आज के अनुभव पर लिखने की सोच रहा था कि मेरे एक मित्र का चलभाष आया कि सारथी पर अगला आलेख छापने का समय हो गया है। इन्होंने ही दो हफ्ते पहले मुझे नींद से जगाया था, और अब ठान ली है कि सुस्त घोडे को प्यारमनुहार द्वारा उठा चला देना चाहिये। आभार मेरे दोस्त!
आज दोपहर को विश्वविद्यालय डाकघर से वापस आ रहा था कि विद्यार्थीयों का एक झुंड रास्ता रोक कर खडा हो गया। हल्के से हार्न दिया तो उन में से दो लोगों ने मुझे हिन्दी में मांबहन की गाली दी। मैं ने बडी शाति से पूछा कि भैया अपनी मां बहन के साथ जो करने जा रहे हो उसे यहां सबके सामने क्यों एलान कर रहे हो। प्रश्न सुन कर वे दोनों भौंचक्के रह गये। उसके बाद यह सोच कर अचकचा गये कि केरल में किसी ने उन्हें हिन्दी में टोका है।
उनके साथी लोग उनकी हालात देख कर हंसने लगे। एकाध ने पूछा कि आप कौन हैं सर। जैसे ही मैं ने “शास्त्री” नाम बताया तो एकाध एकदम मुझे पहचान गये। (सारथी के कुछ भक्त कोचिन विश्वविद्यालय में मौजूद हैं और इस कारण इस नाम को कुछ लोग पहचानते हैं लेकिन मुलाकात कभी नहीं हुई थी)। इस बीच मैं गाडी रोक कर उतर गया तो दोचार ने आकर पैर छूए और माफी मांगी। गाली देने वाले तो पानी पानी हो कर खडे थे ही।
यह लगभग हम सभी हिन्दुस्तानियों की आदत है कि अपने इलाको छोड कहीं और जाता है और दोचार अपने मिल जाते हैं तो संतुलन बिगड जाता है। उदाहरण के लिये आस्ट्रेलिया की इन दिनों बडी चर्चा चल रही है कि भारतीयों के साथ हिंसा हो रही है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वे स्थानीय लोगों के साथ कितनी बदतमीजी के साथ पेश आते हैं? मेरी जानपहचान के कम से कम एक दर्जन विद्यार्थी पिछले तीन सालों में वहां गये हैं। उन सब का कहना है कि वे वहां उतने ही सुरक्षित हैं जितने यहां थे। लेकिन हरेक की शिकायत है कि भारतीय विद्यार्थी नौकरी मिलते ही उज्जड्ड एव बदतमीजी से व्यवहार करने लगते हैं।
चाहे कोचिन हो या आस्ट्रेलिया, अपने सस्कारों को भूलने की कुछ जल्दी हो रही है हमारे जवानों को!
आप सही कहते हैं।
अब आप को चलदूरभाष चिट्ठाकार कहना पड़ेगा। बिना घंटी किए आप इधर सारथी पर नजर ही नहीं आते।
आदरणीय शास्त्री जी ..बहुत बढिया प्रसंग सुनाया आपने …आज यकीनन ऐसे ही हालात हैं ..और समझ ही नहीं आ रहा कि दोष दिया किसे जाए इसके लिए ..और सच कह रहे हैं द्विवेदी जी …आप बिना बुलाए नहीं आते हैं अब …हा हा हा ..उम्मीद है मार्गदर्शन मिलता रहेगा
अजय कुमार झा
बेहद अफ़सोस जनक है यह वाकया !!
nice
आदरणीय़, बिल्कुल सही लिखा है. लेकिन इसकी जड़ में है नैतिकता का पतन. पहले आदमी धर्म-अधर्म पाप-पुण्य के चलते थोड़ा-बहुत ठीक और गलत का ध्यान रखता था लेकिन अब तो स्थिति बिल्कुल उलट है. भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में आदमी सबकुछ भूल चुका है.
बड़ी शर्मसार करने वाली स्थिति है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
पहले तो मेरी साँस ही अटक गई कि कहीं आपके चलभाष मित्र द्वारा गाली तो नहीं दी गई है! फिर मामला पता चला।
प्रसंग तो खेदजनक है, किन्तु यह अब आम होता जा रहा है।
उम्मीद ही कर सकते हैं कि चलदूरभाष चिट्ठाकार कहलाना आप पसंद नहीं करेंगे 🙂
अपने सस्कारों को भूलने की कुछ जल्दी हो रही है हमारे जवानों को!
दिख रहा है यह !
आगे भी आपके अनोखे अनुभव मिलते रहेंगे इसी उम्मीद मे
Bahut hi achha jabab diya hai aapne.
९०% गालिया देने वाले के उपर ही लागू होती है. एक बात और है अगला गाली दे और हम नही ले तो अगले को उसे घर तक साथ ले जाना पडता है.
शास्त्री जी सादर नमस्कार,
आप की वेबसाइट देखी, कुछ लेखो को पढ़ा, केरल के शास्त्री जी के हिन्दी ज्ञान एंव शब्दावली का अनुभव किया। कुल मिला कर कहा जाए तो मुझे विशवास है कि आप की हिन्दी सेवा वाकया ही धीरे धीरे अपना रंग दिखाएगी। क्योंकी मैं हिन्दी विशारद नहीं हूँ और न ही हिन्दी शब्दावली का ज्यादा ज्ञान रखता हूँ इस लिए आपके हिन्दी के टेक्निकल शब्दों को पढ़ कर लगता है कि जैसे आपने ही उनकी रचना की हो। खैर जो भी हो पढ़ कर बहुत खुशी अनुभव हुई, ओर तो ओर आपके एक टेक्निकल शब्द “जालसाज” को सुन कर महसूस हुआ कि अब इस युग में लोग बाग ‘जलसाजों’ को पैनी नज़र से नहीं देखेंगे, i hope you got it. आपका शुब्चिंत्क ….. ‘गुरसिख51’