विषय आधारित एग्रीगेटर्स एक बहुत ही मौलिक विचार है. मुझे लगता है कि हिंदी ब्लॉग्स अंतत: विषयाधारित होकर ही सर्वाइव कर पाएंगे. चिट्ठाकारी अब सिर्फ शब्द भंजन नहीं है और इसमें गंभीरता के साथ विशेषज्ञता का दौर अब शुरू हो चुका है. (संजय करीर)
चित्र: बीनवाला जो बीन बजा कर शहर के सारे बच्चों को खीच ले गया था (नैतिक कहानी)
अभी भी बहुत लोगों को यह गलतफहमी है कि यदि वे चाहे कुछ भी लिखते रहें तो भी उनको पाठक मिलेंगे. उनका कहना है कि विषयाधारित चिट्ठों की जरूरत तो कल होगी अत: आज तो हमें मनमानी कर लेने दो. इस नजरिये का एक और दोष मैं आपको बताना चाहता हूँ.
लोग कहते हैं कि उडनखोटोला एवं ज्ञान जी का चिट्ठा विषयाधारित नहीं है लेकिन उनको पाठक मिलते हैं. मैं ने याद दिलाया था कि इन दोनों को अपने व्यक्तित्व के आकर्षण के कारण पाठक मिलते हैं, लेकिन हर चिट्ठाकार के पास ऐसा व्यक्तित्व नहीं होता. मेरे पास नहीं है. इसी कारण मैं ने ‘सारथी’ को धीरे धीरे विषय-केंद्रित कर दिया है. लगभग सारे ही लेख सफल चिट्ठाकारी, चिट्ठाकार प्रोत्साहन, एवं भारतीय संस्कृति के वकालात पर केंद्रित होते हैं. सारथी विषयाधारित नहीं है लेकिन विषयकेंन्द्रित है — ऐसे विषय (सफल चिट्ठाकारी आदि) जिन में बहुत लोगों की रुचि है.
आम चिट्ठाकार जिनके मिलेजुले चिट्ठों पर 30 से अधिक पाठक प्रति दिन मिलते हैं उनको पाठक मिलने का मुख्य कारण है टिप्पणियां. वे खुद जम कर टिप्पणियां करते हैं, एवं उसके एवज में लगभग उतने ही पाठक एवं टिप्पणियां मिल जाती हैं. इसमें कोई बडी बात नहीं है. इतना ही नहीं, तुम मुझे उठाओ, मैं तुमको उठाऊगा कि नीति की एक सीमा होती है. उससे अधिक पाठक वह आपको नहीं देगा. हां यदि आपको यह गलतफहमी है कि आप महान लेखक हैं या कवि, जिसके खिचडीनुमा बीन के पीछे सारी दुनियां दीवानी है तो एक महीने के लिये एक भी टिप्पणी न करें. फिर देखें कि आपको औसत कितने पाठक प्रति दिन मिलते हैं.
यह दुनियां का नियम है कि बिन लाभ कोई कुछ नहीं करता. यदि आपका चिट्ठा पाठकों के काम के लेख नहीं देता, तो कल वे नहीं आयेंगे. किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह निष्काम भावना से रोज दो घंटे का समय एवं जाल का पैसा ऐसे चिट्ठों को पढने के लिये दान कर दे जिन से उसे कुछ मिलना तय नहीं है.
कुछ एसे ब्लॉगर भी हैं शास्त्री जी जो आप को नियमित पढ़ रहे हैं और याद भी रखते हैं !!!!
नमस्कार शास्त्री जी..
आज बहुत दिनो के बाद आपके चिट्ठे पर कमेंट लिखने बैठा हूं.. आपके इस पोस्ट से मैं कुछ मायनो में सहमत भी हूं तो कुछ मामलों में असहमत भी हूं..
जैसे आपने कहा की टिप्पणी ना करके देखें और फिर देखे की आपको कितने पाठक और टिप्पनीयां मिलती है.. तो इसके जवाब में मैं बस यही कहूंगा कि कल मैंने एक चिट्ठा पोस्ट किया था और उसपर जिन लोगों ने टिप्पणीयां लिखी हैं उनके ब्लौग पर मैं यदा-कदा ही जाता हूं.. और जाता भी हूं तो बिना टिप्पणी के ही लौट आता हूं.. ये बस समयाभाव के कारण होता है.. और मुझे किसी एक पोस्ट से एक दिन में सबसे ज्यादा हिट्स कल वाले पोस्ट से ही मिली है..
और मैं आपके जिन बातों से सहमत हूं वो मेरे कल के पोस्ट के शीर्षक में आपको दिख जायेगा.. ये मैंने आपसे ही सीखा है कि शीर्षक हमेशा रोचक होना चाहिये.. 🙂
और हां शास्त्री जी, आपके साईट पर आज का दिनांक 9 दिसम्बर दर्शा रहा है.. कृपया उसे ठीक कर लें..
शास्त्री जी, गाहे बगाहे मैं आपसे असहमति जताने आ ही जाता हूँ. क्या करूं.. टिपण्णी के बदले में टिपण्णी की आपकी बात पर कुछ हद तक तो सहमत हूँ लेकिन पूरी तरह नहीं. मेरे अपने चिट्ठे को ही ले लूँ, तो उसमे वैसे टिप्पणियां उड़नतश्तरी के जितनी नहीं होती हैं, लेकिन फीड बर्नर के आंकडे कुछ और ही कहते हैं. वैसे भी मुझे पढने वाले ज्यादातर लोग बजाय टिप्पणी की औपचारिकता करने के मुझे मेल लिखते हैं और चर्चा के माध्यम से बात को आगे बढाते हैं. किसी को दिखाना अक्सर उनकी प्राथमिकताओं में नहीं होता. शायद इसी वजह से जो भी सीमित पाठक मेरे पास हैं, उनसे मेरे व्यक्तिगत स्तर पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं.
