आस्तिक-नास्तिक विवाद लगभग मनुष्य के आदिम इतिहास से चल रहा है. लेकिन इसमें एक मजे की एक बात यह है कि हर पक्ष अपने विपरीत पक्ष को बेवकूफ समझता है. इस संकुचित सोच में एक परिवर्तन जरूरी है.
परिवार के प्रभाव के कारण मैं बचपन में एक आस्तिक था. लेकिन विद्यालयीन जीवन के अंत में मैं लगभग एक नास्तिक बन गया. लेकिन महाविद्यालयीन जीवन में विज्ञान (भौतिकी) के उच्चतर अध्ययन के बाद मैं पुन: आस्तिक बन गया — वह भी घोर आस्तिक. लेकिन इस पेंडुलमनुमा सफर से मुझे कई प्रकार के बौद्धिक लाभ हुए.
सबसे बडा लाभ यह हुआ कि अपने विपरीत सोचने वाले को बेवकूफ समझना बंद कर दिया. वैचारिक मतभेद का अर्थ यह नहीं कि हम अपने विपरीत सोचने वाले को मूर्ख, अपढ, या अज्ञान समझने लगें. इस तरह का ठप्पा लगाना बौद्धिक सोच के विरुद्ध है.
दूसरा फायदा यह हुआ कि घोर आस्तिक होते हुए भी मुझे दुनियां के सर्वश्रेष्ठ नास्तिक प्रकाशन पढने की आदत हो गई. आज भी नियमित रूप से पढता हूं. भारतीय नास्तिक पुस्तक क्लब का तो आजीवन चंदा कई साल से भरा हुआ है एवं साल भर में 5 से 10 नई नास्तिक ग्रंथ हाथ आ जाते है. इन सब के आधार पर मेरा निष्कर्ष नीचे दिया गया है:
क्या नास्तिकों का हर कथन सही है? कदापि नहीं. क्या आस्तिकों के सारे कथन सही हैं? कदापि नहीं. दोनों को एक दूसरे से बहुत कुछ सीखना जरूरी है.
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: विश्लेषण, आलोचना, सहीगलत, निरीक्षण, परीक्षण, सत्य-असत्य, विमर्श, हिन्दी, हिन्दुस्तान, भारत, शास्त्री, शास्त्री-फिलिप, सारथी, वीडियो, मुफ्त-वीडियो, ऑडियो, मुफ्त-आडियो, हिन्दी-पॉडकास्ट, पाडकास्ट, analysis, critique, assessment, evaluation, morality, right-wrong, ethics, hindi, india, free, hindi-video, hindi-audio, hindi-podcast, podcast, Shastri, Shastri-Philip, JC-Philip,
आपके विचार से सहमत हूं, लेकिन क्या आप बताऐंगे कि आस्तिक और नास्तिक में भेद क्या है? मैं तो आज तक समझ नहीं पाया हूं।
आस्तिक-नास्तिक में अन्तर समझने के लिए हर किसी का अपना नज़रिया हो सकता है, कुछ लोग किसी धर्म को न मानने को नास्तिकता समझते हैं। अरे मानवता से बड़ा कोई धर्म है क्या, अगर कोई अपने को नास्तिक बोले तो में उसे भद्र अमानवीय प्राणी ही मानूँगा।
एक बार की बात है एक आस्तिक और नास्तिक मे परमेश्वर के अस्तित्व को लेकर वृहत विवाद हुआ | कई दिनों तक विवाद चलने के बाद भी कोए निष्कर्ष नही निकला और वो अपने घरों को लौट गए | घर जाने के बाद आस्तिक ने अपने सारे धर्म ग्रथ नदी मे बहा दिए और घोर नास्तिक बन गया जबकि जो पहले नास्तिक था घर जा कर परमेश्वर की आराधना मे लीन हो गया और आस्तिक हो गया | इसी विषय पर दीपक भारतदीप का एक ब्लोग पोस्ट पहले भी पढा था आप भी पढ़े http://rajlekh.wordpress.com/2007/10/28/%E0%A4%86%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%AC/
ईश्वर की कृपा है कि दुनियां में बेवकूफ हैं। तभी तो बुद्धिमानों की वैल्यू है!
