यह क्या हो सकता है?

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दिखने में तो यह रेलगाडी की पटरी लगती है, लेकिन यह है क्या. खिलौना रेल तो नहीं? इस बार ग्वालियर के आसपास एतिहासिक छायाचित्र खीचते समय मेरे सहायक उपाचार्य जिजो को तो यकीन नहीं हुआ कि यह सच है.

जी हां किसी जमाने में रेलगाडियां "नेरो गेज" पटरियों पर चला करती थीं. यह उसका जीताजागता अवशेष है. रेल विभाग इन गाडियों को काफी नुक्सान सह कर चला रहा है, लेकिन ग्वालियर के आसपास का राजनीतिक माहौल ऐसा है कि इसे बंद करने की हिम्मत किसी में नहीं है.

कुछ मजेदार बातें: अनुमान है कि अधिकतर यात्री टिकट नहीं खरीदते हैं. अति पुरातन पटरियों एवं रेल की हालत इतनी खस्ता है कि इसका वेग अधिकतर एक तेज सायकिल की रफ्तार से अधिक नहीं होती है. अत: लोग इस पर मनमाने तरीके से चढ उतरते हैं. त्यौहार के समय जितने लोग अंदर होते हैं, उतने ही लोग छत पर भी यात्रा करते हैं. सुरंग/नीचे पुल के आने पर गाडी रोक कर उन्हें उतारा जाता है, एवं सुरंग के बाद बैठा लिया जाता है.

कुछ साल पहले एक ड्राईवर ऐसा गुस्सा हुआ कि उसने सुरंग पर गाडी नहीं रोकी. बाकी कहानी का अनुमान आप लगा सकते हैं.

आज का यह लेख एक दिनेशराय द्विवेदी जी को समर्पित है, क्योंकि जिस समस्या
ने मुझे लेखन से कुछ दिन दूर रखा था उसे आज उन्होंने हल कर दिया.
स्नेही हिन्दीचिट्ठापरिवार के लिये मैं ईश्वर का अभारी हूं!!

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Author: Super_Admin

14 thoughts on “यह क्या हो सकता है?

  1. बहुत दिनों बाद आप का लेख देख कर बहुत खुशी हुई , शास्त्री जी। इन दिनों बहुत बार सोचा कि शायद आप कहीं फिर से भ्रमण पर निकल गये होंगे (कुछ समय पहले ही आप ग्वालियर आदि के टूर पर गये हुये थे)…खैर, बहुत अच्छा लगा। और आप के साथ हम भी दिनेशराय द्विवेदी जी के आभारी हैं जिन्होंने ऐसी किसी समस्या का हल किया जो आप के लेखन में वापिस आने में बाधक थी। ….Indeed Dwivediji is a noble soul..May God bless him always !

  2. आपने स्‍वयं ही बता दिया शास्‍त्री जी. यह नैरोगेज ट्रेन का ट्रै‍क ही है. लेकिन आज भी कुछ जगहों पर यह चल रही है.

  3. ग्वालियर-श्योपुरकलां के इस नैरिगेज लिंक को हम बन्द तो शायद न कर पायें। इसलिये इसमें सुधार की एक योजना बनाई गयी थी।

  4. नेरोगेज पर/मीटर गेज की ट्रेनों में तो हम भी ट्रेवल कर चुके हैं..अच्छा लगा पढ़कर एवं आपको देखकर.

  5. आप कभी कभी आवश्यकता से अधिक मान दे देते हैं।
    इस रेलगाड़ी में सफर कर चुका हूँ, बरसों पहले। इसे बने रहने देना चाहिए। विगत काल की स्मृति के रुप में पर पूरे संरक्षण के साथ।

  6. बचपन में सितामढी और दरभंगा के बीच मैं इसी छोटी लाईन पर कई बार यात्रा कर चुका हूं.. तब वो यात्रा आमूमन 3-4घंटे तक कि होती थी.. खिड़की से झंकने पर कोयला आंखों में घुसता था.. तब शायद 6-7 साल का रहा होउंगा.. अब सुनता हूं कि वो दूरी बस 1 घंटे में पूरी होती है..

    बचपन कि याद दिला दी आपने.. 🙂

  7. आज भी यह रेल ग्वालियर से श्योपुर के बीच चलती है। विदेशी लोग इसको बड़े कौतूहल से देखते है। पिछले दिनो ग्वालियर जाना हुआ तो स्टेशन (प्लेटफार्म नम्बर ४ के पास) इससे मुलाकात हो गयी। अभी भी उसी ढर्रे पर चल रही है, अलबत्ता भीड़ कुछ ज्यादा ही नजर आयी।

    बरसों से इस पर(छत पर भी और अंदर भी) नही बैठे।

  8. छोटी लाईन की ट्रेनें जहां कहीं भी चल रही है ऐसी ही चलती है, हौले-हौले, छतों पर लोग बैठे, ड्राईवर उतरकर क्रासिंग का गेट बंद करता है गाड़ी आगे बढ़ती है, फिर रुकती है और ड्राईवर अबके उतर कर क्रासिंग गेट खोलता है फ़िर गाड़ी को आगे ले जाता है…… रायपुर धमतरी छोटी लाईन, शहर के बीच से गुजरती है तो अक्सर देखना होता है !!

  9. अजी इसकी असल विशेषताएं तो आपको मालूम ही नहीं…

    जब भी किसी यात्री को लघुशंका सताये तो तुरंत उतरकर और निवृत होकर पुन: ट्रेन पकड़ सकता है.

    यदि टिकट नहीं लिया है तो कोई समस्‍या नहीं है.

    जरूरी नहीं है ट्रेन को स्‍टेशन से ही पकड़ा जाये, इसे कहीं से भी पकड़ा जा सकता है.
    ग्‍वालियर शहर में जब यह ट्रेन प्रवेश करती है तो लड़के अक्‍सर कहीं जाने के लिए इस पर चढ़ लेते हैं.

    त्‍यौहार के समय ही नहीं हमेशा जितने लोग अंदर होते हैं उससे ज्‍यादा ऊपर होते हैं.

  10. बहुत दिनों बाद आपको देखा लेकिन बहुत रोचक जानकारी के साथ. अपने ही देश के बारे में इतना कुछ नया जानने को मिलता है कि हैरान रह जाते हैं.

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