आज E-Guru Maya ने पहली बात सारथी पर कई टिप्पणियां दीं जिन में जे निम्न टिप्पणी हम सब को सोचने के लिये बाध्य करती है:
सारथी चिट्ठा मेरी नज़र में बौद्धिक लोगों का अड्डा है. भले ही इस चिट्ठे पर मुद्दे शास्त्री जी उठाते हैं पर उसे चलाते हैं हम सभी अपनी टिपण्णी के द्वारा ही हैं. इन सभी टिप्पणीकारों से निवेदन है कि एक बार अपने गिरेहबान में झाँक कर देखें और अपनी अंतरात्मा से पूछें कि क्या करते हैं हम इस बदलाव के लिए ? हम सभी को शर्म आएगी, अब ये सोचें कि हम क्या कर सकते हैं (और सिर्फ़ सोचें नहीं बल्कि उसे करें) तभी यह पोस्ट सार्थक सिद्ध होगी और शीर्षक के प्रश्न का जवाब मिल सकेगा.
शास्त्री जी एक ऎसी भी पोस्ट प्रकाशित करें जिसमें लोग यह बता सकें कि आपके इस लेख से प्रभावित हो उन्होंने क्या-क्या किया.
मैंने एक काम किया कि आज अपने लिए हेलमेट खरीद लिया.क्यों शास्त्री जी ! आया न बदलाव !!! आपने क्या बदलने की कोशिश की, इस पर भी प्रकाश डालेंगे तो यह चिट्ठा धन्य हो जायेगा.
बहुत ही भावनात्मक तरीके से उन्होंने एक आम समस्या की ओर इशारा किया है — हम सब बातें बहुत करते हैं, सिद्धांत बहुत झाडते हैं, लेकिन इनको करता कोई नहीं है. लेकिन अंत में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि चिंतन के लिये कोई प्रेरित करे तो क्रमश: उसका असर होता है, जिसका उदाहरण है उनका नयानवेला हेलमेट.
दोस्तों, यह बडी आम सोच है कि “कहते सब कोई है, पर करता कोई भी नहीं है”. मेरी नजर में यह कथन गलत है. सही कथन निम्न है:
कहता हर कोई है, लेकिन उस पर चलने वालों की संख्या कम है. यदि सही प्रोत्साहन दिया जाये तो उनकी संख्या बढ सकती है एवं कलियुग में भी इधर उधर सतयुग आ सकता है.
किसी बात को सकारत्मक नजरिये से देखा जाये तो बहुत फरक पड जाता है. निराशा के बदले आशा उत्पन्न होती है. इस बात को मन में रख कर ई-गुरू को मैं अपने जीवन की कुछ बाते बताना चाहता हूँ:
आज से 20 साल पहले मुझे एक मित्र ने बताया कि तंत्रांश (साफ्टवेयर) को दाम देकर खरीदा जा सकता है लेकिन मुफ्त में प्रतिलिपि भी की जा सकती है. उस दोस्त ने बताया कि ऐसी प्रतिलिपि को “पायरेटड” (चोरी की हुई, लूटी हुई) प्रति कहते है. तब मैं ने यह निर्णय लिया था की जीवन में कभी पायरेटड तंत्रांश नहीं खरीदूंगा. आज मेरे संगणक पर एवं बेटे के संगणक पर विन्डोज एक्सपी की दो अलग अलग प्रतियां चलती हैं. मेरी बिटिया के लेपटाप पर विन्डोज विस्ता की मूल प्रति है.
मेरे जालकार्य के लिये मुझे लगबग 40 तंत्रांशों की जरूरत पडती है. इनमें से 20 को मैं ने पैसा देकर खरीदा है (फायरवाल, एंटीवायरस, शब्द संसाधक, आदि). बाकी 20 फ्रीवेयर है.
मेरे गिर्जे के मुखियों में से एक (केप्टन जी. एम. सिंह गिल) आजाद हिंद फौज के केप्टन थे. वे अपने प्रवचन में बारबार दुहराते थे कि हर आदमी को टेक्स देना चाहिये. तब से मैं हर खरीद पर टेक्स देता आया हूँ. (इस हफ्ते अपनी अर्धांगिनी के लिये डाईनिंग टेबल खरीदी तो 4000 रुपये टेक्स अदा किये).
