मैं ने अपने पिछले आलेख जब गधे राज करते हैं!! में दो बातें बताने की कोशिश की थी:
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यह मानकर न चलें कि हमेशा जिम्मेदार लोग ही राजकाज करेंगे या समाज के ऊपर अफसर होंगे. संभावना इस बात की है कि निपट मूर्ख के हाथ रास थमा दी जाये.
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जिम्मेदारी का वक्त आने पर ये निपट मूर्ख समाज का कबाडा कर देंगे.
इसके उदाहरण हम अपने चारों ओर हर दिन देखते हैं. एक उदाहरण ले लीजिये. मैं लगभग दस साल तक केरल के एक बहुत बडे अस्पताल के डायरेक्टरों में से एक था. एक बार सारे अस्पताल का का कंप्यूटरीकरण मेरे हाथ में दिया गया. मैं ने तीन साल का कार्यक्रम बनाय जिसमें हिसाबकिताब से लेकर मरीजों का लेखाजोखा तक अस्पताल के हर कार्य को कंप्यूटरीकृत करके एक केंद्रीय कंप्यूटर से जोडने की योजना थी.
काम अच्छा चला. लेकिन छ: महीने के बाद डायरेक्टर बोर्ड की मीटिंग में एक डायरेक्टर बुरी तरह से फैल गया. उसका कहना था कि वह हिन्दुस्तान के सबसे बडे बैंक का अफसर हैं जहां सारे बैंक को सिर्फ 15 मिनिट में कंप्यूटरीकृत कर दिया गया. “अरे वे एक सीडी लेकर आये, कंप्यूटर में डाला, और बस पंद्रह मिनिट में साफ्टवेयर तय्यार हो गया”. मेरे कहने का कोई असर नहीं हुआ. डायरेक्टरों में कोई और संगणक का जानकार नहीं था. सब मुझे बुराभला कहने लगे. तब मैं ने प्रस्ताव रखा कि मैं यह जिम्मेदारी छोडने को तय्यार हूँ बशर्ते मेरे वह मित्र इस जिम्मेदारी को अपने हाथ ले लें.
सब ने मेरी मांग मान ली और मैं ने अपना पल्ला झाड लिया. साथी डायरेक्टरों को लगा कि शास्त्री जैसे अकर्मण्य व्यक्ति के बदले उनको एक कर्मठ व्यक्ति मिल गया है. अगले ही दिन उस सज्जन ने प्रोग्रमर्स को बुला कर धमकी दी कि वे संगणक में सीडी डाल कर 300 बेड वाले अस्पताल के सारे विभागों को जोडने वाला साफ्टवेयर विकसित करने का का जादू पंद्रह मिनिट में कर दिखायें. जब यह नाटक रोज रोज होने लगा तो एक एक करके सारे प्रोग्रामर स्तीफा देकर खिसक लिये. एक दिन ऐसा आया जब अस्पताल में जितना साफ्टवेयर 6 महीने में विकसित हुआ था वह भी रूठ गया.
बिना हार माने उन्होंने अगली ट्रस्ट मीटिंग में उन लोगों को बुलाया जिन्होंने उनके बैंक के ब्रांच में साफ्टवेयर स्थापित किया था. पंद्रह-मिनिट-जादू की सुन कर उन्होंने सर पकड लिया और बताया कि 15 मिनिट में जो स्थापित किया गया था वह पिछले 3 साल और 300 लोगों की मेहनत का फल था जिसके लिये करोडों रुपये बैंक के केंद्रीय दफ्तर ने खर्च किया था. तब सारे डायरेक्टर बोर्ड वालों को लगा कि कैसी बेवकूफी हो गई है.
