सारथी के मित्रों को उनकी सतत टिप्पणियों के लिये आभार ! टिप्पणियों से न केवल प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि मार्गदर्शन भी मिलता है. यहां तक कि जो लोग सोचे समझे बिना मेरा विरोध करते हैं उनसे भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है, खास कर जब मैं अपने आप से दो प्रश्न पूछता हूं:
1. क्यों इस व्यक्ति ने समझे बिना मेरा विरोध किया है
2. ऐसे व्यक्ति को अपनी बात मैं कैसे समझा सकता हूं.
लेकिन मित्रों एक निवेदन है: कई लोग लेख के लक्ष्य को नही समझ पाते, जब कि मेरी आदत है कि लक्ष्य पहले या दूसरे पेराग्राफ में दे देता हूं. उदाहरण के लिये मेरे कुछ लेखों से लिये गये वाक्य देखिये जो मेरे लेख के लक्ष्य को स्पष्ट करे हैं:
“तो, भविष्य में क्या कोई हिन्दी चिट्ठाकार अपनी दाल रोटी हिन्दी चिट्ठाकारी के जरिए कमा सकता है? जी, हाँ. बिलकुल. निश्चित रूप से. “
“हिट्स को हम नजरअंदाज कर रहे हैं क्योंकि पेज-पठन है असली संख्या. पेज-पठन यह बताता है कि कुल कितनी बार किसी चिट्ठे जा जालस्थल से लेख पढे गये. “
“चार अक्षर अंग्रेजी के पढते ही बहुत से बच्चों को यह लगने लगता है कि जब तक आत्मा, परमात्मा आदि अवधारणाओं को न नकारा जाये तब तक शायद उनकी पढाई पूरी नहीं होती है. “
“यदि हम इस नजरिये के साथ पश्चिम की नकल करते हैं कि पश्चिमी चीजें हिन्दुस्तानी चीजों से बेहतर हैं तो यह गलत सोच है. इस गलत सोच का एक परिणाम है कंठ लंगोट को परिष्कृत होने की निशानी मानना एवं हिन्दुस्तानी वेशभूषा को आदिम होने की निशानी मानना. “
“हस्ताक्षर एक ऐसी जरूरी चीज है जो हमारे साथ आजीवन रहती है. यह हमारी पहचान का, अधिकार का, बहुत सारी और बातों का भी प्रतीक है. इस प्रतीक का आजीवन उपयोग हिन्दी में ही करें तो न केवल हिन्दी के प्रति हमारा प्रेम प्रदर्शित होगा, बल्कि बहुत से लोगों को हिन्दी प्रेम के बारे में सोचने के लिये प्रेरित भी करेगा.
मेरे लेख को पढते समय पहले या दूसरे पेराग्राफ में इस तरह मैं लेख की मूल विषयवस्तु को एक या दो वाक्य में दे देता हूं, एवं अकसर शेष लेख में सिर्फ इसकी व्याख्या होती है.
इस लेख के प्रकाशित होते ही टिप्पणियां आनें लगीं जिनको उत्तर सहित मैं यहां दे रहा हूं:
संजय बेंगाणी: जी दुसरों का तो पता नहीं, मैं तो आपकी बातो को बराबर समझता हूँ, ऐसा मुझे लगता है. आपके विचारों का समर्थन व कभी-कभी विरोध पुरे होशोहवास में करता रहा हूँ, करता रहूँगा.
प्रिय संजय, लेख सिर्फ उनके बारे में है जो विषय के मर्म को समझे बिना विषय से हट कर टिप्पणी करते हैं. काहे को यह लेख अपने ऊपर लेते हो.
paramjitbali : शास्त्री जी,यदि कोई विरोध करता है तो वह अपने वैचारिक दृष्टीकोण के आधार पर करता होगा ।इस से वह व्यक्ति जो सत्य को जानता है और यह भी जानता है कि वह सही है, उस पर किए गए विरोध का कोई असर नही होगा…लेकिन यदि किसी का विरोध हमें विचलित करता है तो निश्चय ही हमे मनन की आवश्यकता होती है…यह मै इस लिए कह रहा हूँ कि मैनें भी इस विरोध का स्वाद चखा है..
