सैकडों सालों की गुलामी का हम लोगों पर इतना गहरा असर हो गया है कि हिन्दुस्तान जो किसी जमाने में सारी दुनियां को रास्ता दिखाता था, आज उसी देश की बहुसंख्यक जनता हर तरह की भ्रष्ट विदेशी आयात के पीछे लार टपकाती भागती है.
इतिहास में यौन शिक्षा की मुख्यतया दो अवधारणायें रही है: पश्चिमी एवं पूर्वी. पश्चिमी अवधारणा में मनुष्य को सिर्फ एक उन्नत किस्म के जानवर के समान देखा जाता है, एवं पश्चिम की यौन शिक्षा सिर्फ एक उन्नत किस्म के जानवरों के मैथुन (कंडोम आदि पहन कर) की ट्रेनिंग है. पूर्वी अवधारणा मनुष्य को आत्मिक एवं शारीरिक तल पर देखता है अत: पूर्व में यौन शिक्षा एक आत्मिक-नैतिक शिक्षा है. लेकिन आज हिन्दुस्तान में शिक्षाविद लोग जिस यौन शिक्षा की बात करते हैं वह पश्चिमी अवधारणा पर आधारित है. उसका पाठ्यक्रम अमरीका एवं यूरोप से वैसा का वैसा उठा कर हिन्दुस्तान लाया गया है. शिक्षा की पश्चिमी अवधारणा अपने आप में इतनी सीमित एवं यांत्रिक है कि वह यौन संबंध एवं रेलगाडी के डिब्बों की शंटिग में कोई फरक नहीं करती. वे बच्चों को सिखाते हैं कि कोई भी डब्बा जरूरत पडने पर अपने समान (समलैंगिक) या अपने विपरीत किसी भी डब्बे के साथ जुड सकता है. न धर्म आडे आता है, न नैतिकता या समाज. न ही कभी यह पूछा जाता है कि जीवन में कितने डिब्बों से जुडे. उन के अनुसार सिर्फ एक बात का ख्याल रखना है: “सबकुछ बिना गडबड के, बिना गर्भधान के, बिना एड्स पाये, बिना मां बाप की जानकारी के, करो”.
आरंभ के लगभग 25 साल की यौन शिक्षा ने अमरीकी युवा पीढी को इस तरह व्यभिचारी, सम लैंगिक, गुदा मैथुन प्रिय, मुख मैथुन प्रिय, यौन मामलों में हिंसक एवं बहु पुरुष, बहु स्त्री, एवं बहु विवाह कामी, बना दिया था कि 1970 के अंत तक अमरीका में इसका कडा विरोध शुरू हो गया. यहां तक कि यौन शिक्षा का विरोध करने वाले हजारों परिवारों को 1980 के द्शक में जेल भेजा गया. लेकिन वे न हारे. अंत मे हारी अमरीका की सरकार. आज अमरीका में कम से कम तीस से पचास लाख ऐसे परिवार हैं जो इन बातों के विरोध के कारण मुक्त विद्यालयों की मदद से अपने बच्चों को घर बैठ कर पढाते है. लगभग 25 साल से यह चल रहा है. इसका परिणाम इतना चौंका देने वाला है कि पाश्चात्य यौन शिक्षा को हिन्दुस्तान में आयात करने के लिये जो लोग बेताब हैं उनको इन पचास सालों के अमरीकी प्रयोगों का परिणाम डंडे मार मार कर सिखाया जाना चाहिये. कहीं ऐसा न हो कि अमरीका का अंधानुकरण हमारी युवा पीढी को व्यभिचारियों एवं वेश्याओं का एक समूह बना दे. वहां यह हो रहा है, लेकिन यहां उसकी क्या जरूरत है? (कल देखिये इस लेख का भाग 002)
हिन्दुस्तान को जरूरत है हिन्दुस्तानी नैतिकता एवं संस्कृति पर आधारित यौनशिक्षा के अवधारणा की !!