टेक्स देने पर जेब पर बडा बोझ पडता है, लेकिन मन में संतोष है कि सारथी के मित्रों के लिये मेरा संदेश सैद्दांतिक नहीं है.
सारथी के मित्रों में कई ऐसे लोग है जो मेरे साथ मिल कर कह सकते हैं कि “मैं कोई संत नहीं हूँ, पर शास्त्री फिलिप के समान मैं भी निम्न बातों में सिद्धांतों का पालन करता हूँ”. दोस्तों, ईगुरूमाया के अनुरोध को स्वीकर कर कम से कम एक बात टिपिया जायें जिसका पालन करने की आप ने ठान रखी है.
शास्त्री जी
आपने अच्छा विषय उठाया है। इस मेरे मन में कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्ति का भाव उत्पन्न हुआ। इसलिये मैंने उसे लिख लिया। आप अपने प्रयास जारी रखें। बहुत बढि़या है।
दीपक भारतदीप
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चलते हैं जो सत्य के पथ पर
अपने घर में भी वह पराये हो जाते
शहर भी जंगल जैसा अहसास कराये जाते ं
आदर्शों की बात जमाने से वही करते जो
कहने के बाद उसे भुलाये जाते
सभी संत सत्य पथ पर नहीं होते
सभी सत्य मार्ग के पथिक संत नहीं होते
जो चलते नैतिकता के साथ
उनको अनैतिकता के अर्थ पता नहीं होते
जो दुनियां को अपनी मशाल से मार्ग
वही पहले लोगों के घर के चिराग बुझाते
ऊंची ऊंची बातें करते है जो
वही अपना चरित्र गिराये जाते
देव दानव का युद्ध इतिहास नहीं बना
क्योंकि अभी यह जारी है
किस्से बहुत सुनते हैं कि देवता जीते
पर लगता पलड़ा हमेशा दानवों का भारी है
फिर भी नहीं छोड़ते आसरा ईमान का
कितने भी महल खड़े कर ले
ढहता है वह बेईमान का
कोई नहीं गाता किसी के गुण तो क्या
भ्रष्टों के नाम बजते हैं
पर वह अमर नहीं जाते
अपने पीछे पीढि़यों के लिये बुराईयों के झुंड छोड़ जाते
बैचेन जिंदगी गुजारते हैं
उनके पाप ही पीछे से काटते
पर जिन्होने ली है सत्य की राह
वह चैन की बंसी बजाये जाते
भय के अंधेरे को दूर करने के लिये
सत्य के दीप जलाये जाते
……………………..
दुनिया में नैतिकता नहीं रहती तो अबतक सृष्टि का खात्मा हो चुका होता। लेकिन यह भी सही है कि नैतिकता समय और परिस्थिति के सापेक्ष होती है। यदि कोई हम पर प्रहार करता है तो जवाबी प्रहार करना ही होगा, नैतिकता की दुहाई देने से कुछ भी नहीं होगा।
आप की और माया की बात से सहमति है। मगर खुद को बदलने से समाज पर कोई असर नहीं होता है। हमें अपना दायरा बढ़ा कर दुनियाँ बदलने की सोच की और आगे बढ़ना चाहिए। व्यक्ति तो स्वयं को अपनी क्षमता के अनुरूप बदल सकता है लेकिन दुनियाँ तो उस के बदलने के नियमों से ही बदलेगी। इस के लिए पहले यह जानना होगा कि दुनियाँ बदलती कैसे है।
क्या एक भी नैतिक व्यक्ति नहीं है??
इस वाक्य से तो राम चरित मानस की एक अर्धाली याद आ गयी …
कही जनक जस अनुचित बानी ……
अभी नैतिकता जिंदा है !
वैसे यह भी एक नैतिकता है कि इसका प्रदर्शन न किया जाय .
प्रदर्शित नैतिकता अपना गरिमा खोने लगती है .
अरे ओपेन सोर्स क्यों नहीं प्रयोग क्यों नहीं करते – चोरी की कभी कोई बात ही नहीं 🙂
सबासे जाने माने न्यायधीश अमेरिका के होमस् थे। वे टैक्सिंग अधिनियम को हमेशा कानून के अन्दर मानते थे। इसलिये एक बार उनकी सक्रेटरी ने कहा, ‘Don’t you hate to pay your taxes.’
उनका जवाब था, ‘ No, I buy my civiliasation with that.’
