आज मेरे ईमेल की देहलीज़ पे
एक मेल ने दस्तक दीं,
किसी ने मेरे घर के नाम से पुकारा।
जैसे ही मेल में
मै आगे बड़ा,
ख़त्म हो गयी एक लाइन में।
खैरियत पूछी थी बरसों बाद मेरी,
घरवालों की।
सालों का फासला
सेकेंड में ख़त्म हो गया,
जैसे कोई बासी पोस्ट पे
आंसू
खारे होते हैं,
जब दर्द आंसू बन बहता हैं
दिल को राहत देता हैं,
ये अपने-पराये
किसी के भी दर्द में
बहने लगते हैं,
हमदर्द बनके।
खारे होकर भी
कितना मीठा काम करते हैं …
नए मौसम
जब सूखे पत्तों पे बारिश की बूंद पड़ती हैं
तो शाख से टूट जता हैं,
छोड़ अपने कल की दास्ताँ।
सावन जब फिर शाख की रूह को छूता हैं
तो शुरू होती हैं नए पत्तों की तय्यारी
ये मौसम फिर सौधी खुशबू से महक उठता हैं
कुछ इसी तरह होती हैं आंसुओ की बारिश
एक सूखे गम को बहा ले जाती हैं
और ज़िंदगी फिर ले आती हैं
एक नया ग़म
एक नए मौसम के संग …
यतीश जैन का चिट्ठा क़तरा-क़तरा हर काव्यप्रेमी की नजर में आना जरूरी है. हां, उनकी रचनायें पहली बार पढने पर एकदम से लगेगा: “अरे चार पंक्तियों में ही खतम हो गया”. ऐसा भी लगेगा कि इस व्यक्ति के पास शायद लिखने के लिये कुछ नहीं है. लेकिन रुकिये! यतीश ने कम से कम शब्दों में इतना कुछ भर दिया है कि पहले पाठ में लगभग हर कोई उनके मन्तव्य को नजरअंदाज कर जाता है. अत: एक बार और पढना न भूलें.
कृपया उनकी कविताओं पर सारथी पर टिप्पणी करने के बदले क़तरा-क़तरा पर पधारें, टिप्पणी करें एवं उनको प्रोत्साहित करें — शास्त्री जे सी फिलिप
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हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
बहुत ख़ूब शास्त्री जी. भाई यतीश जैन को बधाई दें. अच्छी कवितायेँ है. थोड़े में ज्यादा कहना आता है इन्हें.
http://www.snblast.blogspot.com/
यतिश के इस प्रयास को भी देखे . कमाल का स्पन्दन होता हे हर नये प्रयास से उनके .
शास्त्री जी एक चर्चा इस ब्लोग पर करे ??