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शास्त्री जी,बहुत सही और कठोर बात कही है आपने ये बात आज इस आधुनिक युग में दीमक की तरह चाटे जा रही है हमारे बच्चों का भविष्य दाव पर लगा है,एसा नही हमे अपने दिये संस्कारों पर विश्वास नही परंतु आज बदलते परिवेश में बच्चो को उचित शिक्षा की नितांत आवशयकता है,आज हर बच्चो को स्कूल और घर हर जगह हिन्दुस्तानी नैतिकता एवं संस्कृति पर आधारित यौनशिक्षा देने की ही आवश्यकता है मगर एसा हो नही रहा…देश की बिगड़ती हुई स्थति इस बात की परिचायक है अंग्रेजी हवा का असर इतना अधिक क्यूँ है समझ नही आता? आशा है हम सभी मिल कर हमारे बच्चो को एक सही दिशा दे पायेंगे…
सुनीता(शानू)
शास्त्री जी आपने जो जानकारी दी कि अमेरिका में भी यौन शिक्षा का विरोध है या था, इसका इल्म नहीं था । अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा
“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
पश्चिम की यौन शिक्षा सिर्फ एक उन्नत किस्म के जानवरों के मैथुन की ट्रेनिंग है. पूर्वी अवधारणा मनुष्य को आत्मिक एवं शारीरिक तल पर देखता है बिल्कुल सही बात है लेकिन आज हमारे यहॉं हमें तो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिम की यौन शिक्षा को ही दिखाया सिखाया जा पहा है
इस तीसरे पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष में से एक) के बारे में वेद-उपनिषदों से लेकर जितने शिक्षा-शोध भारतवर्ष ने दिए हैं, ये विदेशी ज्ञान उसके सामने निरा-बच्चा है।
इस शिक्षा से भागने का असली कारण वहाँ इसकी अनिवार्य “कठिन के कठिनतम प्रैक्टिकल” पेपरों-परीक्षाओं का प्रचलन हैं, जो बच्चों को देनी चाहे-अनचाहे देनी पड़ती है।
आपसे सहमत हूँ शास्त्री जी। भारत के लिए पश्चिमी मॉडल को अपनाना मूर्खता है। पता नहीं लोगों को ये कब समझ आएगा।
आप की बात से पूरी तरह सहमत हूँ,हमे पश्चिमी नही स्वदेशी रास्ता अपनाना चाहिए। आप की अगली पोस्ट का इन्तजार है..
शास्त्रीजी,
आपके इस लेख ने तो पूरी तरह निराश किया है । सम्भवत: आपने ये लेख भावनाओं के प्रवाह में लिखा है, वरना सैकडों वर्षों की गुलामी से लेकर पूर्व और पश्चिम के भेद का इस विषय से उतना सम्बन्ध नहीं है जितना ये लेख प्रदर्शित करता है ।
“शिक्षा की पश्चिमी अवधारणा अपने आप में इतनी सीमित एवं यांत्रिक है कि वह यौन संबंध एवं रेलगाडी के डिब्बों की शंटिग में कोई फरक नहीं करती. वे बच्चों को सिखाते हैं कि कोई भी डब्बा जरूरत पडने पर अपने समान (समलैंगिक) या अपने विपरीत किसी भी डब्बे के साथ जुड सकता है. न धर्म आडे आता है, न नैतिकता या समाज. न ही कभी यह पूछा जाता है कि जीवन में कितने डिब्बों से जुडे. उन के अनुसार सिर्फ एक बात का ख्याल रखना है: “सबकुछ बिना गडबड के, बिना गर्भधान के, बिना एड्स पाये, बिना मां बाप की जानकारी के, करो”.”…
इस प्रकार के तर्क देकर आप मूल विषय से पूरी तरह भटक गये हैं । अन्त में एक बात और, जहाँ आपने पश्चिमी तौर तरीकों की इतनी भर्तस्ना की है, जरा ये भी बतायें कि इस विषय पर अपने पूर्वी अवधारणा क्या कहती है । या फ़िर मात्र समस्या को समस्या न मानकर कुछ भी न कहना एक समाधान हो सकता है ।
एक सार्थक बातचीत प्रारम्भ करने के लिये आप बधाई के पात्र हैं,
आपके लेख की अगली कडी का इन्तजार रहेगा ।
साभार,