1971, बीएससी प्रथम वर्ष, गणित का विद्यार्थी. बडे उत्साह के साथ मैं महाविद्यालय में पहुंचा था. मेरा लक्ष्य एकदम स्पष्ट था — मैं एक वैज्ञानिक बनना चाहता था.
गणित की पहली कक्षा में ही हमारे योग्य अध्यापक ने 40 विद्यार्थीयों की कक्षा को समझाया “बेटा, केलकुलस न तो हम समझे, न हमारे डोकर. अत: यह तुम्हारे बस की बात नहीं है” . यह सुन निराश बैठे विद्यार्थीयों को अगले हफ्ते एक सीनियर ने पास होने का “राज” बताया.
हमारे विश्वविद्यालय के हर विषय के “अनसाल्वड” पेपर बाजार में मिल जाते थे. दस साल के पेपर देख लो तो समझ में आ जाता था कि कौन से प्रश्न किस आवृत्ति के साथ पूछे जाते हैं. बस उस हिसाब से इस साल के संभावित प्रश्नों को याद करना पर्याप्त था, पास होने की गारंटी थी. इतना ही नहीं, पिछले साल जो प्रश्न पूछे गये थे, वे इस साल नहीं पूछे जायेंगे इस बात की गारंटी थी. इनको हटा कर रख देना था.
इन दोनों कामों को करने पर पढाई का भार काफी कम हो जाता था, कम से कम सेकेंड क्लास में पास होने की गारंटी हो जाती थी, अध्यापक और विद्यार्थी दोनों ऐश करते थे. लेकिन एक नई समस्या पैदा हो जाती थी जिसे विद्यार्थी समझता नहीं था — कि विषय का क्रमबद्ध अध्ययन न करने के कारण उसकी बचीखुची आधीअधूरी विद्यालयदत्त नीव अब पूरी तरह खोखली हो गई है. स्नातकोत्तर स्तर पर पहुंचने पर उसे कक्षा का पढाया कुछ समझ में नहीं आता था क्योंकि नींव तो पूरी तरह मारी जा चुकी है.
लेकिन विश्वविद्यालय के पेपर बनाने वाले “प्रभुओं” की दया के कारण यहां भी दस साल के अनसाल्वड पेपर और रट्टे की मदद से हाई सेकेंड क्लास की गारंटी थी. हां, सारा का सारा सिलेबस रट्टा लगाने की कुव्वत जिसमें हो उसकी “पोजिशन” की गारंटी थी. मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे साथ के कम से कम तीन बेच (जूनियर, मेरा बेच, और सीनियर) में जो 15 पोजिशन-होल्डर थे उन में से सिर्फ 5 को विषय का कुछ अतापता था, बाकी सब तिकडम से पोजिशन ले आये थे. जब हर ओर ऐसा हो रहा है तो देश का “कल्याण” क्यों नहीं होगा!!
मुझे लगता है कि आजकल लगभग सभी तथाकथित इंजीनियरिंग कालेजों में इससे भी बदतर स्थिति है। वे ही पढ़ा रहे हैं जिन्हें पिछले साल उस विषय में कुछ भी समझ में नहीं आ पाया था।
हमारे साथ भी यही हुआ। रट्टा लगाने वाले अव्वल और विषय की गूढ़ जानकारी रखने वाले पिछड़ गए।
कमोबेश स्थिति यही है. शार्टकट का भी शार्टकट —
सही कह रहे हैं शास्त्री जी. देश का कल्याण सुनिश्चित है.
और अब यह रोग ऊपर तक यानी पी एचडी तक पहुँच चुका है, वह भी नकल करके चेपी जा रही हैं, मध्यप्रदेश के दो कुलपतियों पर चोरी की पीएचडी करने का आरोप लगा हुआ है, जाँच चल रही है…। जब कुलपति ऐसा है तो छात्र कैसे होंगे, कल्पना की जा सकती है… 🙂
अरे इत्ती तरक्की…शास्त्री जी आपने कितनी देर से बताया..और सुरेश जी ने तो सोने पे सुहागा कर दिया..अभीये खबर करते हैं कुछ भावी डाक्टर्स को ….
ये तो तब की बात है ..अब का हाल सुनिये –
आज एक भारतीय प्रोग्रामर के द्वारा लिखा गया एक तकनीकी लेख इन्टरनेट पर पढ रहा था.. मजेदार बात ये थी कि वो लेख जिस किताब से तकरीबन शब्दश: आईडिया चुरा कर लिखा गया था वही किताब पढते हुए विषय के बारे मे और जानकारी पाने हेतू ही गूगल सर्च की थी मैने!
सही बात कह रहे हैं
यह परिस्थिति है तो सच पर बड़ी अफसोसजनक. इससे हमारे देश में पढे लिखे अनपढ़ की संख्या बढ़ती जा रही है.
अयोग्य अध्यापकों और संसाधन की कमी के चलते विद्यार्थियों को कक्षा में ही ऐसा माहौल मिलता है की विषय की समझ रखने वाले और जिग्यावश प्रश्न पूछने वाले बच्चों को उतना सम्मान नहीं मिलता जितना की मासिक अथवा वार्षिक परीक्षाओं में अधिकतम नंबर लाने वाले को. ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है की आमतौर पर ये दो अलग अलग विद्यार्थी होते हैं.
वे बच्चे जो औसत या उससे कुछ अच्छी बुद्धि के हैं, उनके दिमाग में भी करते करते ये बात भर जाती है की “अंततोगत्वा परिणाम” ही सब कुछ है और “जीवन” में सबसे उपयोगी है क्योंकि वह चीज प्रामाणिक है और अंक तालिका में दर्ज होने के बाद उसे जीवन भर झुठलाया नहीं जा सकता. जो चीज (ज्ञान, विषय की समझ आदि) मापी नहीं जा सकती, वह चीज किसी काम की भी नहीं हो सकती. शायद यही कारण है की बच्चे नाना प्रकार के उपकरणों जैसे की अन्सौल्व्ड पेपर, कुंजी, चौपतिया आदि की और प्रवृत्त होते हैं.
इसका एक कारण यह भी है की आज की पीढी के जागरूक बच्चे जानते हैं की बोर्ड परीक्षाओं की कापियां भाड़े पर ५ रुपये प्रति कापी के रेट से जचवायी जाती हैं भले ही जांचने वाला किसी भी विषय का अध्यापक हो. लगभग हर परीक्षा के बाद गाव कसबे के नाले में हजारों बिना जची कॉपियों के बण्डल मिलना आम बात है पर कभी किसी की मार्कशीट खाली नहीं होती. कोई कारण नहीं बनता की विद्यार्थी फिर भी अपना ज्ञान बढाने के लिए पढें न की अपना “जीवन सफल” बनाने के लिए..