हर क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर होती है. परिणाम जरूर दिखता है. कई बार देर से होती है अत: पहचानने में कठिनाई होती है की यह प्रतिक्रिया है, परिणाम है. पिछले कुछ हफ्तों से बहुत से स्तरीय हिन्दी चिट्ठाकर अपने स्तर से हट कर आपसी झगडे, अन्य चिट्ठाकारों की खामियां इत्यादि विषयों पर लिख रहे थे. बहुतों की चिंतन मनन की सारी ऊर्जा टांगखिचाई में खर्च हो गई. शायद इसका परिणाम है कि इन दिनों उथले किस्म के लेख बहुत आ रहे हैं. चिंतन को प्रेरित करने वाले, मानस को झकझोर देने वाले, एवं जीवन निर्माण को प्रोत्साहित करने वाले लेखों की कमी कम से कम मुझे एक हफ्ते से लग रही है.
इस हफ्ते बहुत से लेख पढे, जिन में से प्रस्तुत हैं छ: उद्दरण. कुछ लोगों को लगेगा कि “इन नुस्खों का प्रयोग चिट्ठाकार अपने रिस्क पर करें” क्यों लिया गया है. यदि इस लेख के दर्शन (तत्व) को समझने की कोशिश करेंगे तो कारण स्पष्ट हो जायगा.
**** यहाँ पर मैं एक अनुरोध करना चाहती हूँ, जो उस दिन करना भूल गई । चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । [पूरा लेख पढें …]
**** कहते हैं न कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ये भी कि हम हर किसी से कुछ न कुछ सीखते हैं चाहे वो छोटे ही क्यों न हो। आज मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ चलिये आप भी शामिल हो जाईये मेरे साथ। [पूरा लेख पढें …]
**** चेतावनी: इन नुस्खों का प्रयोग चिट्ठाकार अपने रिस्क पर करें। किसी भी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, अथवा मानसिक नुकसान के लिये लेखक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं है। आपको इन नुस्खों पर भरोसा नहीं तो लेखक को पत्र लिखें या मिलें. नाम गुप्त रखे जाने की सौ फीसद गारंटी । [पूरा लेख पढें …]
**** जब तक हिंदी की जड़ों को मज़बूत नहीं किया जाता तब तक विदेंशों में हिंदी के सम्मेलन आयोजित करने का कोई परिणाम नहीं आने वाला । हिंदी हमारे गौरव को प्रतीक है परंतु अफसोस केवल ये है हिंदी को अपने ही देश में एक दूसरी भाषा की तरह रहना पड़ रहा है । [पूरा लेख पढें …]
**** तिरंगा ऐसा क्यों हो गया है जो सिर्फ़ क्रिकेट के मैदान में ही लहाराया जाता है, और हार हो तो मैदान से गायब, ऐसा क्यों? शहर के चौराहे पर गरीब बच्चा हाथ में छोटे-बड़े झन्डे बेच कर उस दिन की कमाई से किसी तरह अपना पेट पाल ले, ऐसा क्यों है? आज आज़ाद देश में ऐसा भी हो रहा है कि एक विकलांग अपनी छोटी सी मांग के पूरा नही होने पर आत्महत्या करने पर मजबूर है। [पूरा लेख पढें …]
आज हमें समझाया जा रहा है कि चौड़ी सड़कें, बंदरगाह, ऊर्जा के बड़े-बड़े श्रोत आदि बातें संसाधन(infrastructure) हैं. और हम इन्हीं बातों को संसाधन मानकर उनकी कमी का रोना भी रो रहे हैं. इन संसाधनों को बढ़ाने में लगे तो क्या होगा? बड़ी-बड़ी कंपनियों को बड़े-बड़े ठेके मिलेंगे और इन संसाधनों का उपयोग बड़ी कंपनियां अपना व्यवसाय बढ़ाने में करती हैं. इसकी आड़ में जिन बातों को अब तक भारत संसाधन मानता आया था उसको नकारा जा रहा है. [पूरा लेख पढें …]
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