मेरे कल के आलेख भारतीय उच्च शिक्षा में मैं ने याद दिलाया था कि आज दुनियां के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारतीय विश्वविद्यालयों का नामोनिशान नहीं है. इसका कारण चालू होता है विद्यालय से.
आज पढेलिखे एवं थोडे बहुत पैसे वाले लोगों के अधिकतर बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढते हैं. अधिकतर अंग्रेजी माध्यम विद्यालय “शाला” न होकर “कारखाने” हैं जहां तडकभडक चमकदमक का काम अधिक होता है. बच्चे की मूलभूत सोच को विकसित करने के बदले उसे नंबरलाऊ मशीन बनाया जाता है.
इस प्रक्रिया की नीव डाली थी 1950 और 60 आदि में कान्वेटी शिक्षा व्यवस्था ने जहां बच्चों की गिटरपिटर अंग्रेजी के कारण धनी लोग एवं उनके बच्चे उस ओर मोहित होने लगे थे. इनकी देखादेखी कुकरमुत्ते के समान उगे गैरकान्वेटी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों ने भी उसी शैली से जनता को दुहना शुरू किया तो आज देश अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की भरमार हो गई है सबकी शैली कमोबेश एक ही है — आओ सब मिलकर लूटें. शिक्षा के द्वार देशसेवा तो एक दिवास्वप्न मात्र है.
यहां गलती “अंग्रेजी” की नहीं है बल्कि उस शिक्षाव्यवस्था की है जिसका एकमात्र लक्ष्य पैसा उगाही है. फलस्वरूप इन में से बहुत से विद्यालयों में ऐसे अध्यापकों की भरमार है जिनकी एकमात्र योग्यता गिटरपिटर अंग्रेजी बोलना है. शैक्षिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों के बहुत से अध्यापक शिक्षक बनने के कतई योग्य नहीं हैं. आधी अधूरी तनख्वाह पर काम करने वाले ये शैक्षिक-मजदूर विद्यार्थी के तार्किक चिंतन को आगे बढाने के बदले अपने पापी पेट के लिये तमाम तरह के जुगाड करने में लगे रहते हैं.
उदाहरण के लिये ग्वालियर शहर के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में जब औनेपौने पैसे पर पढाने के लिये भौतिकी का अध्यापक न मिला तो पीटी टीचर को भौतिकी का अध्यापक बना दिया गया था. लगभग दो दशाब्दी फिजिकल-एजुकेशन का अध्यापक फिजिक्स पढाता रहा. लूट और गुंडागर्दी अलग करता रहा. यही हाल कमोबेश अधिकतर अंग्रेजी माध्यम कान्वेटी स्कूलों का रहा है.
अब सरकार कुछ कडी हो गई है और इस कारण अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में कुछ अच्छे अध्यापक नियुक्त होने लगे हैं, लेकिन अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में सन 1950 से लेकर लगभग 2000 तक फिजिकल-एजुकेशन अध्यापक, स्पोर्ट्स टीचर एवं तबलावादकों द्वारा भौतिकी, रसायन शास्त्र, एवं गणित पढाये गये विद्यार्थीयों की तार्किक बुद्धि के बारे में आप सोच सकते हैं.
कान्वेंटी अंगेजी शिक्षा ने देश काफी कुछ दिया है, लेकिन नुक्सान दस गुना किया है. इसकी नीव जिन्होंने डाली थी उन में से बहुत लोग गुरु/अध्यापक नहीं बल्कि लुटेरे और व्यापारी थे. देश की बौद्धिक संपदा के विनाश की पहल की इन लोगों ने. भारतीय संस्कृति को नकारना, भारतीय चिंतन परंपरा को कुंद करना, और बच्चों को तर्कशील बनाने के बदले अंग्रेजीदां छद्म बुद्धिजीवी बनाने में इन लोगों ने बढ बढ कर योगदान दिया. आगे क्या हुआ इसे देखेंगे कल के आलेख में.
