कोई भी सामान्य व्यक्ति दर्द को जान कर आमंत्रण नहीं देता है. तपस्वियों एवं त्यागियों को छोड कर बाकी सब तो दर्द को किसी भी तरीके से एवं किसी भी कीमत पर अपने से दूर रखने की कोशिश करते हैं. लेकिन पूर्ण रूप से दर्दमुक्त जीवन किसी को नहीं मिल पाता है, न ही मिलना चाहिये. मिल गया तो हम सब क्रूर दरिंदे बना जायेंगे जिन के हृदय में संवेदनशीलता नामक कोई चीज नहीं होगी. सच कहा जाये तो सही मात्रा में दर्द मनुष्य के लिए ईश्वर का वरदान है. कबीरदास ने “दु:ख मे सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय” में इस तरफ बहुत सशक्त तरीके से इशारा किया था. इस विषय के एक अन्य पहलू को हम देखते हैं निम्न काव्य में. मेरा अनुमान है कि इस के व्याख्या की जरूरत नहीं है, बस दो या तीन बार ध्यान से पढना काफी होगा:
तेरा मेरा रिश्ता,
लगता है जैसे…
है दर्द का रिश्ता,
हर खुशी में शामिल होते है,
दोस्त सभी
परन्तु
तू नही होता,
एक कोने में बैठा,
निर्विकार
सौम्य
मुझे अपलक निहारता
और
बाट जोहता कि,
मै पुकारू नाम तेरा…
मगर
मै भूल जाती हूँ,
उस एक पल की खुशी में,
तेरे सभी उपकार,
जो तुने मुझ-पर किये थे,
और तू भी चुप बैठा
सब देखता है,
आखिर कब तक
रखेगा अपने प्रिय से दूरी,
“अवहेलना”
किसे बर्दाश्त होती है,
फ़िर एक दिन,
अचानक
आकर्षित करता है,
अहसास दिलाता है,
मुझे
अपनी मौजुदगी का,
एक हल्की सी
ठोकर खाकर
मै
पुकारती हूँ जब नाम तेरा,
हे भगवान!
और तू मुस्कुराता है,
है ना तेरा मेरा रिश्ता…
लगता है जैसे,
दर्द का रिश्ता…
सुनीता(शानू)
सिर्फ हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
अच्छी प्रस्तुति है. बधाई.
शास्त्री जी सचमुच आपने अपने चिट्ठे पर मेरी कविता रख कर मेरा हौसला और बढ़ाया है…
सुनीता