प्रश्न: शास्त्री जी, स्त्री-पुरुष में ‘मानसिक अन्तर’ होने की बात शायद नारीवादी महिलाएं मानने को तैयार न हों। इसे थोड़ा और स्पष्ट करने की आवश्यकता है। मेरी बात का सन्दर्भ ‘चोखेर बाली’ ब्लॉग पर मिल जाएगा। नारी की दुरवस्था के लिए नारी अधिक जिम्मेदार है’; इस बात पर भी वहाँ एक बहस विद्यमान हैं। मेरी इच्छा है कि आप वहाँ जरूर जाँय।
उत्तर: चूंकि चोखेर बाली के कई चिट्ठाकार मेरे मित्र हैं अत: मैं अकसर उस चिट्ठे पर जाता हूँ एवं वहां छपे लेख पढता हूँ. कई से सहमत होता हूँ, कई से नहीं. लेकिन उस चिट्ठे पर या सारथी पर उन विषयों पर लिखने की कोशिश नहीं की है, न ही करने का इरादा है.
मित्रों के बीच हर विषय पर मतैक्य होना जरूरी नहीं है, न ही कभी हो पायगा. मतैक्य से अधिक जरूरी यह है कि हम सब अपनी अपनी राय तर्कसंगत तरीके से पाठकों के समक्ष रखें एवं प्रबुद्ध पाठक उसे युक्ति की कसौटी पर कस कर जो युक्तिसंगत दिखे उसे अपना लें एवं जो युक्तिहीन लगे उसकी उपेक्षा कर दें. हां, यदि कोई चिट्ठा टिप्पणी या चर्चा के लिये खुला हो तो वहां पर अपने विचार जरूर टिप्पा जायें, खास कर यदि आप की राय में वे कोई गलत बात कह रहे हों.
मैं यह लेख लिख रहा था कि इस लेख पर डा अरविंद की टिप्पणी पर एक प्रश्न किसी ने सीधे मुझे भेज दिया जो इस प्रकार है:
“नर नारी कतई समान नहीं हैं -वे एक दूजे के लिए हैं ,पूरक हैं !”अगर ये सच हैं जैसा की इस पोस्ट मे कहा गया हैं एक कमेन्ट मे तो रेप क्यों होता हैं ? और अगर रेप होता हैं तो समाज मे नारी को क्यूँ कलंकित समझा जाता हैं ? क्यूँ ऊँगली उसके कपड़ो पर उठती हैं ? पूरक अगर हैं तो क्यूँ आज भी विधवा विवाह नहीं होते और अगर होते भी हैं तो विधवा का विवाह की कुवारे पुरूष से नहीं होता पर विधुर को कुवारी कन्या मिलती हैं ??
जिसने भी यह प्रश्न भेजा है वह अधुनिक भारतीय समाज की विषमताओं से त्रस्त है. भईया, हम भी उतने ही त्रस्त है, एवं चाहेंगे कि यह विषमता दूर हो जाये. लेकिन पहले आपके प्रश्नों के कुछ जवाब दे देते हैं, उम्मीद है कि आप भडकेंगे नहीं.
1. आपने पूछा है कि बलात्कार क्यों होता है. शायद आपके कहने का मतलब यह है कि सिर्फ पुरुष ही क्यों बलात्कार करते हैं, स्त्रियां क्यों नहीं करती. पहली बात, “वे एक दूजे के लिये हैं” का मतलब यह नहीं है कि समाज में हर व्यक्ति सज्जन एवं शालीन है. न ही हम सतयुग में रह रहे हैं.
2. दूसरी बात, पुरुषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर करती हैं इस कारण बच जाती हैं. समाज में जहां भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दिखती हैं. पुरुष की वासना को भडका कर स्त्रियां जिस तरह से उनका मानसिक शोषण करती हैं वह पुरुषों का सामूहिक बलात्कार ही है. किसी जवान पुरुष से पूछ कर देखें. पुरुष को सजा हो जाती है, लेकिन किसी स्त्री को कभी इस मामले में सजा होते आपने देखा है क्या.