Photograph by the_junes
शास्त्री जी,
नमस्कार।
आपके इस आलेख को जब पढ़ रहा था तो अवकाश प्राप्त शिक्षक मेरे चाचाजी के एक मजाक की याद आयी। विद्यार्थी और विद्यालय को आज के परिवेश में वो निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं।
विद्यार्थी – जो विद्या की “अर्थी” उठाये।
विद्यालय – जहाँ विद्या का “लय” हो जाय।
सादर
श्यामल सुमन
http://www.manoramsuman.blogspot.com
आज तो जिस तरीके से विद्यालय और महाविद्यालय खुल रहे हैं लगता है सारी शिक्षा व्यवस्था ही व्यापारियों के हाथों सोंप दी गई है।
छोटे शहरों के छोटे-छोटे स्कूलों में तो 10वीं 12वीं तक पढी हुई लडकियों को 1200-1500/- में टीचर की नौकरी दी जाती है, जिन्हें बिल्कुल भी अनुभव नही होता है। और इन स्कूलों की फीस 400-700/- तक होती है और एक कक्षा में 50-60 बच्चों को पढाया जाता है।
अभी पिछले दिनों मेरी बच्ची का गृहकार्य तीन दिन तक नही जांचा गया था, कारण पूछने पर कहते हैं कि वक्त की कमी है, कक्षा में बच्चे ज्यादा हैं।
प्रणाम स्वीकार करें
सरकारी स्कूलों में शिक्षा के साथ मजाक ज्यादा है बनिस्पत प्राइवेट स्कूलों के।
सर, जब सभी देश में से अपना हिस्सा लूट रहे हैं तो शिक्षक क्यों पीछे रह जायें. शिक्षा की …….. कर दी गयी है. जितनी सेवायें थीं सेवा करने वाले थे, सब प्रोफेशनल बनते चले गये. सब जगह वही हालत है. आप विश्वास करेंगे कि दूसरी क्लास में पढ़ने वाले बच्चे के स्कूल बैग अब पहिये वाली ट्रालियों में बदल गये हैं. मोटी तोंद वाले लाला अब डिग्री बांट रहे हैं, जो कल तक आटा-दाल की दलाली करते थे तो शिक्षा की यह हालत तो होनी ही थी. जब डिग्री कालेज के शिक्षक छात्रों के साथ जाम टकरायेंगे तो यही तो होगा.
बिउल्कुल सही कहा है. स्कूल चलाना एक अछे आय का साधन बना हुआ है इसी लिए वहां लुटेरे पोषित हो रहे हैं.
बेहद बेबाक पर फिर भी तटस्थ विचार..
शास्त्री जी, मुझे लगता है एक एक बात अंग्रेजी और हिंदी माध्यम दोनों के विद्यालयों में आजकल सामान है.. और वो है बच्चों का ध्यान दीर्घकालिक लक्ष्यों जैसे की तार्किक सोच, सूझबूझ, वैचारिक चिंतन, पाठ की सही समझ, नैतिक विकास, देश भक्ति, भाषा साहित्य और लोक विधाओं की सम्यक समझ आदि से हटाकर अल्पकालिक लक्ष्यों जैसे रोज का रोज १० नोटबुक भर के होमवर्क करके लाना, हर हफ्ते होने वाली परीक्षाओं में कैसे भी कर के नंबर लाना, ८ घंटे के स्कूल के बाद ४ घंटे कोचिंग में जाना ही जाना, विषयों के उत्तर जैसे के तैसे कॉपियों में अध्याप्ल द्वारा लिखवाना और फिर वैसा के वैसा उत्तर परीक्षा में उम्मीद करना आदि की और लगा दिया जाता है.
बच्चे इतना ज्यादा व्यस्त बना दिए जाते हैं की उनको रोज मर्रा का काम करना और उससे पार पा जाना ही अपने पूरे शैक्षिक जीवन का लक्ष्य प्रतीत होने लगता है.
बेहद बेबाक पर फिर भी तटस्थ विचार..
शास्त्री जी, मुझे लगता है एक एक बात अंग्रेजी और हिंदी माध्यम दोनों के विद्यालयों में आजकल सामान है.. और वो है बच्चों का ध्यान दीर्घकालिक लक्ष्यों जैसे की तार्किक सोच, सूझबूझ, वैचारिक चिंतन, पाठ की सही समझ, नैतिक विकास, देश भक्ति, भाषा साहित्य और लोक विधाओं की सम्यक समझ आदि से हटाकर अल्पकालिक लक्ष्यों जैसे रोज का रोज १० नोटबुक भर के होमवर्क करके लाना, हर हफ्ते होने वाली परीक्षाओं में कैसे भी कर के नंबर लाना, ८ घंटे के स्कूल के बाद ४ घंटे कोचिंग में जाना ही जाना, विषयों के उत्तर जैसे के तैसे कॉपियों में अध्यापक द्वारा लिखवाना और फिर वैसा के वैसा उत्तर परीक्षा में उम्मीद करना आदि की और लगा दिया जाता है.
बच्चे इतना ज्यादा व्यस्त बना दिए जाते हैं की उनको रोज मर्रा का काम करना और उससे पार पा जाना ही अपने पूरे शैक्षिक जीवन का लक्ष्य प्रतीत होने लगता है.
जहाँ एक ओर सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता जा रहा है वही ऐसे अग्रेजी स्कूलों की लूटने की प्रवृति में बढोतरी होती जा रही है।आप ने सही लिखा है।
शिक्षा चुटकुला हो गई है.
Kya hum yahan blogs he bhartay rahengay ya kuch thos kadam bhi uthayengay iss shiksha ko badalnay kay liye?????