कक्षा का वातावरण अचानक ऐसे शांत हो गया कि विद्यार्थीयों को अक्षरश: एक दूसरे के सांस लेने की आवाज तक सुनाई देने लगी थी!!
बीए प्रथम वर्ष के इस कक्षा के विद्यार्थी कई शूरवीर अध्यापकों के छक्के छुडा चुके थे, लेकिन विजय सर अब उस झुंड पर भारी पडने लगे थे. अभी पिछले ही हफ्ते तो उनकी नियुक्ति हुई थी, लेकिन उन छटे बदमाशों के सारे हथकंडे एक एक करके उन्होंने ऐसे निष्फल कर दिये थे जैसे किसी विस्फोट विशेषज्ञ ने अनफटे बमों के फ्यूज निकाल दिये हों. आज फिर दोनों पक्षों के लिये परीक्षा की घडी थी.
जब सारे विध्यार्थी बैठ गये तो विजय सर बोले, “मुझे पूरी उम्मीद है कि सब के सब अपने मौखिक टेस्ट के लिये तय्यार होकर आये हैं. सवाल यह है कि आज मेरे पहले प्रश्न का जवाब कौन देगा”. उनकी तेज नजरें विद्यार्थीयों पर फिसलते फिसलते अचानक एक जगह रुक गई.
“अविनाश! अच्छा अविनाश, यह बताओ कि चम्बल की डाकू समस्या के उन्मूलन के लिये अभी तक क्या क्या और कितने गैरसरकारी प्रयत्न हो चुके हैं?”
“यह बात आप मुझसे नहीं बल्कि उन डाकुओं से पूछें तो बेहतर होगा श्रीमान” अविनाश ने छूटती गोली के समान जवाब दिया. कोई भी अध्यापक अविनाश से पंगा नहीं लेता था, अत: सारी कक्षा किसी भावी अनहोनी की कल्पना से सिहर गई.
“डाकुओं से तो मौका आने पर पूछ ही लेंगे वत्स, पर अभी तो तुम्हारी बारी है. अच्छा तो अब जरा अपनी जगह पर खडे तो हो जाओ. बैठ कर अध्यापकों को जवाब देना अच्छी बात नहीं है. और हां, आंखों में ये चुनौती के भाव भी अच्छा नहीं है” सर ने जवाब दिया.
अविनाश एक फुंफकार के साथ खडा हो गया. “सर आज तक किसी अध्यापक ने मुझ से इस तरह बात नहीं की है” वह बोला.
“मुझे इस बात का बेहद अफसोस है अविनाश कि मेरे साथी अध्यापक नपुंसक बने रहना पसंद करते हैं. लेकिन तुम्हारी भलाई के लिये जो बात उचित है वह मुझे कहना ही पडेगा. मुझे यदि इससे अधिक कुछ करना होगा तो मैं उसे करने से भी नहीं हिचकूंगा” विजय सर की आवाज गूँजी और कक्षा का सन्नाटा और भी गहरा गया.
सांप और नेवले ने कुछ क्षण तक मन ही मन एक दूसरे को तौला. डर के मारे अधिकतर विद्यार्थीयों ने तो सांस लेना भी लगभग बंद कर दिया था. वे एक दूसरे के धडकते दिलों की आवाज स्पष्टतया सुन सकते थे. अचानक एक चुनौती भरी नजर के साथ अविनाश अपनी जगह से से उछला और कक्षा के बाहर निकल गया. विजय अपनी कुर्सी पर निढाल होकर गिर गये.
उस शाम स्टाफ-रूम में सब दबी आवाज से विजय के धृष्टता की एवं भावी आशंकाओं की चर्चा कर रहे थे. चाय के समय जब प्रिन्सिपल साहब अचानक पधारे तो हर कोई सहम गया. यह स्पष्ट था कि वे विजय को डांटने के लिये आये थे. पंगा एक आदमी ने लिया था, पर अब मौत की तलवार हरेक अध्यापक के सर पर लटक रही थी. [क्रमश:]
[कल टिप्पणी में दिनेश जी ने निम्न आदेश दिया: कल आप ने बताया था “कहानीकार न होते हुए भी क्यों नई नई कहानियां ईजाद करने के लिये इतनी मेहनत करता था.” जरा वे कहानियाँ चिट्ठा पाठकों तक भी पहुँचा दीजिए।
मैं अपने द्वारा रचित लगभग सारी कहानियां भूल चुका हूँ. लेकिन देवयोग से अरविंद जी के आदेश के 12 घंटे बाद लगभग 20 साल पुरानी यह पांडूलिपि अचानक मेरे समक्ष प्रत्यक्ष हो गई जब मैं साफसफाई कर रहा था. ज्येष्ठ अभिभाषकों से कागजपत्तर भी डर जाते हैं!!!
मेरे अपने पेशे की पृष्ठभूमि, एवं मेरे द्वारा देखी गई समस्याओं पर आधारित यह कहानी दो या तीन हिस्से में पूरी होगी]
आगे पढ़ना रोचक होगा। कोई नया अन्गुलिमाल आ रहा है?!
आप को आदेश देने का मुझे अधिकार नहीं। मेरा निवेदन स्वीकार करने के लिए आभारी हूँ। पर उस का लाभ यह कि धूल का गुबार छंटा तो सूरज दिखाई देने लगा है।
हम भी इस से आगे का किस्सा सुनने को आतुर हैं। मुझे भी याद आ रहा है कि जब मैंने मैडीकल कालेज रोहतक में आज से 22 साल पहले टीचिंग शुरू की थी तो एक छात्र के बारे में मुझे बहुत से लोगों ने चेता दिया था कि इस की कभी भी गैरहाज़री नहीं लगी है, देख लेना….मतलब साफ था..लेकिन मैंने तो वही किया जो मुझे ठीक लगा…जब वो होता था तभी उस की अटैंडैंस लगाता था।
वैसे न्याय तो तभी होगा जब आप याद करके अपनी रचित कहानी सुनायें. मेरे कान तरस रहे हैं-ज्ञान जी की तरह उत्सुक्ता तो है ही. 🙂
माफ करियेगा अगर ज्यादा डिमांड कर गया हूँ तो!!
अभी तक तो ये रोचक लग रहा है.. आगे कि प्रतिक्षा में..
शुरुआत रोचक है.
और लग रहा है कि एक अच्छी कहानी जल्दी मिलने वाली है.
कृपया कल ही पूरी करदें तो बेहतर है.
ताकि आगे के लिए एक दिन ज्यादा मिलजाये.
धन्यवाद.
पढ़ रहा हूँ ,शुरुआत उत्सुकता भरी है ,