शाश्वत सत्य की खोज में

आज सुबह मैं दीपकबाबू कहिन पर एक लेख पढ रहा था कि उसके अंत में दिया गया काव्य हृदय को गहराई तक छू गया. वे पक्तियां हैं:

केवल नारे मत लगाओं
यूं लोगों को न बहलाओं
दिल तक उतर जाये
कोई ऎसी सोच जगाओ
तुम दौलत के अम्बार लगा लोगे
जज्बातों का सौदा कर लोगे
पर वह कितना शाश्वत होगा
पहले यह बताओ

लेख का विषय कुछ और विस्तृत है, लेकिन मैं सिर्फ इस पद्य के विषय की ही चर्चा तक अपने आप को सीमित रखूंगा.

चार दशाब्दी पहले जब मैं ने अध्यापन शुरू किया तो दिल में बहुत से आदर्श थे, अरमान थे. वे गलत नहीं सिद्ध हुए, एवं वे आज भी मेरे साथ हैं. लेकिन एक परिवर्तन जरूर आया — अब ये अरमान एवं आदर्श शाश्वत सत्य को अधिक महत्व देने लगे हैं. इसके पीछे एक घटना है: एक बार भौतिकी के प्रेक्टिकल की तय्यारी चल रही थी. बाह्य परीक्षक के सन्देश का इंतजार था, लेकिन वह न आया. प्रिन्सिपाल साहब ने मुझ से कहा कि मैं अपनी तरफ से परीक्षक से सम्पर्क करू. मैं अड गया कि यह तो उनकी जिम्मेदारी है, मेरी नहीं.

प्रिन्सिपल साहब मुस्कराये एवं बोले, शास्त्री तुम अभी जवान हो. आदर्शवादी हो. लेकिन जीवन का समग्र दर्शन नहीं मिला है. जरा सोचो, 140 विद्यार्थीयों का समय तुम्हारे हाथ में है. यदि थोडा सा झुक जाओ और परी़क्षक से सम्पर्क करके परीक्षा तुरंत करवा दो 140 लोगों का कल्याण हो जायगा. जीवन भर इनका आभार मिलेगा वह अलग. मैं ने तुरंत परीक्षक से सम्पर्क साधा, परीक्षा करवाई, एवं जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ सीखा: हर निर्णय के पीछे एक मूल्यांकन होना चाहिये. इस बात का कि उससे कितने लोग लभान्वित होंगे. यह एक शाश्वत सच था, पाठ था. मुझे यह पाठ इसलिये मिला क्योंकि प्रिन्सिपल साहब ने जो किया वह था: “दिल तक उतर जाये, कोई ऐसी सोच जगाओ”. धन्यवाद प्रिन्सिपल सर. धन्यवाद दीपक बाबू

— शास्त्री जे सी फिलिप

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Author: Super_Admin

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