शास्त्रीजी आपका आह्वान अधूरा है!

पिछले दिनों मैं ने एक लेख लिखा था: स्त्रियों को बेदर्दी से अनावृत करते नियम जिस पर कई टिप्पणियां मिलीं. इन में से एक टिप्पणीकार ने कुछ ठोसे प्रश्न उठाये है.

शास्त्रीजी, आपने कहा कि “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.” इससे मैं सहमत अवश्य हूँ, पर कुछ और भी कहना चाहता हूँ — आशा है आप इज़ाज़त देगें…

मुझे लगता है की कानून का अध्ययन तो शायद कम ही लोग कर पायें. और कानून बनाना और समझना बेहद तकनीकी कार्य है, इसलिये जब नया संविधान बना तब तकनीकी कारणों से विदेशी प्रभाव भी अवश्य था, परंतु मेरा सवाल यह है की – क्या “विदेशी लुटेरे” हमारी सोचने की क्षमता, या दूसरों का आदर करने की भावना को भी साथ ले गयें हैं?? शास्त्री सर, यदि आपके पास समय हो, और आपको सवाल उचित लगे, तो थोड़ा बताइयेगा की क्या ऐसा हो सकता है, की यह सब शायद केवल इसलिये हो रहा है, की प्रत्येक व्यक्ति (सभी से निवेदन है की वे ध्यान दें — “व्यक्ति”, ना की पुरूष, या औरत) कुछ भी नहीं करना चाहता, जब तक की उसके अपने ऊपर ना बन आये.

InChains
सब — चाहे वो पुरूष (या औरत रहें हैं) जिन्होंने यह फार्म भरवाये — या वे महिलायें जिन्होंने यह फार्म भरे – उन्होंने इसे accept किया, जब तक की किसी की यह “मुसीबत” नहीं बना. क्यों ???? क्यों हम सब ऐसे होते जा रहें हैं की सब कुछ बरदाशत है – बशर्ते की वो हमारे साथ ना हो रहा हो??? या गलत भी है, तो केवल (फार्म भरते समय) कुछ मिनट की असुविधा ही तो है – क्यों इस “बड़े” system के खिलाफ़ आवाज उठायी जाये – गलती सहन करो और आगे “प्रगति” करो .. क्यों ऐसी दौड़ है?? और इस तरह से कौनसी मंज़िल पर “हम” पहुँचेंगे ??

और यही “सहते रहना”, इस system को “बड़ा” बनाता है – वरना तो विदेशी तो कब के चले गये — अब समाज हमारा ही है, मगर क्या हम समाज को अपना मानते हैं??? अगर हाँ, तो फिर क्यों नहीं इसे अच्छा बनाने के लिये कुछ सार्थक कदम लेते – क्यों सह कर “आगे” बढ़ते रहने की दौड़ है, या फिर और भी दुखद और शर्मनाक, की ऐसे बेहुदे “कानुन” के दम पर शतरंज का खेल – इसे बहाना बना कर, किसी को निकालो, किसी को भर्ती करो… क्यों अपनी गलती हम विदेशियों पर, या कानून पर डाल रहें हैं?

आपकी बात अवश्य सही है और उन्मुक्त जी का बेहतरीन लेख (एकान्तता और निष्कर्ष: आज की दुर्गा) भी स्प्ष्ट करता है की संविधान का “अनुच्छेद २१ स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार की बात करता है पर एकान्तता की नहीं।” कानुन में सुधार का कार्य तो निरंतर आवश्क होता है. “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.” कानून में बदलाव बेहद जरूरी है. पर मैं सोचता हूँ की ऐसे तकनीकी इलाज से ज्यादा जरूरी है, छोटे-छोटे कदम, जो हम और आप सब ले सकते हैं

1. आपकी आवाज़ कीमती है – अगर आप को कुछ गलत दिखे, तो उसको गलत अवशय बतायें और शिकायत दर्ज करने का जो भी तरीका समाज के अनुकुल है, सभ्य है – उसे अपनाते हुये शिकायत दर्ज़ करें. चुप ना बैठें.

2. आपका साथ कीमती है – दुर्भाग्यवश आज समाज ऐसा है, की हो सकता है एक व्यक्ति की आवाज़ कमज़ोर पड़ जाये, या वो थक जाये – इसलिये कल बेहतर हो – कल आपके साथ, या आपके किसी जानने वाले के साथ, या किसी के भी साथ वो गलत ना हो, तो इसके लिये यह आवशयक है, की आप साथ दें – इसमें ज्यादा समय नहीं लगता – और जितने लोग साथ आते हैं, उतना कम समय लगता है और “बात” मज़बूत बनती है.

Chains छोटी-छोटी चीज़ें करने से भी बहुत बदलाव सम्भव है – हर चीज़ में सुप्रीम कोर्ट को काम करना पड़ा या हर चीज़ की जिम्मेदारी कानून के अध्ययन पर डाली गई, तो बदलाव आने में बहुत देर लगेगी और कहीं वो “गलती” तब तक आप को भी चोट ना पहुँचा दे. इसी केस को ले लिजीये जिसके कुछ बिंदु आप ने अपने लेख में दिय हैं. यदि किसी ने इसके खिलाफ़ पहले आवाज़ उठायी होती — और दूसरों ने साथ दिया होता — तो मैं मानता हूँ की बहुत पहले ऐसा शर्मनाक फार्म हट गया होता. ना यह गंदा शतरंज का खेल होता, ना किसी को सुप्रीम कोर्ट का किमती वक्त लेना पड़ता, और ना किसी को इतना परेशान हो कर न्याय के लिये भागना पड़ता .. कोई तकनीकी या बहुत बड़ी चीज़ें नहीं हैं यह सब, मगर ना जाने क्यों मेरा मन कहता है की यह छोटी-छोटी चीज़ें बहुत मदद कर सकती हैं.

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Author: Super_Admin

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