प्रिय परमजीत, यह लेख विचारों के विरोध के बारे में नहीं, बल्कि सिर्फ उनके बारे में है जो लेख के विषय को समझे बिना विरोध करते हैं
रमेश पटेल: गुरुजी, हिन्दी में ही आपसे नम्र निवेदन कर रहा हूं. क्यों आपको लगता है कि आपका विरोध करने वाले बिना सोचे-समझे ऐसा करते हैं? हम तो बिलकुल सोच-समझ कर इश्वर उपासना के विरोध में बात करते हैं. क्या नास्तिकता अंग्रेजों की बपौती है कि उसको अपनाने के लिये अंग्रेजी पढ़नी पड़ेगी? हमारे अपने देश में चार्वाक हुये थे जिन्होंने बहुत पहले नास्तिकता के बारे में काफी कुछ कहा था. वो अंग्रेजी कितनी जानते थे आप बेहतर बता सकते हैं.
वत्स, हमको कतई ऐसा नहीं लगता कि जो मेरा विरोध करने वाले बिना सोचे-समझे ऐसा करते हैं. बल्कि यह लेख सिर्फ उन लोगों के बारे में है जो बिना विषय का मर्म समझे टिप्पणी करते हैं.
रमेश पटेल: इधर मेरी उम्र जाने बिना आपने शायद मुझे बच्चा भी कह दिया? या आप शायद मेरी मानसिक उम्र की बात कर रहे हैं?
मै ढूंढ कर हैरान हो गया हूं. कहा है मेरा वह कथन ? बता दें तो तुरंत सुधार भी दूं, माफी भी मांग लूं.
रमेश पटेल:गुरुजी, उम्र तो आपकी भी मुझे नहीं पता, लेकिन चित्रों से, व आपकी वेबसाइट में दी गई आपके बारे में जानकारी से आप परिपक्व ही लगते हैं.
प्यारे भाई, मैं उमर में आपसे ज्येष्ठ हूं, लेकिन ज्ञानविज्ञान, मानसिक विकास, कर्मठता, एवं जीवन के हर महत्वपूर्ण बात में न केवल अपरिपक्व हूं, बल्कि शिशु हूं. जीवन का हर दिन मेरे लिये गुरू बन कर आता है. हर शख्स मुझे कुछ न कुछ सिखाता है. नास्तिक लोग मुझ आस्तिक के सबसे बडे गुरुओं में आते हैं. समय मिलने पर मै भिखारियों, कचरा इकट्ठा करने वालों, सडक किनारे दुकान लगा कर बैठने वालो, स्टशन पर कूलीयों, चाय बेचने वालों से भी सीखने की कोशिश करता हूं. अत: मुझे परिपक्व न समझें.
रमेश पटेल: आप अपना प्रवचन चालू रखें, मैं भी जरूर नास्तिकता के दर्शन के बारे में आपको जानकारी देता रहूंगा.
प्यारे भईया, दुनियां के सबसे बडे नास्तिक प्रकाशक (Prometheus Publishing House New York) की किताबें नियमित रूप से पढता हूं. पिछले 20 साल से “भारतीय नास्तिक पुस्तक क्लब” का आजीवन सदस्य हूं जहा से हर महीने एक नई नास्तिकदर्शन की पुस्तक मिल जाती है. 20 साल से 2 भाषाओं में कई हिन्दुस्तानी एवं विदेशी नास्तिक पत्रिकाओं का नियमित ग्राहक हूं. शिशु हूं, अत: सबसे सीखने की कोशिश करता हूं. आपसे भी सीखूंगा. जिस दिन मेरे अंदर का शिशु मर जायगा, जिस दिन मुझे लगेगा कि अब मै परिपक्व हो गया हूं, उस दिन मेरा मानसिक विकास मर जायगा.
समीर लाल: लोग सोचे समझे बिना मेरा विरोध करते हैं -ऐसा क्यूँ सोच रहे हैं आप?? मुझे लगता है तारीफ जरुर बिना सोचे समझे हो सकती है मगर विरोध, आलोचना और आपसे पृथक विचार प्रदर्शीत करने के लिये तो सोचना और समझना दोनों ही पड़ेगा. इतनी सी गुँजाईश है कि जो सोचा या समझा गया वो उस बात से अलग हो जो आप समझाना चाह रहे थे.