मैं हमेशा खरीदते समय बिल लेता हूं। जब आप बिल लेते हैं तो दुकानदार उस पर टैक्स जोड़ता है अन्यथा उसे अपने पॉकेट से देना पड़ेगा।
?
यही तो त्रासदी है, कि एक दूसरे से प्रश्न तो सभी करते हैं,
आगे कोई नहीं आता । हर आदमी अपनी अपेक्षायें दूसरे पर या सरकार पर थोपता है ।
समय सोचते रहने का नहीं, कुछ न कुछ करने का है ।
बूँद बूँद से ही परिवर्तन आयेगा, क्रांति एकाएक नहीं आयेगी !
बहुत अच्छी बहस है, लेकिन सिर्फ़ टैक्स चुकाने भर से हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाते। उस टैक्स के पैसे का सरकार कैसा उपयोग कर रही है यह भी देखना होगा। सूचना के अधिकार का उपयोग करके सरकारी अधिकारियों को रगड़ना होगा, भ्रष्टाचार मिटाना पहली जरूरत है, उसके लिये हम भी भ्रष्टाचार न करें यह ज्यादा जरूरी है। क्यों हम छोटे-छोटे कामों के लिये रिश्वत देते हैं? वाकई बातें करना बहुत आसान है, लेकिन उसे अमल में लाना बेहद मुश्किल…
हमने तो टिपियाने की ही ठान रखी है और वही आप करने को कह रहे हैं. 🙂
पता नहीं, हमही में देवता हैं और हममें ही दानव। कितना अच्छा कर रहे हैं और कितना खराब, उसका हिसाब तो वही रख रहे होंगे।
शायद अच्छा यही है कि ईश्वर में आस्था कायम है।
धन्यवाद मेरी टिपण्णी को इतना महत्त्व देने के लिए. उससे ज्यादा धन्यवाद आप सभी को यहाँ पर टिपियाने के लिए. चिपलूनकर जी ! सिर्फ़ टैक्स देना ही हमारा कर्तव्य नहीं है, हमें तो नैतिक पुलिसिंग करनी चाहिए.
भारतीय पोलिस सेवा में काम कर चुकी महिला ‘ किरण बेदी ‘ ने एक बार पूछा था कि क्या सिर्फ़ पुलिस की ही जिम्मेदारी बनती है समाज के लिए !! उन्होंने स्वयं ही जवाब दिया था कि समाज भी आगे आए.
उ.प्र. के राज्यपाल ने एक बार कहा था कि संस्कृत एक मृत भाषा है. मैंने समर्थन करते हुए कहा कि बिल्कुल ही सही बात है. लेकिन ऐसा लगा कि मानो किसी ने मुझे मृत कह दिया मैंने ठान लिया कि मैं एक ब्लॉग संस्कृत भाषा में बनाऊंगी और बनाया भी. साथ ही यह तय किया कि प्रतिदिन कुछ शब्द संस्कृत में सीख सकूं ताकि फ़िर कोई राज्यपाल मेरी भाषा को मृत न कह पाये. इसी का नतीजा है कि आज मैं टूटी-फूटी संस्कृत बोल सकती हूँ. मेरे चिट्ठे का अंत भी प्रायः संस्कृत में नमो नमः से ही होता है.
जब राज्यपाल ने मृत कहा था तो पूरा देश जल उठा था. कहाँ गए वे सुलगने वाले !!!!
क्या किया उन्होंने संस्कृत भाषा के लिए !!!!
दिनेशराय द्विवेदी जी कह रहे हैं कि ख़ुद को बदलने से समाज पर असर नहीं होता.
सरासर ग़लत कहा है { बिल्कुल असर होता है } आज मेरे साथी चाहे वे लडकियां हो या लड़के मुझसे कोशिश करते हैं संस्कृत में बात करने की, वे मुझसे पूछते हैं कि इस शब्द का संस्कृत क्या होगा !!
मेरी एक अलग पहचान तो बनी ही साथ में सब से तारीफ़ भी मिली मेरे इस ‘बोल्ड’ कदम के लिए.
लोग कहते हैं भई, जब तक माया ज़िन्दा है कम से कम तब तक संस्कृत तो नहीं मरने वाली.
तो चुनिए अपनी पसंद का काम और करिए पूरी ईमानदारी के साथ, समाज को आपकी ज़रूरत है.
आप बताइये, क्या संस्कृत मर सकती है मेरे रहते ? नहीं न.
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