यह लेख नहीं है. विचार भी नहीं है. यह एक ऐसे हिन्दीभाषी की पीड़ा है जिसने अपनी जवानी में केवल भाषा के सवाल पर बहुत तरह के समझौते किये हैं. कमतर समझवाले भी मेरी अहमियत सिर्फ यही समझते हैं कि तुम्हारी हिन्दी अच्छी है मेरे लिखे का अनुवाद कर दो. और जब अनुवाद कर दिया तो कह दिया यार तुम्हारी भाषा और विषय दोनों पर पकड़ ठीक है. मेरे लिए अनुवाद का काम क्यों नहीं करते? हिन्दी में काम करने का यह परिणाम है कि मुझे अपना सब काम क
लेख के तेवर और बात लिखने का अन्दाज अच्छा लगा। भारतीय भाषाऒं से जुड़ाव वाली बात भी प्यारी है।:)
संजय भाई!
विषय अपने बहुत जोरदार ढंग से उठाया है. सही और सूक्ष्म विश्लेषण किया है. क्या ही बेहतर हो अगर आगे आप लेख उन कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखें जो सरकार और मठों में हिंदी की दुर्गति के लिए जिम्मेदार हैं.