समीर जी, हिन्दी चिट्ठाजगत में अधिकतर लोगों को जल्दी से जल्दी टिप्पणी करने की आदत है. फलस्वरूप कई लोग कई बार विषय के मर्म को नहीं समझ पाते एवं गलत विषय पर टिप्पणी कर देते है. इस कारण चर्चा आगे नहीं बढ पाती. मेरा इशारा इस ओर था.
ghughutibasuti: विरोध अधिकतर जान समझकर ही लोग करते हैं । यह सोचना कि वे बिना जाने कर रहे हैं हमारी गल्ती ही नहीं, अपने आप को महान समझने की गल्ती भी है ।
जाल पर जल्दबाजी में कई बार लोग विषय समझे बिना टिप्पणी कर देते हैं. मेरा इशारा उस ओर था.
ghughutibasuti: या फिर यह भी तो हो सकता है कि हम अपने विचार स्पष्ट नहीं कर पाये या फिर जैसा कि अधिकतर होता है दो व्यक्तियों की राय, जीवन दर्शन, अनुभव अलग अलग हैं ।
लेख के प्रारंभ में मै ने लिखा था कि विरोध होने पर मै अपने आप से पूछता हूं: “ऐसे व्यक्ति को अपनी बात मैं कैसे समझा सकता हूं.”
ghughutibasuti: मुझे नहीं लगता ग्यान किसी विशेष उम्र की बपौती है । बहुत बार ५ साल का बच्चा भी हमारी आँखों पर पड़ी पट्टी उतार देता है ।
जैसा मैं ने अपने कनिष्ट भ्राता रमेश पटेल से कहा, मै जीवन भर हरेक से सीखने की कोशिश करता रहा हूं. जिस दिन मेरे अंदर का शिशु मर जायगा, जिस दिन मुझे लगेगा कि अब मै परिपक्व हो गया हूं, उस दिन मेरा मानसिक विकास मर जायगा. अत: मैं आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत हूं.
रचना सिंह: that we have open our post to comment means that we want the other person to write on our post . whether its for the post or against it .
रचना जी, विरोध, वादविवाद, चर्चा, ये सब तो ज्ञान अर्जन के स्वीकृत तरीके हैं. मेरा इशारा इस ओर नहीं था बल्कि विषय के मर्म को जाने बिना विरोध जताने पर है क्योंकि ऐसा करने पर चर्चा आगे नहीं बढ पाती है.
रचना सिंह: virodh is not of what we are writing but our ideology because people have a tendency to associate our words with our thinking .
यहां एक कठिनाई यह है रचना जी कि अकसर हम जो लिखते हैं उसमें हमारा दर्शन एवं आदर्श जाने अनजाने आ ही जाता है. दूसरा सवाल यह है कि जब हर व्यक्ति का एक निश्चित दर्शन एवं आदर्श है तो वह अपनी रचना को इससे हटा कर क्यों रखना चाहता है.
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: विश्लेषण, आलोचना, सहीगलत, निरीक्षण, परीक्षण, सत्य-असत्य, विमर्श, हिन्दी, हिन्दुस्तान, भारत, शास्त्री, शास्त्री-फिलिप, सारथी, वीडियो, मुफ्त-वीडियो, ऑडियो, मुफ्त-आडियो, हिन्दी-पॉडकास्ट, पाडकास्ट, analysis, critique, assessment, evaluation, morality, right-wrong, ethics, hindi, india, free, hindi-video, hindi-audio, hindi-podcast, podcast, Shastri, Shastri-Philip, JC-Philip,
गुरुजी,
हिन्दी में ही आपसे नम्र निवेदन कर रहा हूं.
क्यों आपको लगता है कि आपका विरोध करने वाले बिना सोचे-समझे ऐसा करते हैं? हम तो बिलकुल सोच-समझ कर इश्वर उपासना के विरोध में बात करते हैं.