पता नहीं कुछ मुझे नस्तिक तो कुछ कट्टरपंथी मानते है, पूजा-पाठ करता नहीं, मगर किसी को करने से रोकता नहीं. भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं मगर दुसरों के विश्वास का आदर करता हूँ. कोई बताएगा मैं क्या हूँ?
मैं ऐसा दावा तो नहीं करता कि मैं कुछ दिन पहले घोर आस्तिक था.. पर हां मैं आस्तिक जरूर था.. लेकिन मेरे साथ कुछ घटनाऐं घटी जिसके कारण आज के दिन में मैं नास्तिक जरूर हूं.. मैंने कुछ दिन पहले आपके चिट्ठे पर कमेंट किया था कि “अगर मैं भगवान को मानू तो मुझे उससे नफरत ही होगा और किसी से नफरत करने से तो अच्छा तो यही है कि आप उसके अस्तित्व को ही नकार दें..” और आज भी अपनी इसी बात पर चलता हूं..
वैसे कोई सही-सही पूछे तो अभी मेरे विचार संजय बेंगाणी जी से बहुत मिलते हैं..
सहमत है जी हम आपसे और पूर्ण रूपेण आपकी बातों का समर्थन करतें है.
चाह कर भी निर्णय नहीं ले पाती कि मैं क्या हूँ। समयवादिता के हिसाब से भगवान से दोस्ती और कुट्टी चलती है।
पिछले दिनों एक लिखा था – ईश्वर का अस्तित्त्व
एक नजर डालें – http://sanjaygulatimusafir.blogspot.com/2007/10/blog-post.html
कई बार सत्य टुकडों में आता है ईश्वर के पास से. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है, हमे सत्य का आभास होता जाता है, लेकिन हर बार ये अहसास भी साथ आता है की हमारी पिछली जिंदगी अज्ञान में बीत गई.
शास्त्री जी ,आप भी खूब हैं रह रह कर बौद्धिक चुहल से बाज नही आते .खैर मैं इस बात पर गर्व करता हूँ की मैं हिंदू हूँ और इसलिए
ईशवर के अस्तित्व को मानने के लिए बाध्य नही हूँ .
ब्लॉगर साथियों के विचारों से उन का परिचय मिला इस के लिए आभारी हूं। मगर मेरे इस सवाल का कि ‘आस्तिक और नास्तिक में भेद क्या है?’ उत्तर नहीं मिला। लगता है शास्त्री जी को ही श्रम करना पड़ेगा।
नास्तिक तो कोई होता ही नही है भगवान् पर न सही अपने स्वयम पर तो विस्वास है आस्था है तो बस आस्तिक हुए जय दयाल जी गोयनका जी ने कहा था मूर्ती पूजा के वारे में की =मूर्ती में ही भगवान है की वजाय यह कहा जाय की मूर्ती में भी भगवान् है तो क्या हर्ज़ है फ़िर क्या नास्तिक और काफिर की परिभाषा एक ही होगी में हनुमान में विस्वास करता हू तो क्या में शिवभक्त को नास्तिक कहूँगा -भगवान् में विस्वास था उनसे कुछ माँगा उपवास किया पूजन की काम नही हुआ तो नास्तिक हो गए अस्तिक्त्सा नास्तिकता क्या व्यापार है और फ़िर किसी में भी आस्था नहीं है स्वयम में भी नही पत्नी बच्चों में भी नहीं तो फ़िर अपने आप को नास्तिक कहो या जो चाहे वो कहो
जो सही मायनो में नास्तिक है उसका कोई धर्म नहीं होता, कोई जात नहीं होती, कोई पंथ कोई संप्रदाय नहीं होता ।
ishwar hai ke nahi ye me nahi janta
lekin har dharm me mujhe kuch achchaiya aur kuch buraiya dikhti hai sabse badi burai darr darr insan ka sabse bada dushman hai.kher ishwar ke baare me jaanna aasan nahi hai.