(मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय घटना 001) इस साल मेरे कई मित्रों ने मुझ से मेरी आत्मकथा लिखने के लिये काफी जिद की, लेकिन फिलहाल मैं उसके लिये समय नहीं निकाल पाऊंगा. हां, उनकी जिद के कारण यह जरूर लगा कि मैं अपने जीवन की अविस्मरणीय घटनाओं के बारे में जरूर लिखूँ. अविस्मरणीय में वे सभी प्रकार की घटनायें (अच्छी, बुरी, विस्मयकारी) बातें शामिल हैं जिनको भूले नहीं भुलाया जाता. पहली घटना निम्न है:
मैं उस समय छटी में पढता था, और ग्वालियर शहर में सरकारी बसें चलती थीं जो नागरिकों के लिये बहुत सुविधाजनक थी. घर से 6 किलोमीटर दूर विद्यालय जाने के लिये 20 पैसे का टिकट लगता था और 30 से 45 मिनिट में विद्यालय पहुंच जाता था. घर के पास बसडिपो से बसें चालू होती थीं. (उस जमाने में 20 पैसे में 2 से 3 किलो टमाटर खरीद सकते थे)
एक दिन स्कूल जाने लिये बस में बैठा था कि एक बूढी अम्मा आई और बस में बैठ गई. हाथ में एक पोटली और चेहरे पर बहुत ही पीडा के लक्षण थे. बस चलने के 20 मिनिट पहले कंडक्टर आया और सब को टिकट देने लगा. बूढी अम्मा से 20 पैसे मांगे तो बडी दयनीय आवाज में बोली कि बेटा मुझे बहू ने घर से निकाल दिया है और अपनी बेटी के घर जा रही हूँ. बहू ने कुल मिला कर सिर्फ दस पैसे दिये हैं, मेरे पास और फूटी कौडी भी नहीं है.
गाडी में बैठे लोग बहू की बुराई करने लगे और अम्मा के साथ सहानुभूति दिखाने लगे. कंडक्टर बोला कि अम्मा जहां जाना है वहां उतर लेना. टिकटचेकर आ जाये तो बोल देना कि बुढापे के कारण असली स्टाप पर (10 पैसे की दूरी) पर उतरना भूल गई, बाकी वह संभाल लेगा. अम्मा पैसे टटोलने लगी लेकिन पैसा न मिला. बीसेक यात्री थे, और उन सबको टिकट देकर कंडक्टर अपनी सीट पर चला गया. अम्मा से बोला कि पैसे मिल जायें तो दे देना.
अम्मा की 3 जनों की सीट पर और कोई नहीं था. आगेपीछ की सीटों पर भी कोई नहीं था. उसकी सीट के बगल में 2 जनों की सीट पर मैं बैठा था और कनखियों से अम्मा को देख रहा था. अचानक अम्मा ने गठरी में हाथ डाला, एक मुट्ठी पैसे निकाले, और चवन्नी, अठन्नी आदि के बीच से दस पैसे का एक सिक्का निकाल कर बाकी सब को चुपके से गठरी में पहुंचा दिया. फिर एकदम से कंडक्टर से बोली कि “बेटा वह दस पैसा मिल गया”.
तब तक सब उस वृद्धा के प्रति इतने दयालू हो गये थे कि कंडक्टर बोला “रख लो माताजी, उसे अपने पास रख लो. निर्दयी बहू के कारण कुल दस ही तो पैसे हैं तुम्हारे पास. बस से उतरने के बाद शायद जरूरत पड जाये”.
यह घटना 42 साल पहले की है. मैं आज तक उसे भूल नहीं पाया. उस अनदेखी निर्दोष बहू, दयालू कंडक्टर और उन दोनों के साथ माताजी का छल भूलना मुश्किल है. यात्रियों को उल्लू बनाया वह अलग.
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वाकई एक अविस्मरणीय संस्मरण्. अच्छा लगा
कहानी घर घर की 🙂
तो जनाब आप ग्वालियर में रहे है मै भी करीब दो सालो तक वहां रहा हूँ . अपनी आत्मकथा शब्दों में उकेरना सचमुच रोचक है . बढ़िया संस्मरण आभार.
उल्लू बनाने वालों के पास ऐसी ही कहानियाँ होती हैं। इन के चक्कर में कई वास्तविक पात्र मदद प्राप्त नहीं कर पाते।
इस संस्मरण को पढ़कर राज कपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ का वह दृश्य याद आ गया जब एक बुजुर्ग व्यक्ति अन्धे होने का स्वांग करके असहाय नायिका को ट्रेन से उतार लेता है। बाद में छले जाने का ज्ञान होने पर नायिका उससे कहती है कि भविष्य में ऐसा मत करना नहीं तो लोग अन्धों के प्रति सहानुभूति रखना बन्द कर देंगे।
आपके अनमोल संस्मरणों की प्रतीक्षा रहेगी।
वही हवन करते हाथ जलाने वाली बात है।
आयु का चरित्र से कोई सम्बन्ध नहीं होता। पर कुछ ठगों की वजह से दया, करुणा जैसे मानवीय मूल्यों को त्याग थोड़े ही दिया जायेगा।
Really momorable ,emotional event,but the main question is why four decades back also rhe relations of saas and bahu were like this!! Shocking,SAMAZ KI IN VIKRITIYON KE LIYE KAUN JIMEWAR HA. I am still missing your article on this blog ” BUDHEN LOGON KA KYA KAM SAMAJ MEIN ”
i DON’T KNOW WHERE SOCIETY IS MOVING AND WHAT ENERZY IS PUSHING THE SOCIETY DOWN TO EARTH.
एसे बुड्डे- बुड्डियो का क्या किया जाय़???