लोग मिलते हैं बिछड़ जाते हैं
कभी किसी बात पे बिगड़ जाते हैं,
पता भी नही चलता
और सालों बाद
ऐसे आते हैं
जैसे एक अजनबी।
शायद हम कहीं मिले थे।
बरसों से
एक ही शहर में रह रहे हैं,
वो रस्ते भी तय करते रहे हैं
जहाँ कभी साथ-साथ चला करते थे।
मै जब भी उन रास्तों पे
जाता हूँ आज,
अकेला नहीं होता,
पर वो रास्ते
जब भी मुझे अकेला देखते हैं
कहते हैं,
एक बार तो साथ आओ
तुम उसके,
अकेले अच्छे नही लगते…
सिग्नल
मै जब भी
उस रेड लाईट से गुज़रता हूँ
जहाँ मैंने कभी उससे कहा था
कि जब तू बड़ा आदमी हो जाएगा
एक बड़ी कार में
यहाँ से निकलेगा,
और मै इस जगह
रोड क्रोस करने के लिए
खड़ा होऊंगा
तो तू अपने ड्राइवर से बोलेगा
सिग्नल तोड़ दे
वो आ रहा हैं,
तुम हस पडे थे।
ये सिग्नल भी
कितने अजीब होते हैं दिल के,
लाख कोशिश करो
टूटते ही नहीं,
बस रंग बदलते रहते हैं…
यतीश जैन का चिट्ठा क़तरा-क़तरा हर काव्यप्रेमी की नजर में आना जरूरी है. हां, उनकी रचनायें पहली बार पढने पर एकदम से लगेगा: “अरे चार पंक्तियों में ही खतम हो गया”. ऐसा भी लगेगा कि इस व्यक्ति के पास शायद लिखने के लिये कुछ नहीं है. लेकिन रुकिये! यतीश ने कम से कम शब्दों में इतना कुछ भर दिया है कि पहले पाठ में लगभग हर कोई उनके मन्तव्य को नजरअंदाज कर जाता है. अत: एक बार और पढना न भूलें.
कृपया उनकी कविताओं पर सारथी पर टिप्पणी करने के बदले क़तरा-क़तरा पर पधारें, टिप्पणी करें एवं उनको प्रोत्साहित करें – शास्त्री जे सी फिलिप
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शास्त्री जी,
आपके प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मै समझता हूँ सारथी हिंदी चिट्ठा जगत में एक पथ प्रदर्शक का कार्य कर रहा हैं, सारथी पर प्रकाशित कडिया हो या कोई लेख बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी से भरा हुआ होता हैं जिससे हमे मार्गदर्शन भी मिलता हैं। मेरे ख़याल से इतने सकारात्मक प्रयासों से भरा हुआ हिंदी का एक मात्र यही चिट्ठा हैं।
@Yatish Jain
इस उदार मूल्यांकन एवं टिप्पणी के लिये आभार. हम सब एक दूसरे की मदद करने लगें तो हिन्दी जगत बहुत ऊपर जा सकेगा.