इस साल (शांति को छोड) 12 नाबेल प्राईज दिये गये हैं जिन में 11 अमरीका के निवासियों को मिला है. क्या कारण है कि हिन्दुस्तानी लोग सहस्त्र-करोड रुपया वैज्ञानिक संस्थाओं पर खर्च करने के बावावजूद एक भी इनाम नहीं ले पाते.
जैसा मैं ने पिछले चार आलेखों
- रट्टा मारो, पोजिशन लाओ!!
- जब तबलची भौतिकी पढाये!!
- विद्यालय दिमांग को कुंद कर रहे हैं!!
- भारतीय उच्च शिक्षा
में याद दिलाया था, आज हमारी शिक्षाव्यवस्था चिंतकों को तय्यार करने के बदले परीक्षा में नंबर खीचने वाले मशीनें बना रही है. अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों ने इसे एक उन्नत कला बना दी है कि किस तरह से बुद्धि न होते हुए भी उनके बच्चे एक से एक परीक्षा परिणाम ला सके. हमारी परीक्षा व्यवस्था चूँकि बुद्धि या ज्ञान को परखने के बदले स्मरण शक्ति को परखती है अत: इस व्यवस्था की खामियों का शोषण करके अच्छे नम्बर लाये जा सकते हैं. विषय को गहराई से जानना जरूरी नहीं होता है.
क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि विज्ञान, इंजिनियरिंग, औषधशास्त्र आदि में पोजिशन लाने वाले विद्यार्थीयों में से तीन चौथाई लोग अपने पढाई के क्षेत्र से लुप्त हो जाते हैं, जबकि पेशे में सफलता पाने वालों में से तीन चौथाई लोग पोजिशनहोल्डर नहीं होते हैं.
वैज्ञानिक क्षेत्रों में मौलिक चिंतन के लिये नोबेल प्राईज दिया जाता है. लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था तो मौलिक चिंतन करने वाले को प्रोत्साहित नहीं करती है, अत: भारत में काम करने वाले भारतीय वैज्ञानिक नाबेल प्राईज कैसे पा सकेंगे. यदि हम चाहते हैं कि दुनियां के वैज्ञानिकों के साथ हमारे वैज्ञानिक टक्कर ले सकें तो बालक को उसके जन्म के समय से मौलिक चिंतन के लिये प्रोत्साहित करना होगा. यह अभी हो नहीं पा रहा है.
हर मौलिक चीज़ भारत में गटर में फेंकने लायक समझी जाती है. विदेशियों की नक़ल उतार कर उनकी बुराइयाँ ज़रूर अपना लेते हैं पर उनकी अच्छी बातें पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं.
मौलिक चिंतन बहुतो कि कुर्सियाँ जो खसका देता है।
कब और कैसे सुधरेगी हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था ?
कोई नहीं चाहता सुधरना , हम भी और आप भी । जो जहाँ है वहीं खुश है ।