हर कोई अपने जीवन में आनन्द चाहता है. दु:ख कोई भी पसन्द नहीं करता है. इसमें कोई गलत बात नहीं है. हर धर्म किसी न किसी प्रकार के आनन्द को मनुष्य का अंतिम लक्ष्य बताता है, अत: यह लक्ष्य बुरा नहीं हो सकता है. यहां तक कि नास्तिक एवं हर तरह के धर्मभंजक भी आनन्द को अपना चरम लक्ष्य मानते है, अत: यह समयकाल एवं जातिसंस्कृति से परे हर व्यक्ति की कामना के लायक लक्ष्य है. लेकिन सवाल यह है कि इस लक्ष्य की पूर्ति कैसे हो.
कुछ लोग धन को इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये एक साधन मानते हैं. इस कविता में इस दृष्टिकोण पर रचनाकार ने एक व्यावहारिक एवं मर्मस्पर्शी नजर डाली है. दीपक की कलम इस तरह के विषयों में वैसे भी काफी सशक्त है, लेकिन उन सशक्त रचाओं में से चुनी हुई एक रचना प्रस्तुत है जो किसी भी पाठक को छुए बिना नहीं रह सकती — शास्त्री जे सी फिलिप
सारथी सन्दर्भ 5
यह एक यक्ष प्रश्न
एक अमीर के पुत्र विवाह
समारोह में खङा होकर
देख रहा हूँ धन कुबेरों
उच्च पदासीन और
मशहूर लोगों का जश्न
जाम से जाम टकराते
अपनी अमीरी और
संपन्नता पर बतियाते
सब हैं अपनी बात कहने में मग्न
कुछ होश में हैं कुछ बेहोश
कुछ लोग अपनी रईसी पर
इतराते हैं
कुछ अपनी बीमारी पर बतियाते हैं
बहुत जल्दी उकता जाता हूँ
सोचता हूँ बाहर के लोगों को
क्यों यहां स्वर्ग का अहसास होता है
मुझे तो लगता है कि
यहां नरक हैं
ऐसे इंसानों का जमघट है
जिनके बुद्धि और मन हैं भग्न
वर्षा के दिनों में
एक तंग बस्ती से निकलता हूँ
जहां सडक है कि नाला
पता ही नहीं चलता
बच्चे वहां पाने से खेल रहे हैं
मायें हैं अपनी बातचीत में मग्न
मुझे वहाँ भी नरक लगता है
पर जीते हैं गरीब और मजदूर
उसे स्वर्ग की तरह
हर मौक़े पर
बडे जोश से मनाते हैं जश्न
कहाँ स्वर्ग है
और कहाँ नरक
खङा है मेरे सामने
यह एक यश प्रश्न
मैं ढूँढने की कोशिश करता हूँ
चलते-चलते उस बस्ती को
पार कर जाता हूँ
और हो जाता हूँ कहीं और मग्न
[विशेष अनुमति: दीपक भारतदीप अनंत शब्दयोग]
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इसमे टाईप करते हुए मुझसे गलती हुई थी बाद में मैंने उसे सुधारा था। यहां यश नहीं बल्कि यक्ष प्रश्न पढ़ना चाहिए। अगर आप सही कर सकते हैं तो ठीक नहीं तो मेरे अनुरोध पर इसे यक्ष प्रश्न ही पढ़ें ।
दीपक भारतदीप