गुन है विनय ऐसा,
कि खरच न होय किसी का कुछ
लेकिन छोड जाये पिरभाव
मनों में अईसा
कि बिठाल लें लोगन
विनयवान को मनों मे
अपने अपने.
अध्यापक थे हमारे टंडन जी,
दिलाते थे यह बात हर
नये साल पर,
कि बच्चो सुनो मेरी यह सीख.
खरच कछु नाहिं अजमाने में
सीख यह मेरी.
हुआ नफा तो बढा देना
इस ज्ञान को आगे,
हुआ नुक्सान तो डाल देना
इस सीख को टोकरी में रद्दी की.
सच बतलाऊं तो
नहीं मिली सिक्सा अईसी
किसी से.
हम तो बटोर रहे हैं
ब्याज तब से.
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