मैं जब भी गोरे अंग्रेजों की करतूतों के बारे में लिखता हूँ तो चिट्ठाजगत के कई भूरेकाले अंग्रेजों के तनबदन में आग लग जाती है. सच कहा जाये तो अंग्रेज सिर्फ इस देश को लूटने के लिये आये थे, और उनसे हम को जो भी भलाई मिली है वह संयोग मात्र है. यदि उन्होंने सडकें बनवाईं तो वह अपने धंधे के लिये था. रेलगाडियां चलाई तो अपने खुद के माल की ढुलाई के लिये था, न कि हिन्दुस्तान की भलाई के लिये.
उनका लक्ष्य लूटना था अत: जो कुछ हाथ लग सकता था वह सब लूट कर ले गये. लूटे माल में से एक आईटम था हस्तलिखित भारतीय पुस्तकें. जब यूरोपीय जनजातियां कबीलाई जीवन बिता रहे थे तब भारतीय चिंतक एवं मनीषी लोग ग्रंथ-रचना में लगे हुए थे, ग्रंथशालायें बना रहे थे, लिखित रूप में ज्ञानसंकलन कर रहे थे. कबीलाईयों के लुटेरे बच्चे आकर इन को लूट ले गए.
हिन्दुस्तान से लूटी हुई द्सहजारों हस्तलिखित पुस्तकें आज यूरोपीय पुस्तकालयों एवं संग्रहालयों की शोभा बढा रही हैं. लेकिन इसके बावजूद लाखों हस्तलिखित ग्रंथ भारत में बचे हुए हैं. इतना ही नहीं ऐसी कई किताबें आजकल बडी लापरवाही के साथ बेचीखरीदी जा रही हैं.
सारथी के सारे पाठकों से मेरा आग्रह है कि वे अपने दादादादी, नानानानी आदि से पूछ कर, घर के कोने कोने को छान कर, देखें कि क्या आपके पास कोई हस्तलिखित ग्रंथ है. यदि है तो कम से कम उस की दो स्पष्ट फोटोकॉपी निकलवा कर सुरक्षित कर लें. इसके बाद उस ग्रंथ को हवारोधी प्लास्टिक के किसी लिफाफे में डाल कर सुरक्षित रखें या किसी ऐसी संस्था को दान कर दें जो उस ग्रंथ की कीमत जानती है.
आईये बची हुई लिखित संपदा को सुरक्षित करने के लिये एकजुट हो जायें!!
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अरे शास्त्री जी खूब लिखो जी !!
लगे आग जिसके लगनी हो?
कह तो आप सच्चे ही रहे हो!
हिन्दी चिट्ठाकारों का आर्थिक सर्वेक्षण : परिणामो पर एक नजर
और हाँ आप अपना आर्थिक सर्वेक्षण का लिंक बदल कर अब परिणाम का कर दें तो अच्छा होगा!!
दुःख होता है इस बारे में सोच कर भी.. क्या कोई तरीका नहीं है उन पुस्तकों को वापस लाने का? क्या कोई माल्या इस बार फिर से हमारी मदद कर सकता है? कर भी देगा तो क्या.. अपनी व्यक्तिगत संपत्ति से ९ करोड़ खर्चा कर के लाये गए गांधी जी के चश्मे व अन्य सामान की पुणे आगा खान पैलेस में दुर्गति अपनी आखों से देख कर आया हूँ.
सिर्फ पुरानी पुस्तकों के संग्रह से कुछ न होगा.. हमें उनमे छिपे अकूत ज्ञान के मोल को भी पहचानना होगा.
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जो कुछ हमारे पास शेष बचा है, जब हम लोग उसकी ही कद्र करने में असमर्थ हैं तो फिर नई पाण्डुलिपियां/ग्रन्थ इत्यादि ढूंढने का ये प्रयास तो एक प्रकार से समय एवं धन दोनों ही व्यर्थ गंवानें के समान है।
इस प्रकार के किसी प्रयास के पहले सर्वप्रथम हम लोगों को अपनी आखों पर चढे हुए इस अंग्रेजियत के चश्में को उतारना होगा, अन्यथा भैंस के आगे चाहे जितनी मर्जी बीन बजा लीजिए, वो टस से मस नहीं होने वाली।
शास्त्री जी, देख लीजिएगा आज आपकी इस पोस्ट को बहुत कम टिप्पणियां मिलने वाली है…….गैरेन्टिड
बहुत सही कहा आपने.
रामराम.
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इस प्रविष्टि को देख नहीं पाया था । अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रसंग छेड़ दिया है आपने । कुछ ऐसी ही हस्तलिखित पुस्तकें मेरे पिताजी के नाना जी की हस्तलिपि में लिखी हुई मैंने देखी हैं, दुर्लभ आयुर्वेदीय चिकित्सकीय सूत्र थे उनमें । फिर कुछ योग और तंत्र की पुस्तकें भी थीं । मेरे चेतनापूर्ण होने तक बहुत सी नष्ट हो गयीं,झर गये उनके पन्ने-परन्तु कुछ अब भी सम्हाल कर रखा है मैंने ।
वत्स जी की टिप्पणी ने तो दिल ही तोड़ दिया । सच कहूँ तो प्रविष्टि का महत्व ही न्यून हो गया इस टिप्पणी से कुछ कुछ; पर मेरी दृष्टि में ।
बहुत से विश्वविद्यालयों और प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में माइक्रोफिल्मिंग और डिजिटाइजेशन की सुविधा उपलब्ध है। इन अनमोल रत्नों को इस माध्यम द्वारा हमेशा के लिए संरक्षित किया जा सकता है ताकि आगे अध्ययन के लिए उपलब्ध हों।
यदि ऐसी किसी सुविधा से जुड़े व्यक्ति की यहाँ नज़र पड़े तो उनसे मेरी अपील है कि ज्ञान वर्धन करें, साथ ही व्यावहारिक उपाय बताएँ।