परसों दिनेश जी का आलेख रेल बोर्ड के गलत निर्णयों से रेल संपत्ति का नुकसान और यात्रियों को परेशानी पढा तो एक दम से बहुत सारी बातें याद आ गईं. 1950 और 60 आदि का अपना बचपन याद आ गया जब सरकारी कर्मचारी तो बादशाह हुआ करते थे. दफ्तर का चपरासी भी लाट साहब से कम नहीं होता था और बिना उसका इनामकिताब किये बडे बडों को दफ्तर के अंदर अंदर जाने नहीं देता था.
दफ्तर के बाहर उसका स्टूल पडा रहता था जिसे ‘दीवाने-खास’ के सिंहासन से अधिक वजन हासिल था. सन 2000 आते आते नियम बदले, माहौल बदला, लोगों ने अपने अधिकार समझे और धीरे धीरे सब कुछ बदलने लगा है. लेकिन अभी भी सरकारी तंत्र एकदम आजाद है. वह जनता की कमाई (टेक्स द्वारा आपकी जेब से लिये गये पैसे) पर जीता है, लेकिन जनता के प्रति उसका नजरिया पूरी तरह नहीं बदला है.
अंग्रेज लुटेरे थे, लेकिन नियमकानून के भी ज्ञाता थे. आज के भूरे अंग्रेज कई बार नियमकानून और मानवता को ताक पर रख कर काम करते हैं. इतना ही नहीं, कई बार सामान्यबुद्धि को भी ताक पर रख कर काम करते हैं. लेकिन यह सब बदल सकता है. जनता को हर मामले में इन लोगों पर दबाव बनाना होगा. इस दबाव के कारण बहुत कुछ बदला है, और दबाव बनाये रखें तो बहुत कुछ और बदल सकता है.
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shaahstri jee, jab bhee main koi aalekh aisaa padhtaa hoon jismein prashaashan, pulis, sarkaaree daftaron , aadi par prashn uthaayaa gaya hota hai to mere dimaag mein ek hee baat aatee hai ..inmein jo bhee log hote hain ve hamaare aapke beech ke hee log to hain…fir bhee haalaat to vaise hee hain jaise aapne bataaye hain…..
लोग जगे कुछ कुछ यहाँ बदलेंगे हालात।
कहीं कहीं पर शेष है वही पुरानी बात।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
जानकारी का अधिकार (आरटीआई) से बहुत उम्मीद है। उसका सही उपयोग किया जाए, तो बहतु से सरकारी बाबू और कार्यालय रास्ते पर आ जाएंगे।
बहुत सटीक लिखा है आपने. फ़र्क तो आया है पर उस हद तक नही आया जैसा की आना चाहिये. सरकारी अभी भी सरकारी सांड ही हैं.
रामराम.
बहुत सटीक लिखा है आपने. फ़र्क तो आया है पर उस हद तक नही आया जैसा की आना चाहिये. सरकारी अभी भी सरकारी सांड ही हैं.
रामराम.
शास्त्री जी यह इतना आसान नही है, सब से पहले लोगो को अपने अधिकार का पता हो, फ़िर इन लोगो मे सव्र हो, तीसरा इन नेताओ की गुंडा गर्दी पर कंट्रोल हो, कानून सख्त हो, लेकिन यह सब अभी तो सॊ सालो तक मुमकिन नही, यहां भाषण सभी देते है, लेकिन जब अपना काम हो तो जल्द से जल्द निपटा लेना चाहते है केसे भी,हम जब तक नेता को अन्नदाता समझे गे, उसे अपने से बडा समझेगे तब तक यह हाल रहेगां. नेता तो हमारा नोकर है फ़िर उसे क्यो महान कहे, हां अगर वो कोई महान काम करे तो वो महान कहलयेगा, वरना आज का गुंडा जो हमारा नेता बना है वो देश को किस ओर लेजायेगा…….
सरकारी तन्त्र की मूल प्रवृत्ति ही ऐसी है कि यहाँ काम या तो भयवश होता है या लालचवश। कर्तव्यभावना की कमी एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं दिखता है। सदाचार की बाते अब किताबों में बन्द हो गयी हैं।
आप ने सही कहा है और भाटिया जी ने भी। भाटिया जी यह विस्मृत कर जाते हैं कि हम व्यवस्था से एक सवाल पूछ सकते हैं कि आजादी के बासठ वर्ष बाद भी भारत पूर्ण साक्षर नहीं है शिक्षित होना तो दूर की बात है। इस काम को करने और देश में अनुशासन की बयार चलाने की जिम्मेदारी तो सरकार की ही थी। जनता के असंगत व्यवहार को दोषी बताने से तो काम नहीं चलेगा। शासन तंत्र को जिम्मेदारियाँ निभानी होंगी और उसे ही दोषी भी कहा जाएगा।
Sahi kaha aapne…
सूचना का अधिकार निसंदेह इस श्रेणी में कारगर सिद्ध हो सकता है लेकिन समस्या है की उसे केवल सेवानिवृत्त श्रेणी के लोग ही प्रयोग में ला पा रहे हैं. क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों आदि में काम करने वाले वर्ग ने अगर जैसे तैसे काम से समय निकाल कर शिकायत कर भी दी तो वो दोबारा उसकी स्थिति जानने के लिए समय नहीं निकाल सकता. एक दिन की पगार २००० कटवा कर शिकायत करने से अच्छा है ५०० निकाल कर दे दो और काम करवा कर चलते बनो.
एक पूरी श्रृंख्ला है ऐसे लोगों और उनका समर्थन करने वालों की जो रिश्वत और भष्टाचार के तंत्र को अन्दर ही अन्दर बड़ी ईमानदारी से मजबूत कर रहे हैं. रिश्वत देने के बाद सरकारी दफ्तरों में काम इतनी सफाई से होने लगा है की शिक्षित वर्ग में इसके प्रति एक आस्था सी बन गयी है.
Never much faced the sarkaari tantra but had handled the loophole rules of university system. RTI and e governance increases reflects their work better and reports cannot be thrown away in bundle of sheets. Once had faced huge problem in Passport office, it could have jeopardised my career but then contacts matter in this world. Then, I sweared that Never will join bureaucratic services but will deal with them as a common man in future. Great article but IAS have became blue blooded nobles of past and netas the small landlords…To heck with them.
शिक्षा और चेतना के उत्तरोत्तर विकास के साथ साथ ही ऐसी मानसिकता निर्मूल होगी।