प्यार की प्यास 005 (अंतिम किश्त)

यदि आप पहली बार यह कहानी देख रहे हों तो कृपया भाग 1 से पढना शुरू करें.

प्यार की प्यास 001
प्यार की प्यास 002
प्यार की प्यास 003
प्यार की प्यास 004

भाग 5: अंतिम भाग!

अविनाश कुछ कहने के लिये घिघिया रहा था, लेकिन विजय की उंगलियां उसके गर्दन को इस्पात के समान जकडी हुई थीं. लोगों के फोन करने पर पास के थाने से पुलीस को पहुंचने में सिर्फ कुछ क्षण लगे. उन्होंने मौके पर पहुंचकर अविनाश को गिरफ्तार कर लिया.

अगले दिन अखबारों ने बडे सुर्खियों में खबर छापी एवं हत्यारे को तुरंत सजा देने की मांग की. अविनाश को उस इलाके में आते हुई कई लोगों ने देखा था. उन सब ने एवं चौकीदार ने भी फ्लेट में उसके आने की पुष्टि की. अगल बगल के पडोसियों ने अविनाश को लाश के साथ खडा देखा था, अत: गवाहों की कोई कमी न थी. कालेज का सारा स्टाफ एवं विद्यार्थीजगत अब विजय के साथ था. अविनाश के साथियों में से कोई भी हमदर्द न बचा था.

मुकद्दमे में अविनाश की ओर से किसी बात का कोई प्रतिवाद नहीं हुआ. उसके परिवार वाले उसके कारण पहले ही परेशान थे, और अब बेईज्जती के कारण उन्होंने पूरी तरह मूंह फेर लिया. मामला स्पष्ट बदला एवं हत्या का था, अत: उसे जब मृत्युदंड दिया गया तो किसी को ताज्जुब न हुआ.

आखिर इंतजार की घडियां समाप्त हुईं. मृत्युदंड का दिन पास आ गया. दोषी ने आखिरी इच्छा जाहिर की कि वह विजय सर से एक बार मुलाकात करना एवं माफी मांगना चाहता है. कई कारणों से उसकी इच्छा मान ली गई.

कांपते पैरों, घृणा, एवं आशंका भरे हृदय के साथ विजय अविनाश की ओर बढा. सब लोग बडे ही संशय के साथ, दिल थामे हुए, दूर खडे होकर यह सब देख रहे थे.

लोहे की सलाखों के पीछे से अविनाश ने विजय को कागज का एक पुर्जा दिया. विजय ने उस पर सिर्फ एक उपेक्षा भरी नजर डाली लेकिन उसे पढने का यत्न नहीं किया. मन ही मन वह सोच रहा था, “अविनाश, तुमने मेरा सब कुछ मुझ से छीन लिया; अब इन चिट्ठीपत्रियों में क्या बचा है”.

विजय की तंद्रा अचानक टूटी जब अविनाश ने आग्रह किया, “पत्र को जरा ध्यान से देखिये सर”. अनमने भाव से विजय ने पत्र को पुन: देखा. उस पर भावना की हस्तलिपि देख कर वह चौंक पडा. लिखा था,

“मेरे प्राणनाथ! मैं आप से कितना प्यार करती हूँ उसका वर्णन कठिन है. लेकिन मुझे कभी नहीं लगा कि आप मुझ से उसी तरह का प्यार करते हैं. आप बार बार मुझे अति-संवेदनशील बता कर टोकते रहे, लेकिन मुझे मनोविज्ञान में जरा भी यकीन नहीं है. आज मेरी शंकाओं का प्रमाण मुझे मिल गया है, अत: मैं आपकी आजादी में बाधा बने बिना हमेशा हमेशा के लिये जा रही हूँ”.

विजय को बात कुछ समझ में नहीं आई. तभी अविनाश ने उसे बहुत ही छोटा सा एक लिफाफा दिया. उसे देख विजय को कुछ याद सा आया. अन्दर एक अतिसुन्दर लडकी की फोटो एवं पत्र था. लिखा था,

“प्रिय विजय, आजकल तुम मुझ से कुछ कटे रहने लगे हो यह शायद तुम्हारे परिवार के कारण है. मेरे लिये तो तुम ही सब कुछ हो. यदि मुझे तुम न मिले तो … … हमेशा हमेशा के लिये तुम्हारी ही, आराधना!”

