मेरे पिछले लेख मानसिक व्यायाम नुक्सान कैसे होता है?, मानसिक व्यायाम: नुक्सान ही नुक्सान!!, क्या व्यायाम मन में किया जा सकता है!! में जिस विषय को प्रारंभ किया था उसकी अंतिम कडी आ गई है.
मन और शरीर की रचना आपस में एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करने के लिये हुई है. यदाकदा मन शरीर से अलग और शरीर मन से अलग कार्य करते हैं. शरीर से कमजोर होते हुए भी किसी कार्य के पीछ पड जाने पर हमारा मन शरीर से आगे दौडता है. और जब अनमने कोई कार्य किया जाता है तो मन शरीर के साथ नहीं होता है लेकिन शरीर काम करता है. हर कोई जानता है कि इस तरह कोई भी व्यक्ति अधिक दूर नहीं जा सकता है.
स्पष्टतया, हम में से किसी को भी ऐसे किसी कार्य में लम्बे समय तक लिप्त नहीं रहना चाहिये जो शरीर को मन से या मन को शरीर से अलग कर देता है. लेकिन मनुष्य जब वासना के वशीभूत हो जाता है और सारा समय यदि वासनात्मक चिंता में बिताता है तो वासनालिप्त होने के कारण उसके शरीर में बदलाव आने शुरू हो जाते हैं. (यह आलेख विवाहित जीवन की कामभावना के बारे में नहीं है जहां मन और शरीर तालमेल के साथ कार्य करते हैं एवं समय पर निवृत्ति हो जाती है). जैसा मैं ने कई बार याद दिलाया है, आज सारा समाज वासनात्मक चित्र, पिक्चर, किताबें, विज्ञापन से भरा है. इसके असर को समझने के लिये निम्न आंकडा जरा देखें:
जब लोग बोलते हैं तो एक मिनिट में 60 से 80 शब्द का प्रयोग करते है. बहुत तेज लोग 100 शब्द प्रति मिनिट बोलते हैं. पढते समय अधिकतर लोग 120 शब्द प्रति मिनिट पढते हैं और बहुत ही तीव्र वाचक लोग 240 शब्द प्रति मिनिट तक पहुच जाते हैं, लेकिन ये हजारों मे से सिर्फ एक होते हैं. तीव्र विज्ञापन भी लगभग 120 से 240 शब्द प्रति मिनिट के वेग से विचार प्रेषित करते हैं. अधिकतर लोग सोचते समय 240 से 400 शब्द प्रति मिनिट के वेग से सोचते हैं. इसका मतलब है कि 400 शब्द प्रति मिनिट एक पढेलिखे बुद्धिजीवी की मानसिक गति का अधिकतम वेग है. लेकिन एक चीज इस सीमा को लांघ सकती है, और वह है वासनात्मक विचार.
अनुसंधानों से पता चला है कि जब एक व्यक्ति वासनात्मक दिवास्वप्न देखता है तो उसका मन सोचने के वेग की सारी सीमायें लांघ कर एक मिनिट में 1600 से 2400 शब्द वेग से कल्पना करता है. जिसका मतलब है कि एक मिनिट वासनात्मक कपोल कल्पना में बिताना चार से छ: मिनिट तीव्र गति से सोचने के तुल्य है. इसका मतलब यह भी है कि दस मिनिट वासना में लिप्त रहने पर एक घंटे की यौनक्रिया के तुल्य रासायनिक परिवर्तन मानव शरीर में संभावित है.
कामभावना जीवन का अविभिजित भाग है, लेकिन सिर्फ दांपत्य की सीमा के अंदर. इसके बाहर यह हर तरह से वर्जित है. लेकिन जब एक कुंवारा/कुंवारी वासनात्मक साहित्य, चित्र, या पिक्चर में अपने आप को डुबा देता है, या जब एक विवाहित व्यक्ति अपने जीवनसाथी के बदले गैर विपरीतलिंगियों के बारे में वासनात्मक कपोलकल्पना में लिप्त रहता है तो उसके शरीर में जो रासायनिक परिवर्तन होते हैं वे उसको नुक्सान पहुंचा सकते हैं क्योंकि मन सामान्य से दस गुना तेजी से उड रहा है और सामान्य निवृत्ति न होने के कारण शरीर अपने में होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं का नुक्सान उठा रहा है.
कोई भी व्यक्ति अपने आप को यदा कदा मन में आने वाली कामना या वासना से नहीं बचा सकता है. लेकिन वह इस विचार को आगे बढा कर इस में लिप्त हो जाने से अपने आप को बचा सकता है. यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आपका मन आप के लिये आत्मघाती सिद्ध होगा. किसी भी परामर्शदात से पूछ कर देखें!! अत: इलाज से बेहतर है कि बीमारी को पास फटकने ही न दिया जाये!
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सहमत हूँ पूर्णतः कि “इलाज से बेहतर है कि बीमारी को पास फटकने ही न दिया जाये!” । आलेख के लिये आभार ।
स्तुत्त्य पोस्ट,
एक अनछुए पहलू पर उपयोगी ज्ञान। बहुत ही सामयिक।
vicharottejak rachana. Achchhi jankari.
बात बहुत गम्भीर है कहते फिलिप सुजान।
सुखमय जीवन के लिए बेहतर है यह ज्ञान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आभार…सहमत हूँ.
मन प्राणी की जैविक आवश्यकता से संचालित होता है। उसे जितना नियंत्रित कर सकते हों कर लें।
आपने बहुत अच्छा लिखा है. पर मेरा कहना और सोचना यह है कि अगर आदमी अपने जीवन मे सकारात्मक व्यस्तता रखे तो ये फ़ालतू की बातें सोचने का समय ही कहां बचता है? और उत्पादकता भी बढती है.
रामराम.
@ताऊ रामपुरिया समस्या यह है ताऊ जी कि कई लोग दिवास्वप्नों में इतने डूब चुके हैं कि वे इसका फल पहचान नहीं पा रहे हैं.
यह एक सत्य है कि सकारत्मक सोच परिवर्तन ला सकती है
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चर्चा । Discuss INDIA
बहुत अच्छी बात बताई है जी आपने
ताऊ की सलाह पर भी अमल करूंगा
नमस्कार
विचारणीय और अनुकरणीय…। धन्यवाद।
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शास्त्री जी हमे ऎसे विचार ही मन मै नही लाने चाहिये, ओर बच्चो को भी ऎसी आदत डाले की वो अन्य कामो मै मस्त रहे,
आप ने बात को बहुत ही सही ढंग से समझा कर लिखा,
धन्यवाद
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे
आखिर में मन पर लगाम देना मुश्किल नहीं बल्कि नामुमकिन है । सबसे आसान तरीका यह है कि मन को और चीज़ में लगा दो । ऐसे करना सम्भव है, क्योंकि हर व्यक्ति को एक से ज्यादे चीज़ में दिलचस्पी होती है ।
अच्छी बात बताई है जी आपने!!
विषय वाकई में बहुत गंभीर है. और अगर खुद को अपने सामने रख कर सोचने की कोशिश करूँ तो कुछ समझ भी नहीं आता.
सचमुच में एक स्तुत्य आलेख..
ज्ञानवर्धक, तर्क-युक्त और औचित्यपूर्ण… कुल मिला कर बेहतरीन.