कोचिन में हर साल औसतन 165 दिन पानी बरसता है। इन में से कम से कम सौ दिन ऐसी मूसलाधार वर्षा होती है जैसा मैं ने उत्तर भारत में कहीं भी नहीं देखा है। यदि सही तय्यारी न की जाये तो ये 165 दिन सारे केरल को पानी में डुबा सकते हैं। इस कारण मानसून के दो महीने पहले से नालेनालियों की सफाई, मट्टी हटाना आदि चालू हो जाता है।
आज हमारे कालोनी में नगरपालिका वालों ने इस काम के लिये मजदूर लगाये। केरल में एक दिन की मजदूरी (सारे काटपीट के बाद) 300 रुपये के कारीब होती है जो यहां की जीविका के हिसाब से एक अच्छी आय है। इतना ही नहीं इन लोगों को हर साल काम मिलने की गारंटी है क्योंकि पानी हर साल बरसता है और नालेनालियों की सफाई कभी नहीं रुक सकती। लेकिन इसके बावजूद पिछले 15 साल से मैं इनके बीच एक खास प्रकार की बेईमानी देखता आया हूं।
नालों से निकाली गई मिट्टी को कहीं दूर ले जाकर डालने के बदले वे लोग इसे बहुत ही “क्रमबद्ध” तरीके से नाले के किनारे ही जमा करते जाते हैं। फलस्वरूप पहली बरसात के साथ साथ यह मिट्टी नाले में वापस चली जाती है। अगले साल के लिए नीव पड जाती है। ठेकेदार को भी इस बात की फिकर नहीं रहती कि मिट्टी को कहीं ओर डलवा दिया जाए। उसे तो खानापूरी दिखाने में दिलस्पी है। मिट्टी हटा कर डलवाने जायगा तो खर्चा अधिक जो होगा। सरकारी दफ्तर में बैठे लोगों को इन में से किसी से भी बात से कोई मतलब नहीं होता है। साले का पैसा है, जीजा को ऐश के अलावा कोई फिकर नहीं है।
Urge govt. to create pressure on contractors.
साले का पैसा, जीजा को ऐश
यही तो होता आया है!
यदि सभी लोग अपनी जिम्मेदारियों का सही पालन करें .. तो कोई समस रह ही नहीं जाए .. पर लालच से मजबूर लोगों में ऐसी ही बदनीयती देखने को मिलती है !!
सॉरी समस नहीं .. समस्या !!
कुछ भी कह लीजिए -जीजा का पैसा साले को ऐश पर है बेमानी ही.
भारत के गुलाम बनने के पीछे भी ऐसी ही मानसिकता वाले ठेकेदार ही थे.
कुछ दीर्घजीवी उपाय होना चाहिये, जब साल दर साल की समस्या है.
यह हाल सरे देश का है और नेता देकेदार है
क्या हर जगह जगह यही हालत है -उफ़ !
साले का पैसा है, जीजा को ऐश
well said
Ye to aam baat hai
नालों से निकाली गई मिट्टी को कहीं दूर ले जाकर डालने के बदले वे लोग इसे बहुत ही “क्रमबद्ध” तरीके से नाले के किनारे ही जमा करते जाते हैं।
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बिल्कुल यूपोरियन तरीका है केरल में भी! 🙂
सच में क्या पकड़ा है ।