अन्तर सोहिल का प्रश्न!!

मेरे कल के आलेख सारथी अब वापस लीक पर!!  में मैं ने बताया था कि मैं जिस संप्रदाय का सदस्य हूँ उसमें हरेक को कितनी कडाई का पालन करना पडता है. इसके बारे में मेरे मित्र अन्तर सोहिल  ने कल टिपियाया:

मैं आपके पिछले लेख लगातार पढ रहा हूं। बहुत-बहुत बातें सीखने को मिल रही हैं। आपके समाज के बारे में भी आपके पिछले लेखों में पढा। समाज में कुरीतियां आने पर जब नवीकरण होता है तो नियम और वर्जनायें बनाई जाती हैं। लेकिन क्या (जैसे कि लगभग हर समाज या सम्प्रदाय में होता है) समय बदलने के साथ-साथ यह नहीं महसूस होता कि ये नियम व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हावी हो रहे हैं। क्या कुछ जबरदस्ती थोपी गयी वर्जनाओं में समय के साथ फेरबदल की आवश्यकता महसूस नहीं होने लगती है? जैसे आभूषण पहनना और सिनेमा थियेटर व्यैक्तिक रूचि पर अंकुश तो नही है? मैं अपना विचार आपके सम्मुख सही ढंग से नही रख पाया हूं या आपको कोई कष्ट हुआ है तो क्षमाप्रार्थी हूं।

सारथी चिट्ठे का लक्ष्य ही हर बात पर चर्चा और शास्त्रार्थ करना है अत: इस प्रश्न से कोई कष्ट नहीं हुआ. इस तरह की बातें पूछने के लिये आप सब का स्वागत है. निम्न बिंदुओं पर ध्यान दें तो कई बाते स्पष्ट हो जायेगी:

  1. यह सच है कि हमारे संप्रदाय की कई वर्जनायें व्यक्तिगत आजादी पर हावी हो रही हैं.
  2. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि इन वर्जनाओं के कारण कई आम और नुक्सानदेह आदतें इस समाज से अभी कोसों दूर है. धूम्रपान, मद्यपान एवं विवाहविच्छेद इसके कुछ अच्छे उदाहरण हैं.
  3. इन वर्जनाओं के कारण जो सामाजिक माहौल पैदा हुआ है उसने इस समाज को चिंतकों एवं लेखकों से भर दिया है.  इसका सबसे अच्छा उदाहरण मैं हूँ. मेरी 70 से अधिक पुस्तकें (मलयालम भाषा में) और 7,000 से अधिक आलेख छप चुके हैं. कई पुस्तकें 1000 से 3000 पन्नों की हैं.
  4. एक एक करके परिवर्तन आ रहे हैं. श्वेत वस्त्रों के बदले अब रंगबिरंगे कपडों ने स्थान ले लिया है.
  5. बाकी बातें भी बदलेंगी, लेकिन बेहतर होगा कि वे धीरे धीरे बदलें जिससे समाज का कम से कम नुक्सान हो.

हम एक ऐसी पीढी में रह रहे हैं जहां हर तरह की वर्जना को बुरा माना जाता है. स्वैरिता (मनमर्जी जीवन) को सही माना जाता है. लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि थोडीबहुत वर्जनायें समाज के हित के लिये जरूरी हैं. इस का परिमाण कितना हो वह हर समाज को अपनी पृष्ठभूमि के आधार पर तय करना होगा.

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Author: Super_Admin

9 thoughts on “अन्तर सोहिल का प्रश्न!!

  1. हम शायद इसे समाज सुधार कह सकते हैं। हम जानना चाहेंगे आप के इस खास समुदाय की व्युत्पत्ति और उस के इतिहास के बारे में। आप ने जिज्ञासा बहुत बढ़ा दी है। जो एक सफल लेखक होने की निशानी है।

  2. आपके सम्भवत: ईसाई होने पर यह पूछा सोहिल जी ने। वे हमसे पूछते न! न जाने कितनी वर्जनायें लपेट रखी हैं गर्मी के मौसम में भी मफलर की तरह! 🙂

  3. प्रणाम स्वीकार करें
    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद है जी, आपने मुझे समझा दिया
    दिनेश जी वाली जिज्ञासा मेरी भी है, और भी ज्यादा जानने का इच्छुक हूं
    पाण्डेय जी की चुहल अच्छी लगी
    (मुझ से थोडा अलग जो संस्कृति और समाज है उसके लिये जिज्ञासु प्रवृति है मेरी)

  4. आपने पिछली पोस्ट में अपने समुदाय को 2000 साल से भी पुराना बताया था, इस तरह ये विश्व के कुछ चुनिन्दा प्राचीनतम ईसाई समुदायों में शुमार होता होगा.केथलिक्स से भी पुराना.तो क्या हम सीरियन क्रिश्चियन के बारे में पढ़ रहें हैं?सच में जानने की जिज्ञासा है.
    साभार.

  5. मनुष्य के भीतर प्रकृति ने काम, क्रोध, मद और लोभ नामक चार दुष्प्रवृत्तियाँ डाल रखी हैं। इनकी न्यूनाधिक मात्रा सबमें होती है। कदाचित्‌ इस सांसारिक जीवन को चलाने में इनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। प्रकृति ने ही इनपर नियन्त्रण के लिए बुद्धि और विवेक का निर्माण किया है जो हमारे आचार और व्यवहार को दिशा देते हैं। धर्म हमें उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों को बताता है जो हमें इन बुराइयों के दुष्प्रभाव से दूर रखे और सद्‌कर्म के लिए प्रेरित रखे। इन्द्रियों को स्वतन्त्र छोड़ देने पर उनका विपथगामी होना अवश्यम्भावी हो जाता है। इसलिए वर्जनाएं जरूरी हो जाती हैं।

    अरे, मैं तो उपदेशात्मक टिप्पणी करने लगा…। आदरणीय शास्त्री जी का मुकम्मल प्रभाव पड़ गया लगता है। धन्यवाद।

  6. कोई भी सिस्टम 100% सही हो पाना बड़ा मुश्किल होता है, इसलिए कुछ न कुछ तो कमिया रहेंगी ही | अब गुबरेले कीट को कितने ही सुन्दर बगीचे में छोड़ दो वो तो गन्दगी निकाल कर ले ही आएगा, तो उसके लिए एक पुरे सुन्दर बाग़ में अना जाना बंद करना या नफरत करना तो ठीक नहीं | मेरी दृष्टि में Utopia जैसी कोई चीज़ कभी नहीं होगी | असल जिंदगी में आदर्श तंत्र जैसी कोई चीज़ नहीं होती |

    बस कमियों की तरफ ध्यान रहे तो देर-सवेर सुधार आ ही जायेगा | किसी व्यक्ति के अधिकारों और सुखों का आकार बढ़ने पर उसके कर्तव्यों का आकार भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है | परिवर्तन जिंदगी में जरूरी है, रुके पानी में सडांध हो जाती है |

    ना तो सदा चीनी खा सकते हो ना मिर्ची | दोनों की ही आदमी को जरूरत है | जिंदगी का स्वाद यही तो है | कोई हमेशा सुखी क्यों रहना चाहता है, भाई शाब जल्दी बोर हो जाओगे | बीच-बीच में आदमी की जिंदगी में Challenge आना जरूरी है तभी मज़ा आता है जीने में | इसलिए कमियां रहना प्राकृतिक है और स्वाभाविक है |

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