पिछले कई दिनों से मैं भारतीय शिक्षा व्यवस्था की शोचनीय हालात के बारे में बता रहा था. शिक्षा की इस दयनीय हालत के लिये कई प्रकार के लोग जिम्मेदार हैं और इन में से एक है शैक्षणिक संस्थानों से संबंधित वे बाबू लोग और कर्मचारी जो बात बात पर अडंगा डालते हैं. उनको शिक्षादीक्षा से कुछ लेनादेना नहीं होता है, बस अपनी तनख्वाह सूतते रहते हैं और देश की बौद्धिक संपदा को कंपोस्ट में बदलते रहते हैं. मेरा एक अनुभव जरा सुन लीजिये.
मैं शुरू से ही विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान के प्रति समर्पित एक विद्यार्थी था. सन 1981 से लेकर 1990 तक कठोर अनुसंधान करने के बाद 1990 में अपने प्रोफेसर एव अन्य अध्यापकों की पूर्ण सहमति से थीसिस की तीन प्रतियां विभागीय कार्यालय में जमा कर दीं. एक हफ्ते के बाद कांउसलिंग में उन्नत अध्ययन के लिये वजीफे पर अमरीका जाना तय हो चुका था. भौतिकी विभाग ने उसी दिन थीसिस की तीनों प्रतियां विश्वविद्यालय पहुंचा दीं.
दो दिन के बाद विश्वविद्यालय के बाबू का नोट आ गया कि अनुसंधानकर्ता ने अनुसंधान का विषय ही बदल दिया है, अत: थीसिस वापस ले जायें. लाख सर पटकने के बाद भी न तो मेरे प्रोफेसर को न साथी अध्यापकों को समझ में आया कि बाबू ऐसे बेतुकी बात क्यों कह रहा है. अंत में बाबू ने बताया कि थीसिस के शीर्षक में छपा है “ए स्टडी ऑफ न्यूक्लियर फिनोमिना” जबकि अनुसंधान होना था “स्टडी ऑफ न्यूक्लियर फिनोमिना” पर. प्रोफेसर से लेकर हरेक ने समझाया कि दोनों में कोई अंतर नहीं है, लेकिन बाबू तो अपने विभाग का प्रभु था. उसकी इच्छा के बिना तो एक पन्ना आगे नहीं बढ सकता था, 300 पन्ने के थीसिस की क्या मजाल थी कि वह आगे बढे. मेरा कलेजा मूँह को आ गया कि दस साल की मेहनत को एक आदमी कूडा करने पर उतारू है, जब कि उन 300 पन्नों में से एक पन्ना समझने की कुव्वत उस में नहीं है.
तब तक मेरे एक साथी प्रोफेसर को हल समझ में आ गया. बाकायदा थीसिस की तीनों प्रतियां भौतिकी विभाग में लाकर थीसिस से “ए” अक्षर को एक विदेशी उस्तरे की मदद से बडी सफाई से छील कर हटा दिया गया. “संशोधित” थीसिस भौतिकी कार्यालय की मदद से वापसे भेजा गया. बाबू खुश हुआ कि वह जीता और भौतिकी के प्रोफेसरों की और भौतिकी में पीएचडी करने वाले एक 36 साल के “लौण्डे” की नाक में नकेल डाल सका.
अमरीका से उच्च अध्ययन के बाद वापस आया, मैखिक परीक्षा हुई. (हमारे विश्वविद्यालय में मौखिक परीक्षा लगभग 50 से 100 लोगों की उपस्थिति में आडिटोरियम में होती है). अध्यापकों और बाह्य अध्यापक की प्रंशंसा के साथ पीएचडी की प्राप्ति हुई. लेकिन यदि मेरे साथी अध्यापक को तिकडम न सूझा होता और महज एक “ए” के अक्षर पर मुझे रोक दिया गया होता तो मेरी दस साल की मेहनत का क्या होता यह सोच कर आज भी सिहर जाता हूँ.
आज उच्च शिक्षा से संबंधिक अधिकांश संस्थानों में इन बातों का ऐसे लोग नियंत्रण करते हैं जिनका शिक्षा, अनुसंधान, बौद्धिक संपदा से न के बराबर लेनदेन है. लंगूर के हाथ में हूर और बंदर के हाथ में उस्तरा है. ऐसे में शिक्षा व्यवस्था का कबाडा नहीं तो क्या होगा.