क्या नास्तिकता अंग्रेजों की बपौती है कि उसको अपनाने के लिये अंग्रेजी पढ़नी पड़ेगी? हमारे अपने देश में चार्वाक हुये थे जिन्होंने बहुत पहले नास्तिकता के बारे में काफी कुछ कहा था. वो अंग्रेजी कितनी जानते थे आप बेहतर बता सकते हैं.
इधर मेरी उम्र जाने बिना आपने शायद मुझे बच्चा भी कह दिया? या आप शायद मेरी मानसिक उम्र की बात कर रहे हैं?
गुरुजी, उम्र तो आपकी भी मुझे नहीं पता, लेकिन चित्रों से, व आपकी वेबसाइट में दी गई आपके बारे में जानकारी से आप परिपक्व ही लगते हैं. 🙂
आप अपना प्रवचन चालू रखें, मैं भी जरूर नास्तिकता के दर्शन के बारे में आपको जानकारी देता रहूंगा.
विरोध अधिकतर जान समझकर ही लोग करते हैं । यह सोचना कि वे बिना जाने कर रहे हैं हमारी गल्ती ही नहीं, अपने आप को महान समझने की गल्ती भी है । या फिर यह भी तो हो सकता है कि हम अपने विचार स्पष्ट नहीं कर पाये या फिर जैसा कि अधिकतर होता है दो व्यक्तियों की राय, जीवन दर्शन, अनुभव अलग अलग हैं ।
मुझे नहीं लगता ग्यान किसी विशेष उम्र की बपौती है । बहुत बार ५ साल का बच्चा भी हमारी आँखों पर पड़ी पट्टी उतार देता है ।
घुघूती बासूती
लोग सोचे समझे बिना मेरा विरोध करते हैं -ऐसा क्यूँ सोच रहे हैं आप??
मुझे लगता है तारीफ जरुर बिना सोचे समझे हो सकती है मगर विरोध, आलोचना और आपसे पृथक विचार प्रदर्शीत करने के लिये तो सोचना और समझना दोनों ही पड़ेगा. इतनी सी गुँजाईश है कि जो सोचा या समझा गया वो उस बात से अलग हो जो आप समझाना चाह रहे थे.
शास्त्री जी,यदि कोई विरोध करता है तो वह अपने वैचारिक दृष्टीकोण के आधार पर करता होगा ।इस से वह व्यक्ति जो सत्य को जानता है और यह भी जानता है कि वह सही है, उस पर किए गए विरोध का कोई असर नही होगा…लेकिन यदि किसी का विरोध हमें विचलित करता है तो निश्चय ही हमे मनन की आवश्यकता होती है…यह मै इस लिए कह रहा हूँ कि मैनें भी इस विरोध का स्वाद चखा है..
जी दुसरों का तो पता नहीं, मैं तो आपकी बातो को बराबर समझता हूँ, ऐसा मुझे लगता है. आपके विचारों का समर्थन व कभी-कभी विरोध पुरे होशोहवास में करता रहा हूँ, करता रहूँगा.
“मुझे लगता है तारीफ जरुर बिना सोचे समझे हो सकती है मगर विरोध, आलोचना और आपसे पृथक विचार प्रदर्शीत करने के लिये तो सोचना और समझना दोनों ही पड़ेगा”
एकदम सौ टके सच्ची बात है
sir
that we have open our post to comment means that we want the other person to write on our post . whether its fo rthe post or against it .
sometimes we amy think we have explained every thing but still the other person feels what ever we are writing is baselss crap.
we have 2 options one we put in comment moderation and delete the comments we feel are redundent second we let ever one comment and keep reading the comments without bothering to snawer the same .
virodh is not of what we are writing but our ideology because peple have a tenency to associate our wors with our thinking .
virodh is not of what we are writing but our ideology because people have a tenency to associate our words with our thinking .
virodh is not of what we are writing but our ideology because people have a tendency to associate our words with our thinking .
@sir
its not alway snecessary that what ever the writer writes he/she believes in it. many novels have been written wherethe writer went to live with the swepeers to write about there life and it was an true to life depiction but it never meant that writer was with the sweeper community for or against their traditions but many critiques did not say any thing about his writing skill but felt that he is trying to be a massiha for the sweeper commnity