जब तबलची भौतिकी पढाये!!

मेरे कल के आलेख विद्यालय दिमांग को कुंद कर रहे हैं!! पर अंतर सोहिल ने टिपियाया:

छोटे शहरों के छोटे-छोटे स्कूलों में तो 10वीं 12वीं तक पढी हुई लडकियों को 1200-1500/- में टीचर की नौकरी दी जाती है, जिन्हें बिल्कुल भी अनुभव नही होता है। और इन स्कूलों की फीस 400-700/- तक होती है और एक कक्षा में 50-60 बच्चों को पढाया जाता है। अभी पिछले दिनों मेरी बच्ची का गृहकार्य तीन दिन तक नही जांचा गया था, कारण पूछने पर कहते हैं कि वक्त की कमी है, कक्षा में बच्चे ज्यादा हैं।

ताज्जुब की बात यह है कि हर पेशे के लिये न्यूनतम शिक्षा के मानदंड निश्चित है लेकिन कोई भिश्ती, पीर, बावर्ची आराम से विद्यामंदिर खोल कर बैठ सकता है. हिन्दुस्तान के कई प्रदेशों में अध्यापक तो भिश्ती, पीर, बावर्ची पद के भी योग्य नहीं हैं. ऐसे में क्या होगा जरा सोचें.

एक योग्य अध्यापक की कोशिश यह रहती है कि विद्यार्थी के मन में विषय के प्रति जिज्ञासा जगाये. उसे बारीक से बारीक बात सोचनेसमझने की कोशिश की जाये. लेकिन जब तबलची को भौतिकी पढाने के लिये नियुक्त कर दिया जाता है तो उसकी कोशिश यह रहती है कि विद्यार्थी कुछ भी न पूछे. कारण स्पष्ट है — भौतिकी में अयोग्य अध्यापक अपनी तनख्वाह तो पाना चाहता है, लेकिन अपने अज्ञान के कारण कक्षा के सामने अनावृत होने से डरता है.

ऐसे अध्यापक जिज्ञासा जगाने के बदले बच्चों की बेइज्जती  करते रहते हैं.  कोई भी विद्यार्थी कोई प्रश्न पूछता है तो सीधे जवाब मिलता है, “इतना भी मालूम नहीं है क्या बेवकूफ. फिर क्या पढता रहता है.”. मेरा परिचित एक अध्यापक इन दो वाक्यों के साथ एक प्रश्न और जोड देता था, “क्या करते हैं तुम्हारे पितामाह”. जवाब मिले कि डाक्टर है तो अगला प्रस्ताव होता था, “पढेलिखे बाप का बच्चा ऐसा भोंदू निकल गया”. जवाब मिले कि मजदूर हैं तो उसका प्रस्ताव होता था कि “अरे तो फिर स्कूल क्यों चला आया. तू कैसे भौतिकी समझेगा”. बच्चा सबके सामने ऐसा पानी पानी हो जाता था कि आईंदा कक्षा में मूँह नहीं खोलता था. एक का मूँह बंद होते ही डर के मारे सब का मूँह बंद हो जाता था. जिज्ञासा उडन छू हो जाथी थीं.

आज निजी विद्यालयों में इस तरह के कई अध्यापक मिल जायेंगे जो सिर्फ भाडे के “टट्टू” हैं और जो अपने अज्ञान के कारण मेरेआपके बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहे हैं. पुनीत का आभार जिनकी ट्प्पणी है:

बेहद बेबाक पर फिर भी तटस्थ विचार.. शास्त्री जी, मुझे लगता है एक एक बात अंग्रेजी और हिंदी माध्यम दोनों के विद्यालयों में आजकल सामान है.. और वो है बच्चों का ध्यान दीर्घकालिक लक्ष्यों जैसे की तार्किक सोच, सूझबूझ, वैचारिक चिंतन, पाठ की सही समझ, नैतिक विकास, देश भक्ति, भाषा साहित्य और लोक विधाओं की सम्यक समझ आदि से हटाकर अल्पकालिक लक्ष्यों जैसे रोज का रोज १० नोटबुक भर के होमवर्क करके लाना, हर हफ्ते होने वाली परीक्षाओं में कैसे भी कर के नंबर लाना, ८ घंटे के स्कूल के बाद ४ घंटे कोचिंग में जाना ही जाना, विषयों के उत्तर जैसे के तैसे कॉपियों में अध्यापक द्वारा लिखवाना और फिर वैसा के वैसा उत्तर परीक्षा में उम्मीद करना आदि की और लगा दिया जाता है. बच्चे इतना ज्यादा व्यस्त बना दिए जाते हैं की उनको रोज मर्रा का काम करना और उससे पार पा जाना ही अपने पूरे शैक्षिक जीवन का लक्ष्य प्रतीत होने लगता है. (पुनीत ओमर)

इस लेखन परंपरा की अन्य कडियां:

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Author: Super_Admin

7 thoughts on “जब तबलची भौतिकी पढाये!!

  1. शास्त्री जी, हालत तो यही है। मूल्यांकन केवल परीक्षा में पाए अंक रह गए हैं। व्यवहार और सोच दोनों निशाने से दूर दूर तक भी नहीं हैं। हमें हमारे पढ़ाई के दिन याद आते हैं। जब हम पढ़ाई के साथ न जाने क्या क्या करते थे।

  2. शिक्षा ! कैसी शिक्षा ?…धंधा है धंधा…पान की गुमटी न चली तो स्कूल खोल लिया. कोई पूछने वाला है क्या ?

  3. मेरा सारा छात्र जीवन ऐसे ही ताबल्चियों से पढ़ते बीता है, एक दो अध्यापक ही मिले जो सच में अपने विषय को समझते थे. ऊपर से मैं अंतर्मुखी होने के साथ लर्निंग डिसआर्डर से ग्रस्त हूँ (एस्पर्गर सिंड्रोम और डिस्लेक्सिक). और किसी भी शिक्षक ने कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, बल्कि कॉलेज तक में किसी को लर्निंग डिसआर्डर के बारे में कुछ पता नहीं था. एब्सेंट माइंडेड, कमज़ोर, कामचोर और आलसी कहकर मजाक अलग उड़ाया जाता था.

    आप तो एक मनोवैज्ञानिक काउंसलर भी हैं, कभी अंतर्मुखी एवं लर्निग डिसआर्डर से पीड़ित बच्चों/किशोरों की शैक्षणिक और सामाजिक समस्याओं पर भी कुछ लिखें.

  4. इसीलिये तो बाबा नागार्जुन ने लिखा था…

    सड़े हुए शहतीरों पर की बाराखड़ी बिधाता बाँचे
    टूटी भीत है, छत चूती है, आले पे बिसतुइया नाचे
    बिफरा के रोते बच्चों पे मिनट मिनट में पाँच तमाचे
    दुखहरन मास्टर गढ़ते रहते जाने कैसे कैसे साँचे….

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