जैसे ही प्राचीन भारतीय विज्ञान एवं तकनीक की बात की जाती है, वैसे ही कुछ काले-फिरंगियों को बडी तकलीफ होती है. उनके हिसाब से तो हिन्दुस्तान महज एक गवारों का देश है. उनके अनुसार तो सिर्फ अपने कुत्ते को अंग्रेजी में आदेश देते सूटबूट पहने साहब, और अधनंगी मेमें, ही एक परिष्कृत समाज की निशानी है. भारत की प्राचीन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक धरोहर की बात करते ही इनके काले (या भूरे) चेहरे ऐसे तमतमा जाते हैं जैसे कि उनको कोई भद्दी गाली दी जा रही हो. ऐसे ही लोगों नें आजादी के बाद हिन्दुस्तान का बेडा गर्क किया है.
भारतीय विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान के उदाहरण के लिये दिल्ली के लौहस्तम्भ का उदाहरण ले लीजिये. आज से 1600 साल पहले चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के जमाने का यह लोहे का खम्बा तब से हर दिन की धूप एवं हर मौसम का बरसात झेलता आया है. लेकिन अभी भी इसमें जंग नहीं लगा है. यदि इसका रहस्य ज्ञात हो जाये तो इसके निर्माण द्वार आज भारत सारी दुनियां को खरीद ले. लेकिन देशज ज्ञान के लुप्त होते होते यह ज्ञान भी लुप्त हो चुका है.
इस पर खुदाई करके जो लिखा गया है वह भी अभी तक सुरक्षित है जबकि आजकल (सैकडों सालों के अनुसंधान के बाद) जो इस्पात बनाया जाता है उस पर ऐसी खुदाई की जाये तो वह शायद 50 साल का पानी/धूप सहन करते ही मिट जायगा.
समूचे भारत में इस तरह के स्थापत्य कला, वास्तुशिल्प, वैज्ञानिक अजूबे (जैसे कोणार्क का हवा में तैरता चक्र जिसे विदेशियों ने नष्ट कर दिया) भरे पडे हैं. इनको ढूढने, पहचानने, चित्रीकरण करने का काम कोई भी सरकार अपने बूते पर नहीं कर सकती. उम्मीद है कि सारथी के कुछ पाठक कम से कम अपने इलाके के लिये ऐसा काम करेंगे. मेरे निर्माणाधीन चिट्ठे ग्वालियर किला एवं ओरछा इसके उदाहरण हैं. काम चालू कीजिये, हम प्रोत्साहन देंगे.
प्राचीन पर गर्व करने को भी बहुत कुछ है और जीर्ण पत्तोँ को त्याग कर नवीन करने को भी बहुत कुछ है।
चैलेंजिंग युग है यह!
हमारे पूर्वज एक गलती करते रहे कि इस विज्ञान को सहेजने का कोई प्रयास नहीं किया। उस की सजा भारतीय सदैव भुगतते रहेंगे। मुझे गणित के सूत्र निर्माण करने की पद्धति याद रह जाती है पर सूत्र याद नहीं रहता। हर बार उसे निर्मित करना पड़ता है। हम यह गलती कम से कम अब तो न करें।
पुनश्च: आप ने लौह स्तम्भ का जो चित्र दिया है। उस के आस पास लगी रेलिंग पर कितनी बार मोरचा लगा और उसे बदला गया इस की सांख्यिकी मिले तो अच्छी जानकारी होगी। काश.. हम एक रेलिंग ऐसी भी बना पाते जिस पर इस लौह स्तम्भ की तरह मोरचा न लगता।
आप से सहमत हूँ.
लेकिन सिर्फ़ एक बात कहना चाहता हूँ कि हिन्दी कि विकास और अधिकाधिक उपयोग के लिए किसी इंग्लिश बोलने वाले को या अंग्रेजो को बार-बार खरी खोटी सुनना क्या ठीक है?
लेकिन देशज ज्ञान के लुप्त होते होते यह ज्ञान भी लुप्त हो चुका है.
sahi kaha aapne
आप से सहमत हूँ.संकुचित विचार धाराओं वाले लोगों नें आजादी के बाद हिन्दुस्तान का बेडा गर्क किया है.नि:संदेह प्राचीन पर गर्व करने के लिए बहुत कुच्छ है , जरूरत है उसे सहेजने की .
दुरुस्त बात् !
बहुत ही बढिया और ज्ञानवर्धक लेख…..
पुराने को लेकर पछ्ताने से कुछ नहीं होगा..
बीती ताहीं बिसार के आगे की सोचनी होगी
भारत मे ऐसा बहुत कुछ है, जिस पर हम गर्व कर सकते है. अभी अभी मै अरिदंम चौधरी की Count Your Chickens Before They Hatch किताब पढ रहा था, आखिरी अध्याय Sleepy Cows to Galloping Horses मे भी कुछ ऐसा ही उल्लेख था. साम,धाम, दंड, भेद ये हम भारतीयों के किताब मे बहुत पहले लिखा जा चुका है, और आज उसका प्रयोग कॉरपरेट जगत कर रहा है, और हम अब तक अंग्रेजी किताबों से ही मैनेजमेंट सिखने की कोशीश कर रहे हैं, जबकी भारत मे सबकुछ पहले लिखा जा चुका है, बस उसको समझ प्रयोग करने की जरुरत है.