सालों से मेरी आदत है कि सारा घर किताबों से भर लिया है. जहां देखों वहीं किताबें. ऐसा करने का सुझाव मेरे एक स्कूली अध्यापक ने पहली बार दिया था. इससे मेरे पठन पर गहरा असर हुआ है. सौभाग्य से हमारी अर्धांगिनी भी पुस्तक प्रेमी निकली अत: किताबों के इन टीलों पर टोका टाकी न के बराबर होती है. यतीश का काव्य देखा तो अचानक ऐसा लगा जैसे उन्होंने मेरे बारे मे लिखा हो:
सरहाने अपने
खोमचा किताबों का
सजा लिया हैं हमने,
पहले
वक़्त ही नही मिलता था
अलमारी तक जाने का,
उनका हालचाल जानने का।
इस तंग जिन्दगी में
मसरूफ होकर भी
तन्हा हो गए हैं,
इसलिये
हाथ भर की दूरी पर
बुला लिया हैं उनको।
अब दुआ की तरह
पढता हूँ,
दवा की तरह
लिखता हूँ रोज़
क़तरा-क़तरा…
[रचनाकार: यतीश जैन, विशेष अनुमति द्वारा सारथी पर पुनर्प्रकाशित]
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धन्यवाद शास्त्री जी यतिश जी की हर कविता संवेदनशील भावपूर्ण होती है…बहुत अच्छा लगता है उन्हे पढना…आपने अपने चिट्ठे पर उन्हे स्थान देकर बहुत अच्छा किया…
सुनीता(शानू)
धन्यवाद शास्त्री जी, मेरे खयाल से ये एक तरकीब है जिसे लोग अपना सकते है और व्यस्थ जीवन मे अपने आप ही अपनी पडने की आदत को फिर जीवन्त कर सकते है…
यतीश जी कि रचना बहुत अच्छी लगी।