यौन शिक्षा पर मैं ने जो दो लेख लिखे थे यौन शिक्षा — पाश्चात्य राज्यों का अनुभव क्या कहता है ?? व हिन्दुस्तानियों को चाहिये क्या पैरों में इलेक्ट्रॉनिक पैरकडी ?? इन पर कई टिप्पणियां आईं एवं दो लेख भी छपे: यौन शिक्षा: दो टूक बातें !!! व मेंढक बहरा हो गया. मुझे अच्छा लगा. कुछ लोगों को अपने द्वारा कहे गये विषय पर वादविवाद अच्छा नहीं लगता है, लेकिन मेरी बात अलग है. ट्रेनिंग से मैं एक वैज्ञानिक हूं. अत: हर चीज के “युक्तिसम्मत” छिद्रान्वेषण का मैं समर्थन करता हू. इस कारण मेरे दो साथियों से मिले असहमति भरे लेखों — एवं अन्य कई से मिली असहमति भरी टिप्पणियों — से मुझे कोई मानसिक तकलीफ नहीं हुई. बल्कि एक मानसिक संतोष हुआ कि मेरे मित्र इस विषय पर खुल कर चर्चा करना चाहते है. दूसरी ओर यह देख कर दुख हुआ कि विषय के “मर्म” को समझे बिना कितने लोग आग में कूदने को सदैव तय्यार रहते है.
मैं अपने मित्रों की आलोचनाओं एवं आपत्तियों पर एक एक करके दोतीन लेखों में नजर डालूंगा. लेकिन उसके पहले कुछ बातें प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष रखना चाहता हूं:
1. मैं सर्वज्ञानी नहीं हूं अत: मेरे मित्रगण खुल कर मेरे लेखों का “युक्तिसम्मत” छिद्रान्वेषण जरूर करें. इससे मैं भी सीखूंगा, आप भी. मुझे कोई मानसिक क्लेश नहीं होगा. आपको संतोष होगा कि आपने चर्चा आगे बढाई.
2. “युक्तिआधारित” छिद्रान्वेषण करेंगे तो हमारे आपसी संबंध कटु होने के बदले और भी मजबूत होंगे.
3. अमरीकी अवधारणा पर आधारित यौन शिक्षा पर मेरा नजरिया एकदम से नहीं पैदा हुआ. न ही मैं ने भावनाओं में बह कर इस विषय पर लिखा है. बल्कि चार दशाब्दियों तक इस विषय पर यौनशिक्षा से संबंधित कई अमरीकी अनुसंधानकर्ताओं एवं एवं संस्थाओं से विचारविमर्श के बाद यह नजरिया विकसित हुआ है.
4. वजीफे पर 1990 में अमरीका जाकर “एडवांस्ड काऊंसलिग” पर मैं ने जो अध्ययन एवं अनुसंधान किया था उस समय इस विषय को और पास से तथा गहराई से देखने का अवसर मिला. मेरी परीक्षा में अमरीकी यौन शिक्षा एक मुख्य विषय था एवं मेरे अमरीकी अध्यापकों ने अमरीकी यौन शिक्षा के विरुद्द मेरे निष्कर्षों का खुल कर अनुमोदन किया था. अत: मेरे निष्कर्ष मेरे लेख में दिये गये मात्र दो या चार आंकडों पर आधारित नहीं है, बल्कि काफी बृहद आंकडों, दशाब्दियों के निरीक्षण, एवं अमरीकी समाज पर सीधी नजर पर आधारित है. दोचार आंकडे सिर्फ लेख के विषय को समझाने के लिये दिये गये थे, न कि विषय को सिद्ध करने के लिये.
4. लगभग 5 साल तक dmoz.org पर अमरीकी यौन अपराधों पर सरकारी एवं गैरसरकारी सैकडों संस्थाओं के आंकडों को प्रस्तुत करने वाले सैकडों जालस्थलों के एक संपादक की हैसियत से उनके जालस्थलों पर जांचने का अवसर मिला था. अत: फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि वर्तमान यौन-शिक्षा — जो कि मुख्यतया एक अमरीकी अवधारणा है — के बारे में मेरे लेख भावनाओं में बह कर नहीं लिखे गये हैं.
5. इस अमरीकी अवधारणा से हट कर यौन शिक्षा के बारे में एक स्वतंत्र भारतीय अवधारणा भी है जिसे गोरे लोगों के भूलभुलैया में फंस कर हम हिन्दुस्तानियों ने भुला दिया है. आलोचनाओं एवं आपत्तियों का उत्तर लिख लेने के बाद मैं यौनशिक्षा के इस भारतीय अवधारणा के बारे में लिखूंगा.
कई हिन्दुस्तानियों की आदत है कि जिन चीजों को ठोकपीटकर देखने के बाद पश्चिम कूडेदान में डाल देता है उसे हम अपने घर के सबसे महत्वपूर्ण स्थान पर लाकर सजाते हैं, आदर का स्थान देते है, एव उस निकृष्ट चीज के समर्थन में आपस में मरनेमारने के लिये तय्यार हो जाते हैं. इस तरह के अंधे अनुकरण से अलविदा कहना प्रबुद्ध भारतीयों के लिये जरूरी है.
क्या आपको मालूम है कि पिछले 30 सालों से लाखों अमरीकी लोग यौन शिक्षा को पास से देखने के बाद उसे अलविदा कर रहे हैं! यदि आप ने नहीं देखा तो आज ही देखिये मेरे पिछले दो लेख ! (अभी ‘यौन शिक्षा, आलोचनाओं एवं आपत्तियों का उत्तर” के दो और लेख बचे है) — शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दुस्तान को हिन्दुस्तान की सजीव आत्मा चाहिये, न कि पश्चिम के कूडेकर्कट से कबाडी गई मरी हुई उनकी आत्मा!!
लाखों अमरीकी यौन शिक्षा से भाग रहे हैं 002
लाखों अमरीकी यौन शिक्षा से भाग रहे हैं 001
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शास्त्री जी हम आपके विचारों से सहमत हैं आपने हमारे भी मन की बात कही है ।
“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने, अगली कड़ियों का इंतजार है.
इस विषय का मूल भी अध्यात्म में ही जाता है। सार स्वरूप – यदि किसी पुरुष की प्रेमिका/पत्नी/संगिनी अचानक मर जाए तो क्या वह व्यक्ति उसके मृत शरीर के साथ यौनाचार कर सकता है? जिसके लिए वह तड़फता था। अतः यह शारीरिक कम, मानसिक और आत्मिक विषय अधिक है। पश्चिम को इस गूढ़ रहस्य को समझाने और अनुभव करवाने की जरूरत है। जिस प्रकार अन्धेरा नाम की कोई वस्तु नहीं होती, प्रकाश के अभाव को ही अन्धेरा कहते हैं, उसी प्रकार ‘काम’ नामक कोई वस्तु नहीं है, ‘आत्मिक-पवित्रता’ का अभाव ही काम है। रजनीश का “… से समाधि की ओर” सिद्धान्त भी इसी फार्मूले पर आधारित है।
अभी कुछ नही कहना चाहूँगी…आपकी अगली कडी का इन्तजार है…
आपके विचार पढ़कर अच्छा लगा। इस विषय पर आपके अगले लेखों का इंतजार है।
“युक्तिआधारित” छिद्रान्वेषण स्वस्थ चर्चा का प्रतीक है लेकिन लोग इसकी बजाय थोड़ी देर में ही तूतू-मैंमैं पर उतर आते हैं।