यदि आप पहली बार यह कहानी देख रहे हों तो कृपया भाग 1 से पढना शुरू करें.
प्यार की प्यास 001
प्यार की प्यास 002
प्यार की प्यास 003
भाग 4:
“क्यों अविनाश, यह क्या नाटक कर रहे हो” अचानक भौतिकी के आचार्य की आवाज उभरी. “यह नाटक नहीं है सर, सैकडों जिंदगियों का सवाल है सर”. आसपास खडे विद्यार्थीयों की भृकुटियां तन गईं और मुद्रायें आक्रामक हो गईं. आचार्य ऐसे लापरवाही से खडे रहे जैसे उन्होंने कुछ भी न देखा हो, लेकिन मन ही मन उन्होंने नोट कर लिया था कि अविनाश जैसे व्यक्ति ने भी एक वाक्य में दो बार ‘सर’ लगा कर उन को जवाब दिया. अचानक वे अविनाश से बोले, “तुम इसी समय मेरे कमरे में आओ” और बिना अविनाश को देखे मुडकर अपना स्कूटर लेकर आगे बढ गये.
अविनाश का आचार्य से कभी भी पाला नहीं पडा था, लेकिन वह जानता था कि कालेज के कई गुण्डे सरे आम आचार्य के पैर छूते हैं. वह चुपचाप उनके पीछे हो लिया. प्रोफेसर और अविनाश में कुछ देर बात हुई. उन्होंने उससे साफ कह दिया कि एक व्यक्तिगत झगडे के कारण वह सब विद्यार्थीयों का नुकसान न करवाये बल्कि हडताल को तुरंत खतम करवा दे. अविनाश ने हां नहीं कहा, और उन्होंने भी रस्सी के टूटने के पहले ही खीचना बंद कर दिया. बाहर से नारों का शोर बढता ही जा रहा था.
अविनाश सर झुकाये बाहर को उन्मुख हुआ. बाहर निकल साथियों के स्वागत की आवाज सुनते ही वह फिर से तन कर चलने लगा और माईक अपने एक शागिर्द के हाथ से झपट कर वह बडे ही राजनायिक अंदाज में बोला, “साथियों, एक बार पुन: सत्य की जीत हुई है. हमारी सारी जायज मांगें अधिकारियों द्वारा शीघ्र ही स्वीकृत कर ली जायेंगी. अब इस विजय के उपलक्ष्य में सारे साथी अपने अपने घर जायेंगे”.
कुछ क्षणों में अविनाश सहित सारे विद्यार्थी वहां से गायब हो गये. प्रिन्सिपल साहब अचानक मिली छुट्टी के लिये ईश्वर को धन्यवाद देते हुए एक शादी के लिये चल दिये. बाकी अध्यापक भी तुरंत खिसक लिये. मुफ्त में मिली छुट्टी को कौन नहीं भुनाना चाहता. विजय लक्ष्यहीन सा स्टाफरूम में बैठा रहा. उसे अपना मन और शरीर सुन्न होता सा लग रहा था कि अचानक भौतिकी के आचार्य आते नजर आये.
“विजय, यदि तुम इजाजत दो तो मैं कल की बातचीत को कुछ आगे बढाऊं. बोलो तुम्हें क्या परेशानी है. शायद यह बुजुर्ग तुम को कोई काम का सुझाव दे सके”.
काफी हिचकते हुए विजय बोला, “सर असल परेशानी तो घर की है कालेज की नहीं. मेरी पत्नी हमेशा कहती है कि मैं ही उसके लिये सबकुछ हूँ. वह मेरे लिये अपनी जान देने को तय्यार है. लेकिन एक बात समझ में नहीं आती: वह हर बात में मुझ से झगडा करती है.”
“हर बात में” आचार्य ने पूछा.
“जी हां. किसी भी बात पर चाहे मैं हां बोलूँ या न, झगडा जरूर होता है. वह खुद आदर्शों की बहुत बात करती है, लेकिन यदि मैं वही बात कहूँ तो महाभारत छिड जाता है”
विजय को पता नहीं लगा कि वह कितनी देर तक बोलता रहा. अपने समक्ष बैठे धुंधली सी प्रतिमा के प्रश्नों का उत्तर भी वह एक टेपरिकार्डर के समान देता गया. उसे इस बात का भी ख्याल न रहा कि कब चाय आई और कब वह उसे यंत्रवत पी गया. होश तब आया जब उसे किसी ने झकझोरा.
“विजय! सुनो विजय! मैं तुम्हारे आदर्शों की तारीफ करता हूँ. आजकल ऐसे लोग कम ही मिलते हैं. लेकिन एक बात, जब इन आदर्शों के पालन में बाधा आती है तो पहले प्यार और समझदारी से, मनुहार से, उसे सुलझाने की कोशिश करो. कडाई का उपयोग कम से कम एवं सिर्फ एक अंतिम हथियार के रूप में करो”.