शिक्षा की हालत बहुत बुरी है सर. क्या विद्यार्थी, क्या शिक्षक – आजकल सभी एक ही बौद्धिक धरातल पर हैं. बाबुओं की दशा तो और बुरी है. काउंटर पर बैठा आदमी राजा है. वह चाहे तो आपकी फाइल एक इंच इसलिए नहीं बढे क्योंकि आप फाइल के ऊपर कुछ लिखना या फाइल के अन्दर कुछ रखना भूल गए.
लानत है ऐसे मूर्खों पर ..शर्मनाक.
आप द्वारा चयनित विषय की इंडेक्सिंग “S” में करी हुई थी. अब नाहक “A” में भी करनी पड़ती. अतिरिक्त कार्य के बोझ के लिए पारिश्रमिक की व्यवस्था भी की तो बेचारा क्या करता.
भूल सुधार: “भी” के बाद “नहीं” टंकित नहीं हुआ.
सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं , प्रशासन में हर क्षेत्र की यही दशा है .. जो वकील है , वह मानव संसाधन विकास मंत्री बनता है .. जिसने कभी कोयला नहीं देखा , वह कोयला मंत्री है .. और तो और गया नगर निगम में चिकित्सा पदाधिकारी एक इंजीनियर थे .. हमारा भारत इसलिए महान है !!
वह ऐसा न होता तो लोग उसे बाबू कहते?
आपने तो एक बहुत साधारण सी बात बताई है, छोटे छोटे मुद्दों पर प्रोफेसरों द्वारा विद्यार्थियों का उपयोग, उनके द्वारा राजनीती, धर्म, जातिवाद, राजनितिक सिद्धांत, प्रांतवाद, इन सबका का अध्यापन किया जाता है | जो उसके खेमे का हो, ठीक, जो नहीं, भले ही कितना ही मेहनती क्यों नहीं हो, उसका बेडा पार नहीं लग सकता | मैं भी इन्ही कई हालातों से गुजरा हूँ, और आपकी बातों से कई गुना ज्यादा सहमत हूँ | पहले मुझे इस प्रोफेसरों की इज्ज़त थी, अब मुझे इस पेशे की इज्ज़त है|
अब सर! आप कहे तो मान लेते है शिक्षा की हालत बहुत बुरी है…..शिक्षा तो ठीक ठाक है.. पर उसके प्रयोक्ताओ मे बौद्धिक संपदा, नैतिकता एवम मर्यादाओ की कमी ने बेचारी शिक्षा माता को ही परेशान कर डाला है.
आपकी यह बात मै मानता हू की— ॒लंगूर के हाथ में हूर और बंदर के हाथ में उस्तरा है. ऐसे में शिक्षा व्यवस्था का कबाडा नहीं तो क्या होगा. ॒
सुख, समृद्धि और शान्ति का आगमन हो
जीवन प्रकाश से आलोकित हो !
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
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ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-
रामपुरियाजी
हमारे सहवर्ती हिन्दी ब्लोग पर
मुम्बई-टाईगर
ताऊ की भुमिका का बेखुबी से निर्वाह कर रहे श्री पी.सी.रामपुरिया जी (मुदगल)
जो किसी परिचय के मोहताज नही हैं,
ने हमको एक छोटी सी बातचीत का समय दिया।
दिपावली के शुभ अवसर पर आपको भी ताऊ से रुबरू करवाते हैं।
पढना ना भूले। आज सुबह 4 बजे.
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
हेपी दिवाली मना रहा हू ताऊ के संग
ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-
रामपुरियाजी
द फोटू गैलेरी
महाप्रेम
माई ब्लोग
मै तो चला टाइगर भैया के वहा, ताऊजी के संग मनाने दिवाली- संपत
ऐसे बाबू के बलिहारी.
बात सिर्फ विश्वविद्यालयों की ही नहीं है. पूरे तंत्र को ही बाबू ही चला रहे हैं. इसीलिये तो देश की यह हालत है.
बाबूगीरी के स्तर में सुधार हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये.
बाबू इज़ डेंज़रस टू वेल्थ्।शास्त्री जी दीवाली की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
कहने का मतलब बाबूगिरी जैसे भी चलनी चाहिए.
अब क्या बताएँ इन बाबुओँ के कारण मेरी उत्तराँचल में नौकरी लगते-लगते रह गई थी। हम सभी कभी न कभी इन बाबुओँ की शिकार बनते ही हैं।