कुछ हफ्तों से मैं ग्वालियर (मप्र) में हूं. दशहरेदीवाली पर अपने मित्रों से मिलने एवं भौतिकी में कुछ विषय पढाने आदि के लिये आया हूं. ग्वालियर वीरों, देशभक्तों, एवं शहीदों की भूमि है. स्टेशन से शहर आते समय महारानी लक्ष्मीबाई के शहीद-स्थल से होकर गुजरना पडता है. यहां अन्य कई देशभक्तों से जुडे स्थानों पर भी इस बार जाना हुआ. हर बार यह प्रश्न मेरे मन में आया कि क्या इसी हिन्दुस्तान के लिये वे लडे थे.
1. वे आजादी चाहते थे, लेकिन आज जो हम देखते हैं वह आजादी है या अनियंत्रित स्वार्थ.
2. वे गुलामी से छूटना चाहते थे, लेकिन आज जो हम देखते हैं वह गुलामी से आजादी है या अराजकत्व है.
3. उन्होंने देश से निस्वार्थ प्रेम किया. क्या आज हमारे प्रेम मे यही भावना है या क्या हम देश को लूट रहे हैं.
4. वे कुर्बान होने को तय्यार थे, एवं हो भी गये. क्या हम जीवनदान कर रहे हैं या अन्य जीवों को लूट रहे हैं.
5. उन के लिये संसार एक कुटुंब था. क्या हमारे लिये कम से कम अपना देश एक कुटुम्ब है.
6. उनके लिये दया परम धर्म था. क्या हमारे जीवन में पराये का शोषण परमधर्म नहीं हो गया है.
“हम क्या थे, क्या हो गये एवं क्या होंगे अभी. आओ विचारें आज मिल कर यह समस्याएं सभी” (40 साल पहले सुनी मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तिया याद से लिख रहा हूं. उद्धरण में गलती हो तो टिप्पणी में सुधार दें).
सही कह रहे है आप, हम एक गुलामी से निकल कर दूसरी गुलामी में फ़ंस गये। जंग अभी जारी है, दिल्ली अभी दूर है
उम्मीद पर दुनिया कायम है. लेकिन प्रयास भी जरूरी है.
जो करना है ” हमें” ही करना है, वे देश हमें सौंप गए , हम देश से सरकार से सुविधाएं चाहते है पर बतौर एक नागरिक हम देते क्या है टैक्स ( वह भी रो-धो कर)
सार्थक विचार. सभी को अवश्य चिंतन करना चाहिये इस पर.
शास्त्री जी
नमस्कार
आपने अच्छी चर्चा उठाई। अब जो दासता हमने ओढी है वह मानसिक पूर्वाग्रहों की है। बहुत दिनों से मैं इस विषय पर लिखना चाह रहा था पर रोक रहा था कि खुद को ज्योतिष तक सीमित रखूँ।
अपना स्नेह बनाए रखें
संजय गुलाटी मुसाफिर
आपकी बात सही है.