विजय ने किसी कठपुतली के समान सर हिला दिया. आचार्य आगे बोले, “संभवतया तुम्हारी पत्नी अति-संवेदनशील प्रवृत्ति की है. परिपक्व लोग अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सीख लेते हैं, पर अति-संवेदनशील लोग अभी बालक समान हैं. वे शरीर से प्रौढ हैं, लेकिन भावनाओं के मामले में वे महज शिशु हैं”.
शिशु शब्द पर विजय चौंका. वह यही तो सुनना चाहता था. आचार्य ने बात आगे बढाई,
“अति-संवेदनशील व्यक्ति को अभी बहुत बढना है: मानसिक शैशव से मानसिक प्रौढता तक. इस कार्य के लिये तुम्हें अपने परिवार के अनुभवी लोगों की मदद लेनी चाहिये. यदि तुम्हारी पत्नी तय्यार हो जाये तो एक अनुभवी मनोवैज्ञानिक से संपर्क करना भी अच्छा होगा”.
मनोवैज्ञानिक का नाम सुन कर विजय बहुत खुश हुआ, लेकिन आगे की बात सुन कर वह फिर बुझ गया.
“चाहे कालेज का जीवन हो, विजय, या तुम्हारा पारिवारिक जीवन हो, तुम्हें जिन्दगी भर तलवार की धार पर चलना होगा. कोई और रास्ता नहीं है. याद रखो, पहले प्यार और उसके असफल होने पर कडाई”.
विजय को अब बोरियत होने लगी थी और इसे समझ कर दोनों ही उठ लिये. विजय को भले ही आचार्य की बातें अच्छी न लगी हों, लेकिन विदा होते समय उसकी पीठ जिस आत्मीयता उन्होंने थपाई वह उसे बहुत सकून दे गया.
अगले दिन सब कुछ स्वाभाविक अवस्था में लौट आया था. प्रश्न पूछने के पहले विजय कक्षा में सब को टटोल लेता था एवं उत्सुक चेहरों से ही प्रश्न पूछता था. जैसे ही उसकी नजरे अविनाश से मिलतीं तो वह चेहरा फेर लेता था एवं गर्व के साथ विजय दूसरे विद्यार्थीयों की तरफ उन्मुख हो जाता था. दूसरी ओर कक्षा के बाहर अविनाश को अपने साथियों के साथ खडा देखकर विजय अपना चेहरा फेर लेता था, एवं गर्व के साथ अविनाश अपने साथियों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर देता था.
घर पर सब कुछ वैसा ही चल रहा था. भावना किसी भी हालत में मनोवैज्ञानिक से मिलने को तय्यार नहीं थी. दूसरी ओर विजय ने परिवार में किसी से मदद नहीं मांगी.
समय पंख लगाकर उडता रहा. निराशा के बावजूद विजय घर पर और कालेज में डट कर मोर्चा संभाले था. अंतत: जब अविनाश लगातार दो हफ्तों तक कालेज में नजर न आया तो विजय को लगा कि अब उसकी जीत हो गई है. मन्द मुस्कराहट के साथ एक फिल्मी गान गुनगुनाते उस शाम उस ने अपने फ्लेट में प्रवेश किया तो दरवाजा खुला मिला, लेकिन उसके पीछे भावना न दिखी. भावना कैसी लापरवाह है यह सोचकर आगे बढा तो वह चौंक गया.
भावना जमीन पर पडे अंतिम सांसे ले रही थी. उसे गले में साडी का फंदा पडा हुआ था और अविनाश उसके पास उंकडूं बैठ भावना के गले पर कुछ कर रहा था. एक क्षण में सारी बातें विजय के की आंखों के सामने घूम गई. “कमीने, तूने कालेज का बदला घर आकर मेरी निर्दोष पत्नी के साथ चुकाया”.
विजय का चीत्कार सुन अडोस पडोस के फ्लेटों से काफी लोग दौड कर आ गये, जिन में कई के बच्चे उसी कालेज में पढते थे. विजय-अविनाश के रट्टे की बात वे सब जानते थे… [अगली किश्त में समाप्य]
[अंतिंम किश्त के अवसर पर मैं अपने मित्रों के विश्लेषणात्मक टिप्पणियों का इंतजार करूंगा]
विश्लेषणात्मक टिप्पणी के लिए आप ने अंतिम पड़ाव तय कर दिया है। वरना इधर ही प्रारंभ होने वाली थी। पर वह ठीक भी है उस से कथा के सामान्य प्रवाह पर असर आता है। हाँ यह जरूर कहूँगा कि आप सिद्ध कथाकार हैं।
नाटकीय अंत समीप लगता है !कहानी ने अचानक लोड ले लिया है .
गजब बहाव लिया है और उतना बेहतरीन टर्न भी. इन्तजार कर रहा हूँ लेन्डिंग का, बहुत इन्टरेस्टिंग.
मौन.