वियोग एक बहुत ही दर्दनाक अनुभव है, खास कर जब वह मिटे बिना मन मे बसा रहता है. समय हर चीज को मिटा देता है, सिर्फ सिद्धांत में. व्यावहारिक तल पर सच्चाई कई बार सिद्धान्त को पीछे छोड, उस व्यक्ति के पीछे पड जाता है जो वास्तविकता को भुगत रहा होता है. नीचे की पक्तियां देखिये:
अभी आज ही तो,
मेरे कमरे मे आने वाला कबूतर
तुम्हारा नाम ले कर रो रहा था।
वियोग से होने वाले दु:ख एवं छटपटाहट को व्यक्त करने के लिये अपनी कविता में चेतन प्रकृति के इस मर्मस्पर्शी उपयोग ने मेरे दिल में वही हलचल पैदा की जो लेखक चाहता था. पूरी कविता को पढ कर पत्थर हृदय व्यक्ति भी अचल नहीं रह सकता है. पूरी कविता इस प्रकार है:
आज भी
आज भी
किसी झरोखे से
तुम्हारे नाम की हवा
तुम्हारी खुशबु लिए
मेरे कमरे में चली आती है।
तुम्हारी दी हुई चादर
कितनी भी लपेटूं
मेरी हड्डियों में सिहरन
फिर भी समाती है।
टूटी यादों मे
मेरा विश्वास
(ना जाने क्यों)
आज तक
अक्षुण्ण है
बिस्तर की सिलवटें
मेरे सुलझाए नहीं सुलझती
तकिये की ‘जगह’ पर भी
मेरा नियंत्रण सुन्न है
उन्हें भी
तुम्हारे ही हाथ चाहिऐ
उन्हें भी
तुम्हारा ही साथ चाहिऐ
अभी आज ही तो,
मेरे कमरे मे आने वाला कबूतर
तुम्हारा नाम ले कर रो रहा था।
अभी आज ही तो,
खिड़की का कांच
अपनी आँखें खोलें सो रहा था।
इस कमरे की दीवाल
की चीख
मेरे परदे फाड़ रही है
मेरे आलमारी के
एक कोने मे दबी
फोटुओं की अल्बम
मेरी ओर
हिकारत से देखती
मेरी निगाह शर्म से गाड़ रही है।
उन्हें भी
तुम्हारी एक निगाह चाहिऐ
उन्हें भी
तुम्हारी ही चाह चाहिऐ
क्या खूब दर्द को उकेरा है इस कविता नें…सचमुच दिल को छलनी कर देने वाली कविता है…आप कृपया उनका नाम भी बतायें जिन्होने लिखा है…
शानू
मन में बसे रहने के लिये…. यदों से नहीं मिटना ज़रूरी है. मर्मस्पर्शी कविता अच्छी लगी.
मेरी कविता को अपने संदर्भ पर स्थान देने के लिए शुक्रिया!
“अपनी कविता में चेतन प्रकृति के इस मर्मस्पर्शी उपयोग ने मेरे दिल में वही हलचल पैदा की जो लेखक चाहता था।”
इतनी अनोखी समीक्षा के लिए आपका आभार व्यक्त करूं भी तो कैसे?
very nice poem
शास्त्री जी आपने पिछली प्रविष्टि से हमारी टिप्पणी हटा दी, क्या हमने कुछ गलत लिख दिया था?
माफी चाहता हूं. किसी तकनीकी कारण से
वह हट गया होगा. आपकी टिप्पणी को तो
हम बहुत महत्व देते हैं.
पुन: क्षमा यचना के साथ !
— शास्त्री जे सी फिलिप