जब देश आजाद हुआ था तब देश का भरणपालन अधिकतर आदर्शवादियों के हाथ में था. इस कारण जो देश २५०० साल से लुटतापिटता आया था उसे बहुत ही सावधानी से देश की विदेशनीति बनाई गई, आर्थिक नीति बनाई गई, हर चीज को उस तरह से नियंत्रण में रखा गया जैसे एक मां बडी समझदारी से पिताजी की सीमित आय से परिवार का खर्चा चलाती है.
ऐसे परिवारों में मां जो कुछ करती है उसे एक दो लोग समझते हैं, लेकिन कुछ बच्चे हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि उनको पडोसी के बच्चों के समान यह नहीं मिला या वह नहीं मिला. उनको इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि घर की आर्थिक स्थिति क्या है. उनको इस बात से भी कुछ लेनादेना नहीं है कि उन्हीं की खातिर मां यह सब सह रही है क्योंकि बच्चे तो सिर्फ खर्चा बढाते हैं उसमें कोई योगदान नहीं देते हैं.
चाहे नेहरू ने राज किया हो या इंदिरा ने, मुझे उनके राजनैतिक झुकाव से कोई मतलब नहीं है. लेकिन इतना जरूर है उन लोगों ने जो आर्थिकसामरिक ढांचा ढाला, और जिसे राजीव गांधी और अटल जी ने आगे बढाया उस कारण आज ६० साल में हम ऐसी स्थिति में पहुंच गये हैं जो मैं ने अपने बचपन में (१९५४ से आगे) देखा था उस से १०० गुना बेहतर है. उस समय एक टेलीफोन कनेक्शन के लिये १० साल इंतजार करना पडता था, वेस्पा स्कूटर के लिये भी १० साल का ही इंतजार था. खानपान की सामग्री का इतना अभाव था कि घरपार्टियों में लोग भोजन पर गिद्ध के समान टूट पडते थे और घर ले जाने के लिये (दूसरों की नजर बचा कर) थैले में जो डाल लेते थे वह अलग होता था. एक प्लास्टिक के लिफाफे के लिये कपडे की दुकान पर अनुनयविनय करते थे. एक हाथघडी या रेडियो मरम्मत के लिये देते थे तो इस बात का खुटका लगा रहता था कि उस में से क्या क्या “खीच” लिया जायगा.
ताज्जुब है कि जो देश २५०० साल तक नोचाखसोटा गया, और जिसकी आजादी के समय जो जनसंख्या थी उसे से अब ढाई गुनी हो जाने के बावजूद, ६० साल में जीवन की लगभग हर तरह की सुविधा उपलब्ध हो गई है. जो कुछ अभी तक नहीं हो पाया है उसे जरा क्षण भर के लिये अलग रख दें. उसके बदले जरा यह सोचें कि महज ६० साल में कितना कुछ हम ने वापस पा लिया है. इस आधार पर अगले आलेख में मैं कुछ कहना चाहूंगा.
बात तो विचारणीय है आपकी…
निगेटिव सोच को अलग भी रख दें, और निरपेक्ष भाव से मन के तराजू पर तौलें तब भी हमने “खोया” ज्यादा है, “पाया” कम है…
(इस खोया-पाया में भौतिकतावाद तथा राष्ट्रवाद की भी तुलना अवश्य कीजिये सर…)
वैसे आगे की कड़ियों का इन्तज़ार तो रहेगा ही…
फ़िर भी चावल 40 रुपये किलो और मोबाइल सिम मुफ़्त तथा शकर 35 रुपये किलो तथा 0% ब्याज पर बाइक लोन… आदि पर निश्चित ही आप कुछ लिखेंगे ही… इसका विश्वास है 🙂 🙂
हमने बहुत कुछ पा लिया था; फिर बहुत कुछ खोया; अब फिर पाने की बारी है। मैं भी आश्वस्त हूँ।
हाँ जब हम भी पीछे बीते दिनों में झांकते हैं तो चहुँ ओर भौतिक प्रगति दिखाई पड़ती.
आपसे सहमत. लेकिन हमने खोया भी बहुत कुछ है.. शायद अपनी आजादी भी खो चुके हैं हम. देखिये न बीटी बीजों के विरोध में बोलने पर कैद और जुर्माने का प्रावधान आ रहा है… मुंह भी बन्द करने की नौबत आ गयी साठ सालों में..
