अंग्रेजी का ऐसा था प्रेम
सिरीमती मोहमाया को,
कंठ लंगोट बिना समझती
नहिं किसी को पुरुस.
काटे छुरी के बिना
खाये जो, तो समझे
उसे जनावर.
दिया बच्चों को हर तरह की
इंगलिस तालीम.
समझाया कुपूत को
कि मूरख हैं जो करते देसप्रेम.
समझाया पुत्री को कि मर्यादा है
कमजोरों की निसानी.
बेटा बना कलकटर,
बिटिया बनी कंपूटर पिरोगामर.
पहुंचाया तुरंत मांजी को,
बडे अनाथालय.
बोले यही रीत है मातासिरी,
अंगरेजी देसों की.
वह भाई शास्त्री जी
अपने तो कुछ ही पंक्तियों में सभ्यता के अधोगामनीकरण की पूरी पोल-पट्टी खोल के धर दीं है. अगर इस पर किसी की आंख न खुले तो कोई क्या कर सकता है. बधाई स्वीकारें.
आज लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हैं, क्योंकि विशेषकर हिन्दीतर भाषी राज्यों में अच्छे हिन्दी माध्यम से स्कूल उपलब्ध नहीं हैं। हर माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। अति प्रतियोगितात्मक माहौल में टिकने के लिए अच्छी प्रतिभा तथा शक्ति प्रदान करना चाहते हैं, भले ही वे माँ-बाप की सेवा करें या न करें।
@हरिराम
हरिराम जी, बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढाना एक बात है, भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देखना दूसरी बात है. मेरा इशारा उस दूसरी बात की ओर है.
ऐसा हो रहा है। साथ ही अंग्रेजी जानने वाले उन्हें अनपढ़-गँवार समझते हैं जो अंग्रेजी नहीं जानते, भले ही अन्य विषयों का अच्छा ज्ञान हो।
@अतुल शर्मा
आपने एकदम सही कहा. इस स्थिति में परिवर्तन होना जरूरी है
apki site dekhi. bahut kuch akarsit karta hai.
[may i have your contact no. so that we can speak.]