इस बीच डायरेक्टर बोर्ड में मेरी 10 साल की कार्यावधि पूर्ण हो गई और मैं ने अस्पताल छोड दिया. आज इस घटना को 5 साल होने को आये हैं. मैं ने जिस कार्य को 5 लाख रुपये की तनख्वाह देकर अस्पताल के ही प्रोग्रामर्स से करवाने की जिम्मेदारी ली थी वह एक इंच भी आगे नहीं बढा है जबकि सुनते हैं कि 50 लाख रुपया वे फूंक चुके हैं. यह भी सुनते हैं कि अंत में अपमानित होकर उस आदमी को भी बोर्ड छोडना पडा.
कभी कभी ठस लोगों के कारण पलायन करना बेहतर रहता है, लेकिन कई बार डटे रहना जरूरी होगा है जिसकी चर्चा करेंगे कल के आलेख में!!
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ठसना यानी 60 बरस की उम्र से पहले सठियाना। एक नया सूक्ति वाक्य।
ऐसा होता है जी हमेशा…अगली कड़ी का इन्तजार.
अच्छा सुझाव है।
कही आगे यह भारी न पड़ जाए।
प्राय: सरकारी दफ़्तरों में इस तरह के वाक्ये होते ही रहते हैं क्योंकि कोई भी अपना रजिस्टर छोड़ कर कंप्यूटर पर काम ही नहीं करना चाहता। और अगर कोई ऊपर से दबाब डालता है तो वे या तो इतनी परेशानी खड़ी कर देते हैं कि काम करना मुश्किल हो जाता है या फ़िर खुद ही स्थानांतरण करवा लेते हैं।
पर अगर ऊपर कोई समझदार व्यक्ति होता है तो यही कर्मचारी बिल्कुल घोड़े के जैसे सीधे चलते हैं कहीं भी दायें या बायें नहीं देखते हैं।
रही बात “ठस” की तो यह भी एक उपाधि है। “ठस” वह है जो “ठस” की बातों को मान ले।
क्या शास्त्री…आप तो एपीसोड पर एपीसोड बढाए जा रहे हैं…वो भी अलग अलग एंगल दे कर…मगर आपके अनुभवों को गाँठ बाँध रहे हैं…हमारे काम आयेंगे…कल फिर आयेंगे..
यह घटनाएँ तो सरकारी दफ्तरों में आम हैं -इन गधों से जितना जल्दी हो दूर ही खिसक लेने में बधाई है
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा
hame bhi agali kadi ka intajar rahega
लो जी हम भी ठस लेते हैं.:)
रामराम.
बिलकुल सही बात कही आप ने.
धन्यवाद
आप ने पल्ला झाड़ कर ठीक किया।
बिल्कुल सही लिखा है आपने….लेकिन गधे घोडे तो हर जगह मिल जाएंगे।
ऐसे मामलों में अपना पल्ला झाड़ना उचित ही रहता है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा।
अगली कड़ी का इंतजार.. पर १५ मिनिट वाली बात बोर्ड मान कैसे गया… एक ठस तो ठीक था पर यहाँ तो सारे निकले..
yah to chalta hi rahta hai, kaabul me saar ghode to nahi hote!
ये निपट मूर्ख समाज का पूरा कबाडा आज तक, कोशिशों के बाद भी नहीं कर पाए हैं … आगे भी प्रभु खैर करिहैं.
बिलकुल सही. मेरे दफ्तर में बूढे तो बूढे, जवान कर्मचारी भी कुछ नया नहीं सीखना चाहते. सब चाहते हैं की पुराना विन्डोज़ 98 वापस आ जाये और लोटस में काम जारी रखा जाए. जबकि मैं अपने घर पर हर नए से नए सॉफ्टवेर को हर तरीके से जांच्के देखता हूँ और सीख भी लेता हूँ. सरकारी कार्यालयों की हालत खराब है. कई बार तो ऐसा हुआ की काम नहीं करना पड़े इसके लिए लोगों ने फाइलें भी डिलीट कर दीं, लेकिन मूढ़ता के भी लाभ होते हैं न, वे रिसाइकल बिन से उसे उडाना भूल गए, क्या करें, जानते ही न थे. 🙂