3. हां आपने यह भी पूछा है कि बलात्कार में कलंक सिर्फ नारी को क्यों मिलता है. मेरा अनुमान है कि इसके लिये नारियां बहुत अधिक जिम्मेदार है. अपनी पीडित बहन को आश्वासन देने के बदले स्त्रियां उस पर टिप्पणियां पुरुषों से भी अधिक करती है.
4. बलात्कार की शिकार एक निरपराध कन्या के साथ अपने लाडलेदुलारे राजकुमार की शादी के लिये कितनी मांये तय्यार होती हैं. क्यों एक अबला का दर्द बांट कर उसे नया जीवन देने के लिये एक मां तय्यार नहीं होती.
कुल मिला कर कहा जाये तो आज जो सामाजिक विषमता दिखती है यह वांछनीय नहीं है, लेकिन इसके लिये मैं आप ही जिम्मेदार है.
परामर्श के लिये कृपया अपने प्रश्न बिना नाम एवं परिचय के इस चिट्ठे के दाईं ओर दिये गये फार्म द्वारा सारथी को भेजें!!
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दूसरी बात पुरषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर जहाँ भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दीखती हैं.
वाह वाह शास्त्रीजी क्या दुरस्त फ़र्मा रहे हैं.काला टीका करो कलम को कोई कमबख्त नज़र न लगा दे.
हमारी गुजराती भाषा के बड़े शायर शून्य पालनपुरी ने अपने गुजराती शेर में क्या सटिक कहा है.
काम दुशासन नुं सहेलुं थई गयुं,
वस्त्र खुद काढी रही छे द्रौपदी.
अर्थात
काम दुशासन का आंसा हो गया,
वस्त्र अब खुद ही उतारे द्रौपदी.
और इल्ज़ाम है दुशासनों पर उन्हें देखकर पाज़ामें हाथ जाता है,गर्मागरम का बोध होता है.दुनियां के सारे पुरुष उतंग शिखरों और अतल गहराइयों तक पहुँचने को लालायित रहते हैं.खैर हम तो पापी हैं सो हमारी बात और है.आप जैसे सात्विकजन जब खरी खरी कहने को बाध्य होजायें तब लगता है पानी सर से गया.
हाय नारी ,हाय नारी का राग आलापना, मात्र पुरुषों को कोसना,
बहुत बेइंसाफ़ी है ये.
अरे ओ साँभा कितना इनाम रक्खे हैं सरकार हम पर.बताओ तो लगायें निशाना इस गिरोह पर.हा,हा,हा, पुरषों से ज़्यादा स्त्रियां बलात्कार करती हैं मानसिक स्तर पर.दुबारा दुबारा मेरे मालिक क्या बात कही है.
नागार्जुनजी के उपन्यास रतीनाथ की चाची मैं नारी ही नारी की दुश्मन है कभी अम्मा बन कर कभी सास बनकर.
शास्त्रीजी हमने प्रसव पीड़ा के सिवा दुनियाँ की हर पीड़ा को सहा है रही बलात्कार की बात तो शारीरिक से ज़्यादा मानसिक अधिक खतरनाक हैं.
दूसरों की बात जाने दो सुपुत्रजी ने आल इंडिया नेशनल लॉ युनिवर्सिटी में परीक्षा पास कर झंडे गाडें तो धर्म पत्नी और उनके पिताश्री ने हमें बैंक से लोन लेकर पांच साल पढ़ाने की सलाह दी.जब की हमारी आर्थिक स्थित नहीं थी सालाना डेड़ लाख का खर्चा.
बेटी ने भाईश्री को 10वी कक्षा में ने तीन परसेन्ट से लीड दी वे 75 थे वो 78 हमने घर में कहा अगर ये भी आगे आलइंडिया टेस्ट पास करती है तो इसके लिये भी हम बैंक से लोन लेकर पढायेंगे. श्रीमतीजी बीच में टूट पड़ी कोई ज़रूरत नहीं वो तो कोई भी कोर्स कर लेगी.
