देशज संगीत एवं वाद्य यंत्र उस देश की आत्मा को प्रदर्शित करते हैं. अत: देशज संगीत एवं वाद्य यंत्रों का लुप्त होना देशीय भाषाओं के लुप्त होने के समान है.
अक्टूबर में ओरछा (झांसी के पास, बुन्देलखंड इलाका) अनुसंधान यात्रा के दौरान दोतीन देशज वाद्य यंत्र दिखे जो अब लुप्तप्राय हैं — खास कर उस नई पीढी के लिये जो गिटार की उल्टीसीधी धुनों पर पर कूल्हे मटकाने को संगीत एवं संगीत का असली आस्वादन समझता है.
जैसे ही हम ओरछा के प्राचीन राजमहल की ओर बढे कि हमें एकतारा लिये एक बाबाजी मिल गये. हमारे अनुरोध पर उन्होंने एकतारे पर तन्मयता के साथ एक बहुत ही मीठा गाना सुनाया. उनकी एक उंगली में आप लोहे की एक रिंग देख सकते हैं. इसे एकतारे पर बजा कर वे तार की मधुर आवाज के साथ साथ बहुत ही अच्छा प्रभाव उत्पन्न कर रहे थे.
भारतीय जनमानस को स्पर्श करने वाले हजारों देशज वाद्य यंत्र हैं, लेकिन कद्रदानों के अभाव में वे लुप्त होते जा रहे हैं. इनको जीवित रखना मेराआपका काम है. हिन्दी जालजगत में इस विषय पर दोचार जालस्थलों या चिट्ठों के द्वारा इस मामले में एक बहुत बडी पहल हो सकती है. (इस चित्र का उपयोग सारथी के जालपते के साथ आप कहीं भी कर सकते हैं. उच्च क्वालिटी के मूल चित्र के लिये आप हमसे संपर्क कर सकते हैं जो तुरंत भेज दिया जायगा)
अत: देशज संगीत एवं वाद्य यंत्रों का लुप्त होना निश्चित रूप से चिंताजनक है !बहुत सुंदर प्रस्तुति, बधाइयां !
ज्योति पर्व की ढेर सारी शुभकामनाएं !
एकतारे की अच्छी याद दिलाई । मेरा ताल्लुक म0प्र0 के उसी बुंदेलखंडी इलाक़े से है । फर्क ये है कि आप झांसी की ओर गये । वहां से म0प्र0 में दमोह सागर जबलपुर वाला बुंदेलखंड है । बचपन में इस इलाक़े में साधु फकीरों को इकतारे पर कुछ गाते गुनगुनाते देखा है ।
जल्दी ही रेडियोवाणी पर आपको सुनवाते हैं ऐसे गीत जिनमें इकतारा सुनाई देता है ।
यदि आपकी रूचि हो तो भिलाई के माननीय रिखी क्षत्रीय से मिले। उन्होने प्राचीन वाद्य यंत्रो का संग्रह कर रखा है। और नित उसे बढा रहे है। मै संजीव तिवारी से अनुरोध करूंगा कि वे इस पर लिखे।
हम अपनी संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं। पर इतनी आसानी से मिली धरोहर की कद्र ही भूल गए। अब तो सारंगी भी केवल राजस्थानी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ही दिखती है।
aisaa hi ek shastriiya vaadh yantr hai VICHITRA VEENA jise aajkal shayad bahut hi kam log jaantey hain
वाकई!! छत्तीसगढ़ के भिलाई मे रिखी क्षत्रिय जी का संग्रह देखने लायक ही नही बल्कि काबिले-तारीफ़ है।
रिखी क्षत्रिय जी के बारे मे आरंभ ब्लॉग वाले संजीव तिवारी जी लिख भी चुके हैं।
शास्त्री सर इस लेख के लिये ध्न्यवाद. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं – “कद्रदानों के अभाव में वे लुप्त होते जा रहे हैं.”
कम कद्र्दान होने की वज़ह से बड़ी कम्पनी या मिडिया शायद उन्हें जगह ना दे – परंतु आपका कहना बिल्कुल सही है – “हिन्दी जालजगत में इस विषय पर दोचार जालस्थलों या चिट्ठों के द्वारा इस मामले में एक बहुत बडी पहल हो सकती है.”
वेब इन देशज यंत्रों के लिये देश-विदेश से नये कद्र्दानों को जोड़ सकता है ..
yunus जी ने जो वादा किया है उसका बहुत स्वागत है.
रेडियोवाणी पर इकतारे की धुन सुनने का इंतेज़ार रहेगा.
शुक्रिया.
मैं जब छोटा था तब अक्सर घर के बाहर एकतारा बेचने वाले को देखता था और जिद करके उन्हें खरीदता भी था.. मैंने उसे 50 पैसों से होते हुये 10 रूपयों में भी बदलते देखा है..
पर आज की महानगरीय संस्कृति में क्या मेरी आने वाली पीढी उसे देख पायेगी? जवाब सभी को पता है, नहीं…