जैसा सारथी के मित्रों ने टिपियाया है, यौनोत्तेजक सामग्री हर युग में हर समाज में एवं हर धर्मे के अवलम्बियों के बीच सदा प्रचार में रहा है. लेकिन मेरा इशारा इस तरह की सामग्री की उपस्थिति के बारे में नहीं है, बल्कि उसमे आ रहे एक परिवर्तन की ओर है, जो खतरे का संकेत है.
यौनोत्तेजक सामग्री सामान्यता कामवासना को भडकाने वाली होती है, लेकिन वह किसी तरह की फिलासफी नहीं सिखाती. लेकिन पिछले तीन चार सालों में भारत में, वह भी खास कर जाल पर, एक नये प्रकार का यौनिक साहित्य प्रगट हो रहा है जो न केवल व्यवभिचार माहात्म्य से भरा है, बल्कि जो बारबार यह फलसफा सिखाता है कि आपकी कामवासना की तृप्ति के लिये आपके घर के लोग सबसे उपयुक्त है. इनमें यह बताया जाता है कि किस तरह से सगी बहिनों को, चचेरी ममेरी बहिनों को, मौसीबुआओं को, यहां तक कि अपनी मां तक को व्यभिचार के लिये किस तरह प्रेरित किया जाये. तर्क यह है कि घर के लोगों को इस कार्य के लिये पटाना आसान है, एवं रहस्य कभी भी बाहर नहीं जायगा.
कोई भी बात सौ बार दुहराई जाये तो लोग उसे सच मान लेते हैं. उदाहरण के लिये, हिन्दी के अधिकतर पाठक यह समझते हैं कि चंदन का वृक्ष ऐसा शीतल होता है कि उस शीतलता को पाने के लिये सैकडों सांप हर चंदन के पेड को लपेटे रहते हैं. यह कहानी कवियों एवं कथाकारों ने इतने बार दुहराया है कि हर कोई इसे सच समझता है. लेकिन यह एक बहुत बडा झूठ है. मेरे घर से लगभग 2 घंटे दूर चंदन का वन है जहा हजारों वृक्ष है, लेकिन एक पर भी सांप लिपटा मैं ने कभी नहीं देखा. मेरी धर्मपत्नी के घर एक चंदन का पेड है, लेकिन कभी कोई सांप उस पर चढता नजर नहीं आया जबकि उस इलाके में सांपों की कोई कमी नहीं है.
जब एक नारा सौ बार दुहराया जाता है तो वह लोगों के मन में घर कर जाता है एवं सर पर चढ कर बोलता है. जो नया यौनोत्तेजक साहित्य कई जवानों को प्रभावित कर रहा है वह उनको वह कार्य करने को प्रेरित कर रहा है जो आज तक सामाजिक धरातल पर निषिद्ध समझा जाता था. दूसरी ओर, जब घर का एक पुरुष जोर डालता है तो कई बार स्त्रियां आसानी से विरोध नहीं कर पातीं. इस कारण आजकल परिवार और यौन संबंधी परामर्श देने वाले लोगों के पास इस तरह की शिकायते बढने लगी है.
यौनोत्तेजक साहित्य को हम पूरी तरह खतम नहीं कर सकते, लेकिन हम दो कार्य कर सकते हैं. पहला, कानून की सहायता से उनको इतना अधिक कम किया जा सकता है कि ऐसा साहित्य न के बराबर हो जाये. दूसरा, हम अपने बच्चों पर नजर रख सकते हैं कि वे इस तरह के साहित्य कि चपेट में ना आये, और आ गये तो उनको उससे बचाये.
कल मैं इससे संबंधित एक घटना के बारें में लिखूंगा जब एक 10 साल के बच्चे को परामर्श के लिये मेरे पास लाया गया था.
सच शास्त्रीजी,
चिंता की बात है. अभी-अभी बातचीत के दौरान मेरे मुंह से निकाल गया कि समाज का एक बड़ा तबका समाज से बौद्धिकता को खत्म कर देना चाहता है ताकि वह ज्यादा से ज्यादा भाव में बिक सके. बौद्धिकता के रहते उनका बिक पाना कदापि संभव नहीं है, इसलिए वे इसे खत्म कर देना चाहते हैं. सिनेमा, खबरिया चैनलों, मुद्रण माध्यमों, को लीजिए, अपने आपको ज्यादा से ज्यादा भाव में बेचने के लिए ये लोग क्या-क्या नहीं कर रहे हैं, सबका लक्ष्य इंसान के अंदर से उसकी बौद्धिकता को समाप्त करना है.
सारथी जी, बेहद संवेदनशील और ज़रूरी मसला उठाया है आपने। शुक्रिया। इसी तरह हम जैसे आम लोगों के दिमाग में छाए अंधेरे को दूर करते रहेंगे, यही अपेक्षा है।
वाकई ये बहुत चिन्ताजनक है, ये साहित्य एक तरीका बताते है.. अगर ये एसे ही चलता रहा तो हो सकता है भविष्य में लोग इसे ही सत्य मानने लगे..
अभी हाल ही में रक्षाबंधन मनाया….अक्सर मजाक में या एसएमएस पर कुछ लड़कों से सुनने को मिलता है कि रक्षाबंधन के समय लड़कियों से बचकर रहना कहीं भाई ना बना लें…..जबकि सारे के सारे अनगिनत गर्लफ्रेंड रखने में बड़े गर्व का अनुभव करते हैं.
वाकई बहुत कुछ बदल रहा है….अब बात यहां तक आ पहुंची है कि लोग अपनी कजिन तक के बारे में ऐसे विचार रखते हैं….हालांकि मेरा मानना है कि ऐसी विकृतियां पहले से समाज में मौजूद रही होंगी…हालांकि अब वे ज्यादा लोगों में फैल रही हैं…