हम ने खुश हो के बिटिया को एक्टीवा लोन पर दिला दिया और कहा कि आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ है.
लाड़ले जब घर मे होस्टल से आते हैं तब दीवाली सा माहौल होता है मिष्टान पकवान खैर गेहूं के साथ बथुये को भी पानी लग जाता है.
और उसकी शिकायत यूँ होती है आज तुम्हारी बेटी ने सोपिंग करते समय रुला लिया.इसकी फर्माइश ही पूरी नहीं होती.
फिर खुद ही हमारे साथ जाकर तीन टॉप्स लें आयी.घर बाहर सब जगह इन नारियों बीमारियों की पोलटिक्स क्या करें.
सच कहो तो टूट पड़ेगी पतित,नीच,दुष्ट,हमें सब सताते हैं,फिर टसुये बहाना शुरू अरे मार डाला पापियों ने कोई बचाओ मदद करे.फिर ढोगियों की फौज़ अपने अपने कंधे ले कर दौड़ेगी हाय रोना नहीं हम हैं न.अब पिक्चर शुरू होगी.आमीन.
“पुरुषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर करती हैं इस कारण बच जाती हैं. समाज में जहां भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दिखती हैं. पुरुष की वासना को भडका कर स्त्रियां जिस तरह से उनका मानसिक शोषण करती हैं वह पुरुषों का सामूहिक बलात्कार ही है. किसी जवान पुरुष से पूछ कर देखें. पुरुष को सजा हो जाती है, लेकिन किसी स्त्री को कभी इस मामले में सजा होते आपने देखा है क्या”
आप की उक्त बात से पूरी तरह से असहमति है।
आप ने दो असमान बातों को एक साथ रख दिया है। मानसिक और शारीरिक। आप को अपनी धारणा को तर्क संगत तरीके से रखना चाहिए था।
कमाल है मैं आपके विचारों से बिलकुल सहमत नहीं खास कर इस तथ्य से “पुरुषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर करती हैं इस कारण बच जाती हैं. समाज में जहां भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दिखती हैं. पुरुष की वासना को भडका कर स्त्रियां जिस तरह से उनका मानसिक शोषण करती हैं वह पुरुषों का सामूहिक बलात्कार ही है. किसी जवान पुरुष से पूछ कर देखें. पुरुष को सजा हो जाती है, लेकिन किसी स्त्री को कभी इस मामले में सजा होते आपने देखा है क्या.” अधनंगी स्त्रियां तो आदिकाल में भी थीं लेकिन तब भी क्या बलात्कार होते थे| खैर ये छोङिये ये बताईये कि आपकी यदि आपकी बेटी या बहुत करीबी दोस्ती की बेटी ऐसे कपङे पहन लेती हैं तो तब भी ये विचार आ सकते हैं. मेरी समझ से विचार लाने के लिये माहोल की कोई दरकार नहीं होती ये आप पर निर्भर करता है कि आप अपनी इंद्रियों पर कितना कंट्रोल कर पाते हैं.
इस बारे में टिप्पणी करना कठिन लगता है।
ज्ञानीराज द्विवेदीजी क्या आप नहीं जानते कि शरीर निर्दोष होते हैं पहले विकार मन में आते हैं फिर अंगो की सक्रियता और फिर अगली कार्यवाही होती है.
शरीर को मन हांकता है और विभाव अनुभावव्यभिचारीसंयोगा रस निष्पत्ति.आलंबन,उद्दीपन,आश्रय भी आप की समझ के बाहर हैं.
दुष्प्रेरण अबेटमेन्ट भी क्राइम की परिभाषा में आता है.आई.पी.सी. के अंतर्गत वहां सज़ा का प्राविधान है.