विजय को पता न लगा कि कितनी देर उसकी आंखों के सामने अंधेरा छाया रहा. उसे तब होश आया जब अविनाश ने उसे टोका. “सर उस दिन जब क्लास में इस पत्र के चुपचाप आदान प्रदान के समय आपने विजय और आराधना को पकडा था तब मैं भी वहां था. आप इतने महान हैं कि उनके मांबाप से कह कर उनकी मंगनी भी करवा दी. लेकिन यह पत्र आपकी पत्नी को कैसे मिला”.

“हां अविनाश तुम ने सही पकडा. इस बीच इस पत्र को नष्ट करने के बदले मैं ने मेज की दाराज में रख कर ताला लगा दिया था. लेकिन किसी तरह यह खत भावना के हाथ लग गया और उसे लगा होगा कि इस पत्र का “विजय” उसका अपना पति है जिसके मेज की दाराज में यह पत्र ताले में सुरक्षित छुपाया गया था”.

“शायद ऐसा ही है सर. दर असल उस दिन मैं आप से मिलने आया था. दरवाजा काफी खटखटाने पर भी कोई नहीं आया. दरवाजा हलका खुला था, अत: मैं उसे खोलकर आपके बैठक में जाकर बैठ गया. लेकिन कुछ ही क्षण बाद जब अंदर के कमरे से घुटी घुटी सी आवाजें आईं तो मैं आशंका से भर गया एवं एवं कमरे की ओर लपका. वहां आपकी पत्नी फंदे से लटकी हुई थी. ये कागज जमीन पर पडे हुए थे जिनको पता नहीं कब मैं ने जेब में रख लिया. अपने छुरे से उनकी रस्सी काट मैं उनको सामने के कमरे में खीच लाया और उनके गले से फंदा खोलने लगा कि अचानक आप आ गये. बाकी सब कुछ आप को मालूम है. हां, यदि आप ने मुझे गलत न समझा होता तो शायद हम दोनों मिल कर भाभी की जान बचा सकते थे, लेकिन आपका सारा ध्यान मुझ “हत्यारे” की ओर था.”

“सर आपके जाने का समय हो गया है” पुलीस वाला विजय को आवाज दे रहा था. विजय ने कातर स्वर में पुलीसवाले से अनुरोध किया कि उसे कुछ क्षण और दिये जायें. विजय को एक विचित्र सी नजर से देखता हुआ वह वहां से चला गया.

“फिर तुम ने अपनी सफाई कों नहीं दी अविनाश”, विजय का गला भर चुका था. “सर आपके चीत्कार के कारण उस समय माहौल ऐसा हो गया था कि कोई भी मेरी बात न मानता. जहां तक इन पत्रों की बात है, न तो मैं ने तब इन्हें पढा था, न ही मुझे इनका ख्याल आया. मामला इतना स्पष्ट था कि पुलीस ने न तो मुझ से अधिक पूछताछ की, न ही तलाशी ली. कई दिनों के बाद जब मुझे सुध आई तब मैं ने इन पत्रों को पढा एवं सही मामला समझा”.

“फिर तुम ने कोर्ट में इन को क्यों नही प्रस्तुत किया”

“सर मैं आपकी प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देना चाहता था. न ही विजय एवं आराधना के परिवार को बदनाम करना चाहता था. दूसरों में दोष ढूंढना लोगों की आदत है. अत: मैं कुछ बोलता तो हत्या के आरोप के बदले भाभी की “आत्महत्या” का केस सामने आता, आप बदनाम होते, एवं एक प्रेमी युगल भी बदनाम होता.”

“अच्छा, लेकिन उस दिन अचानक तुम मेरे घर क्यों आये?”