प्रशांत जी की ही तरह से कई लोग ऐसे भी हैं जिनके लेखक मेरे लेखों को ध्यान से पढ़कर टिप्पणी करते हैं लेकिन अफ़सोस की उनके चिट्ठे इतने ज्यादा तकनीकी और अत्यधिक विषयाधारित होने की वजह से मेरी समझ के बाहर होते हैं. इसलिए मैं कभी भी उनको टिप्पणिया नहीं दे पाता. उदाहरण: पंकज अवधिया जी.
जब जब कोई कम किसी को प्रेरणा देने के लिए किया जाता है तो अक्सर आदमी अपनी स्वाभाविकता खो देता है. मेरा मानना है की ९९.९९% (आपको शामिल करने का दुस्साहस कदापि नहीं) चिट्ठाकार आपके जैसे समर्पित नहीं हैं और ना ही ऐसी आंदोलित कर देने वाली विचारधारा के हैं. वो सभी सामान्य व्यक्ति हैं जिनका परिवार भी है, कामकाज भी है, नौकरी भी है और अन्य जिम्मेदारियाँ भी.. काफी मुश्किल दिखता है कि कोई ऐसे में हिन्दी को अपना सर्वस्व समर्पित ना कर पाने के अवसाद से ग्रस्त ना हो (आपके अधिसंख्य लेखो के मुताबिक). सिर्फ़ लिखने के लिए लिखे गए दस लाख हिन्दी चिट्ठो का आपका महात्वाकांक्षी स्वप्न कब पूरा होगा इस बारे में तो कहना मुश्किल है लेकिन मुझे ये संदेह अवश्य है की उनका भाषा की समर्धि में कितना योगदान होगा.
भाषा वो ही है जो न किसी के रोकने से रूकती है न किसी के बदलने से बदलती है. इसे बदलने और आकार लेने में सदियाँ और सहस्राब्दियाँ लगती हैं. भाषा वो है जो एक बिना पढ़ा लिखा आदमी भी सहजता से प्रयोग करता है अपनी बात कहने के लिए, अपनी जरूरतों को प्रकट करने के लिए. जैसे आपने अपना एक स्वप्न दिया है वैसे ही मेरा भी एक स्वप्न है मेरी मात्र्भाषा को लेकर..
कभी वो दिन भी आएगा जब इस देश का प्रधानमंत्री भी वही भाषा बोलेगा जो उनको चुनाव में वोट देकर जिताने वाला एक अनपढ़ गरीब. जिस भाषा में वैज्ञानिक आपस में जिरह करेंगे उसी भाषा में रेसलिंग के योद्धा आपस में गलियां देंगे. फ़िल्म और कला के लोग जिस भाषा में काम करेंगे उसी भाषा में बोलकर अपना साक्षात्कार भी देंगे. छात्र सिर्फ़ पढने के लिए एक से अधिक भाषा नहीं पढेंगे, नौकरी किसी की तकनीकी दक्षता से मिलेगी न कि भाषा पर दक्षता से. कानून के फैसले और डाक्टर के पर्चे उसी भाषा में लिखे जायेंगे जिसमे लिखा जाता हो हर सुबह का अखबार. सड़क किनारे लगे बोर्ड सिर्फ़ एक ही भाषा में होंगे, सरकारी फार्म्स एक ही भाषा में भरे जायेंगे, और भाषा के आधार पर अलगाव वाद, और गुट बाजी ख़त्म हो जायेगी. फ़िर चाहे वो भाषा हिन्दी हो या अंग्रेजी या फ़िर कोई और…
पोथी में लिखा हुआ ज्ञान न कभी काम आया है और न आएगा. मैंने तमाम लोग देखे हैं जो नितांत ग्यानी होते हैं और अपने जीवन भर के अध्ययन अध्यापन के आधार पर चाहे तो किसी भी समाज की दिशा को निर्धारित कर सकें लेकिन अपने पास अपार ज्ञान के होते हुए भी ऐसे लोग एक अज्ञात अवसाद से ग्रस्त होते हुए दिखते हैं कि वो कुछ नहीं कर सके. “भाषा साहित्य” को उदाहरण के तौर पर लेकर अगर बात करें तो हो सकता है की ऐसे लोग दस बीस किताबें और ग्रन्थ भी लिख गए हो लेकिन न तो जन सामान्य में से न तो कोई उनको पढ़ना चाहता है और न ही ऐसे लोगों के बारे में बात करना चाहता है. अपने अथक परिश्रम के बाद भी जीवन भर अवसाद ग्रस्त रहने वाले लोगों के बारे में मुझे हमेशा ही यही लगता है कि क्या ना अच्छा होता की इतना सब करने के बजाय वो सिर्फ़ एक बात कहते कि -“मैंने अपने आप को एक अच्छा इन्सान बनाया है और मुझे गर्व है की मैं अपने बच्चो को भी ऐसे संस्कार दे सकूँगा”. मुझे लगता है की ये वाक्य समाज के लिए ज्यादा उपयोगी है बजाय किसी समाज सुधारक के लंबे से भाषण के या किसी भाषा विज्ञानी द्वारा लिखी गई पोथियों के.
अगर मेरा स्वप्न आपका स्वप्न नहीं है तो इसे मेरा अज्ञान समझ कर क्षमा करें.
शास्त्री जी,मै आपकी बात से सहमत हूँ…लेकिन आम चिट्ठाकार
इतना योग्य नही होता कि वह किसी एक विषय से संबधित विषय को लेकर लिख सके।ऐसे मे उसे क्या करना चाहिए? इस बारे में भी बताए।