चिन्तन में डुबोने वाला लेखन । बँधी और घुटनभरी परिस्थितियों से लगातार बाहर आ रहे हैं हम । पर जितना खुलता जा रहा है प्रवाह, क्या सम्हाल पा रहे हैं हम ?
सारा का सारा खेल इसी साम्य में है ।
मेरे पिताजी अक्सर कहते थे -“हमारे ज़माने में इतने पैसे किलो देसी घी था.”
एक दिन मैंने पूछ ही लिया -“तो हर महीने, आज से तो ज़्यादा ही खा लिया करते होंगे आप !”
तब से उन्होंने यह कहना छोड़ दिया है.
Consumption Index और Happiness Index को झुठलाने के आदि हो गए हैं हम. सबके अपने-अपने तर्क हैं गिलास आधा खाली बताने के.
बिलकुल सही सोच रहे हैं आप
इतना स्मार्ट फोटू हटा कर यह क्या लगा लिया गुरु !
sir
mein aap se sehmat hoon. do comment if you find the time on a short piece i put out recently
http://www.openthemagazine.com/article/nation/you-are-no-safer-for-this-verdict
best wishes
ninad
बात तो आपकी काफी सही है. पर क्या करें इतना भ्रष्टाचार है कि रोज ब रोज आम इंसान मर मर कर जी रहा है….सब कुछ होते हुए भी आखिर हम इतनी परेशानी में जी रहे है की पूछे मत…
सर 2500 साल से नोचे खसोटे जाने वाली बात समझ में नीहं आई…मेरे ख्याल से 1400 साल से नोचे-खसोटे जा रहे हैं हम लोग..नहीं क्या?
यह सच है की पड़ोसियों के मुकाबले हमने कुछ ज्यादा विकास किया है. पर इसका मतलब यह नहीं की हम जो कुछ भी गलत हो रहा है उसकी तरफ से आँखें मूँद लें. यकीं मानें भारत में और दुनिया में काफी कुछ गलत भी हो रहा है. क्या हम पानी और जनसंख्या पर चिंता प्रगट करना छोड़ दें. हथियारों की दलाली, बाल मजदूरी, बेरोजगारी, पर्यावरण, प्रदुषण, सरकार और कम्पनियों की दलाली, नौकरशाही, भाषा की अराजकता, गंदगी, जनसंख्या के अनुपात में नागरिक सुरक्षा, परिवहन और अन्य संसाधनों की भारी कमी, भारतीय कृषि को बेचे जाने की साजिशों की आलोचना भी न करें? कितने ही मुद्दे हैं जिनपर कोई ध्यान नहीं देता.
सवा अरब की जनसंख्या में कुछ पंद्रह करोड़ कुछ सम्पन्न हैं तो इसका मतलब यह नहीं की उन सत्तर करोड़ लोगों के हालात पर चिंता करना छोड़ दें जो रोजाना बीस रूपए से भी कम में गुज़ारा करते हैं. एसी और स्लीपर में यात्रा करने वाले कभी जनरल में लम्बी यात्रा करें तो थोड़ी संवेदना जगे.
और रही बात हजारों साल गुलाम रहे देश की, तो अब भारत सांस्कृतिक, मानसिक और नीतिगत रूप से गुलाम है.
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is bare me jitana bhi soche kam hai. wah kya bat kahi hai ? dhyan aesi bat ke liye khicha . dhanyawad.
सर आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है। देश ने वैसे तो बहुत तरक्की की है लेकिन देश के सामने हमेशा बडी समस्याए रही है। जातीवाद, नक्षलवाद, प्रांतवाद ये तो हमारी अंतर्गत समस्याए है। आज भी आजादी के साठ साल बाद मुंबई मे दलिद लडकी को नंगा करके घुमाया जाता है। आज भी खाप पंचायते हर रोज किसिका बली ले लेती है। मुझे लगता है की भौतिक प्रगती के साथ साथ ही देश के समाज के विचारो को बदलने की जरुरत है।
धन्यवाद.
bahut hi acchi post . sochne par mazboor karti hui post.
vijay
kavitao ke man se …
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mene pahli baar apka lekh pada hai kuch nyapn liye huye to h.. maff kijiyega pr ek sawal to h kya humne khone se jyada paa liya hai? mujhe to esa nhi lga aap btaiyega plss