“सर मैं आपसे क्षमा मांगने आया था. मैं बहुत ही उद्दंड एवं क्रूर था. मैं समझता था कि अपने बाहुबल द्वारा मैं कुछ भी हासिल कर सकता हूँ. पिछले महीने मेरी मां बहुत गंभीर तरीके से बीमार हो गईं. कैंसर था. अस्पताल में मैं ने डाक्टरों से उसी अन्दाज में बात की जैसे मैं हरेक से करता था. लेकिन इस कारण मां को अच्छा इलाज देने के बदले शरीफ डाक्टर लोग मुझ से कटने लगे”

“लेकिन उन में से एक वृद्ध डाक्टर ने एक दिन मेरे सर पर हाथ फेरकर कहा ‘अविनाश, दम्भ और घमंड से जीवन का हर मोर्चा जीत नहीं सकोगे. चुनौती सिर्फ उस बात को जिस से तुम्हें कुछ लाभ हो. नहीं तो अंत में नुक्सान तुम्हारा ही होगा'”

“सर मुझे पहली बार ज्ञानोदय तब हुआ. लेकिन बहुत देर हो गई थी. मैं ने अपनी मां को भी खो दिया, और विद्यार्थी जीवन को भी. गलती मेरी थी. मेरे दम्भ ने मुझे बर्बाद कर दिया. मुझे क्षमा कर दीजिये”.

“अविनाश, गलती मेरी है. यदि आज से एक साल पहले उस अनुभवी डाक्टर के समान यदि मैं ने तुम्हारे सर पर हाथ फेर दिया होता तो तुम आज शायद कुछ और होते”

“अभी भी देर नहीं हुई है सर. मेरे साथियों में से कई ऐसे हैं जो आपके आदर्शों कि कद्र करते हैं. वे छटपटाते प्राणी हैं. वे आपके समान आदर्श पुरुष बनना चाहते हैं, लेकिन उनको स्नेह के साथ रास्ता दिखाने वाला नहीं मिल रहा है. एक बार प्यार से बात करके देख लीजिये सर.”

“हां अविनाश, मेरे आदर्श सही थे, पर रास्ता व्यावहारिक नहीं था. यदि मैं ने दूसरा रास्ता अपनाया होता तो शायद मुझे ये दो मौतें न देखनी पडतीं”. विजय फूट फूट कर रो पडा.

“रोइये मत सर. अभी काफी जिंदगियां आपके हाथों में बची हैं”

विजय को सिर्फ इतना याद है कि पुलीस वाला इस बीच उसका हाथ पकड कर उसको जबर्दस्ती खीच कर वहां से ले गया.

अगले दिन स्थानीय अखबारों में मुख्य खबर थी, “पत्नी के हत्यारे के समक्ष प्रोफेसर फूट फूट कर रोये. कारण न जानने के कारण सब लोग विस्मयित!!”

[विश्लेषणात्मक टिप्पणियों का स्वागत है !!]

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Author: Super_Admin

11 thoughts on “प्यार की प्यास 005 (अंतिम किश्त)

  1. ऐसा लग रहा है कि एक लंबा बोर उपन्यास ख़त्म हुआ. एक ऐसा पीरियड जो हम गोल करना चाहते थे, पर न कर पाने का अफ़सोस, पढ़ना पड़ा.

  2. खैर पहले वाली प्रतिक्रिया तो हास्यकर थी. सच कहूं तो व्यक्ति में आदर्शों का होना अत्यन्त आवश्यक है. इनके बिना जीवन निस्सार है. आदर्शों का दायरा हमें सदैव उन्नति की और ले जाता है, पर पता नहीं क्यों लोग इन्हें बन्धन मानने लगते हैं. जब हम इन आदर्शों से विलग होते हैं तो बस यही हाल होता है.

  3. यह एक दुखांत कथा है ,जबकि भारतीय मनीषा सदैव सुखान्त कथा को तवज्जो देती रही है .और क्या यह भी उचित है की एक बेगुनाह को सजा मिले ?
    बहरहाल कहानी उलझते मानवीय रिश्तों की कहानी है .और सबसे बढ़कर कहानी के कल पुर्जे सभी दुरुस्त हैं -अब यह पाठक को कैसी लगी -मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना .

  4. बहुत अधिक आदर्श भी मनुष्य को कायर बना देते है ,आपकी कहानी ,एक सस्ते उपन्यास की तरह है ,जिसमे चरित्रो की और उनके परोपकारो की ही बात की गई है वास्तविकता के धरातल पर कहानी खरी नही उतरती.

  5. लेखक की कहानी कटी-कटी लगी। पर प्रयाष के लिए धन्यबाद। पर कहानी के अंत मे, सब कुछ जानते हुये भी एक अदर्शबादी के हाथो एक निर्दोष की मौत गले की नीचे नहीं उतरी ।

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