मुझे तब से किताबों का नशा रहा है जब से अक्षरज्ञान हुआ है. लेकिन उन दिनों (1950 आदि एवं 1960 आदि) में औसत परिवार की आय में पुस्तकें खरीदना टेढी खीर थी. पराग एवं नंदन 40 पैसे के आसपास बिकते थे, वेताल एवं मेंड्रेक 50 पैसे के आसपास बिकता था.
जिस समाज में टमाटर 5 पैसे किलो बिकता था, एवं जहां पेट्रोल 1 रुपया लिटर आता था, एवं जहां युद्द के कारण नौकरी से लेकर भोजन तक हर चीज की कमी थी, वहां इन पत्रिकाओं को खरीदने के नाम पर परिवार के बढे बूढे बिदक जाते थे. लेकिन इन सब के बावजूद बचपन में ही वेताल एवं मेंड्रेक (टार्जन, गार्थ, और अन्य कई हीरो) मेरे जीवन के अभिन्न हिस्से बन बन गये. किसी न किसी दोस्त से लेकर पढ ही लेते थे.
कालेज पहुंचा तो कुछ ऐसे मित्र मिल गये जिन्हों ने कई सालों के इंद्रजाल कामिक्स (वेताल, मेंड्रेक, बहादुर, डेल) जिल्द बंधवा कर रखा था. ईश्वर भला करे उनका, जी भरकर पढने का अवसर मिला. इस तरह इन हीरो लोगों से मेरा भावनात्मक संबंध और भी अधिक सुदृढ हो गया.
मरे परिवार में जब अगली पीढी (बेटा एवं बेटी) का पदार्पण हुआ तो मेरी कोशिश रही कि इन नायकों से उनका उतना ही परिचय हो जितना वास्तविक नायकों से मैं ने उनका परिचय करवाया. जितने कामिक मिल सकते थे सब पढने के बाद भी जब बच्चों की इच्छा समाप्त नहीं हुई तो मैं ने अपनी तरफ से बना कर वेताल एवं मेंड्रेक की कहानियां सुनाना चालू कर दिया. यह क्रम तब तक चला जब तक बडा बच्चा घर छोड कर मेडिकल कालेज न चला गया.
ऐसा करने के पीछे एक सोची समझी मनोवैज्ञानिक रणनीति थी, जो मैं अगले लेख में स्पष्ट करूंगा. हां, वेताल एवं मेंड्रेक आज भी हमारे परिवार में जीवित हैं.
एक नशा सा होता था इन कॉमिक्स का. हमें लगभग छः सात वर्ष की उम्र में ही इनका चस्का लग गया था. बड़े भइया (हमसे पाँच साल बड़े) के कुछ मित्रों के पास अच्छा कलेक्शन था. जब भी उनसे मिलने आते थे हमारे लिए आठ-दस इन्द्रजाल कॉमिक्स (भारत में वेताल, मेनड्रेक आदि के प्रकाशक) लेते आते थे. कीमत एक रूपया होती थी तब. डेढ़ रूपये की खरीदने की तो हमें भी याद है. अभी भी कोई सौ के करीब इन्द्रजाल कॉमिक्स सहेज कर रखी हैं. कभी कभार पन्ने पलट लेते हैं.
अच्छी लगी पोस्ट.
पता नहीं इन घर के व्यस्क सदस्यों को कॉमिक्स के खर्चों से क्या दुश्मनी रहती है? हमारे समय में खरीदने में आनाकानी की जाती थी,उस समय यह धारणा थी की कॉमिक्स बच्चों को बिगाड़ देतीं हैं, और आज ये इस बात पर रोते हैं की आज बच्चे कॉमिक्स तो क्या कुछ भी नहीं पढ़ रहे, सिर्फ़ टीवी देख-देख कर अपना भेजा सड़ा रहे हैं.
वेताल मुझे भी बहुत पसन्द था, आज भी मौका मिलता है तो पढ़ लेता हूँ. तब जैसे तैसे जुगाड़ कर पढ़ना पड़ता था. मगर उसका मजा आज भी कहीं अंकित है.
मुझे लगता है भारत में वेताल कुछ ज्यादा ही पसन्द किया गया 🙂
मैंने भी बचपन में मैन्द्रेक और फैंटम को जम कर पढ़ा है -ली फाक की ये दोनों ही अमर रचनाएं हैं .मुझे मैन्द्रेक ज्यादा पसंद रहा ,ख़ास तौर पर उसका जादू और ध्यान लगा कर कहीं भी पहुँच जाना .वह ध्यान करके अपने गुरु से सम्पर्क करता था .उसका एक भाई भी था वह जादू की विद्या के दुरूपयोग के कारण खलनायक बन गयाथा .
बहुत पढ़ी ये कामिक्स तब. घर के नजदीक ही दुकान वाले लायब्रेरी चलाते थे, उनसे ही लाया करते थे.
खूब पढ़े हैं। ये सभी। मुझे तो मेरी मांग पर चिट्ठाकार प्रशांत पीडी ने वेताल का एक काँमिक मेल भी किया और मैं ने पढ़ा भी।
इन कॉमिक्स ने ही हमारे लिए एक नई दुनिया का निर्माण किया था। जिसे बनाने का सपना अभी तक भी संजोए हुए हैं।
इन दोनों कॉमिक्स में तो रुचि नहीं थी, परन्तु पराग, नंदन,चन्दामामा, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि सदा घर में आते थे। ६७ या ६८ में घरेलू लाइब्रेरी योजना में ६ रुपये प्रति माह में ७ पुस्तकें या ७ रुपये में ६ पुस्तकें वी पी पी से घर आ जाती थीं।
घुघूती बासूती
अरे सर क्या बात याद दिला दी है.
इन सब्लो हमने भी बहुत-बहुत पढ़ है.
कोर्स की तरह कुछ भी छूटना नहीं चाहिए था,
और घर मी ही एक लाइब्रेरी बना ली थी.
समय के थपेडों मे सब पीछे छुट गया.