊपर की मलाई खाई थी.
पर जो भी हो, मुझे विशवास है की ऐसे जीवट लोग जब भी दुनिया से जाते हैं, अपने जैसे सौ लोगों को अपने पीछे छोड़ जाते हैं..