पहले मानसिक फिर शारीरिक इस तरह गति का प्रवाह होता है.
स्थाई भाव जानते हैं जिनसे रसों की निष्पत्ति होती है हर नर नारी के ह्रदय में ये विद्यमान रहते हैं मुख्यता काम जिससे श्रंगार रस की उत्पत्ति होती है.काम को हमारे यहां देवता की उपाधि दी गयी है कामदेव.
काम या रति ग़लत नहीं हैं मूलता मन जिसे दूषित करने की खुराक अगर कोई दे रहा है वो अधिक दोषी है.शास्त्रीजी जिस गंभीर समस्या का विश्लेषण कर रहे हैं और आप अपने गधे बीच में हांक रहे हैं.साहित्य,मनोविज्ञान,न्यायविज्ञान का कृपया अध्ययन करें.अब अब साफ साफ सुने और गुने शिक्षा विभाग में युनिवर्सिटी की परीक्षाओं में अगली बेंच पर बैठी शोर्ट जिन्स पहरे लड़की झुककर पेपर लिख रही है पीछे बैठे छात्र का विचलन वह पेपर नहीं लिख पा रहा.मेरी नज़र उस छात्र पर पड़ी पहले सोचा शाइद मेरी उपस्थिति के कारण परेशान है नकल पकडने में हमारी नकल पकड.ने में महारथ मानी गयी पर कुछ देर के बाद माज़रा समझ में आगया. तुरंत साथ में रही लेडी प्राध्यापक से कहा की इस लडकी को बाहर बुलाकर कहो परीक्षा में ढंग के कपड़े पहिर के आये.वास्तव में वो लड़की भी पेपर झुककर लिखने से होने वाले परिवर्तन से अनभिज्ञ थी उसे पता ही नहीं था कि क्लास में क्या सीन चल रहा था.पीछे वाले छात्र परेशान.
पर मां बाप को तो पता होता है कि नहीं.
बात छात्रों की नहीं अध्यापिकाओं की भी है.शिक्षक दिवस पर अध्यापक के रूप पढ़ानेवाली विभाग की छात्राओं से मैने कहा कि आप उस लोग उस दिन साड़ी पहिर कर आना क्लास मे स्टूडेंटस को लगना चाहिए तुम आज टीचर हो .एक छात्रा बोली सर सारी मैडम ड्रेस पहिन कर आती हैं आप उन्हें कुछ कहिये न.मैंने कहा वे अपने को सिकस्टीन स्वीट समझती हैं 50 50 किलो के कूल्हे मटक मटक कर चलना तुम उनकी बात छोड़ो.वे मान गयीं.
एक बार स्टाफ में कुछ, मुग्धा, प्रौढा नायिका श्रेणी की अध्यापिकाओं से मैने कहा कि मैं जिस दिन प्रिंसीपल के प्रमोसन में आया उस दिन तुम सबको साड़ी पाहिन कर आना कंपलसरी करूँगा. एक प्रौढा नायिका टूट पड़ी आप लोगों को सारी में आसानी रहती है ताक झांक ढंग से कर सकते हो.
मैं चुप हंसी आगयी पर दिल बहुत रोया सारे पुरुषों को एक ही काम रहता है.पत्नीजी कभी सारी पहिने ढंग से देखो थोड़ी तारीफ करो कि तुरंत टूट पड़ेंगी आप को आज खूंन पीना है.आपका मतलब समधती हूँ क्या करें.जाये तो जायें कहां.शास्त्रजी आप मनोविज्ञान जानते है हमे सपने बहुत आते हैं एक हार हमने परने का वर्णन कर दिया देवी देवता टूट पड़े पापी पापी.सबादुओं से ज़्यादा साधुओं और साध्वीयों को आते हैं क्योकि उनका काम उसी पर चलता है.हम तो खैर ज्यों त्यों एडजेस्ट कर लेते हैं.
एक पल्लूदेवी को हम जानते हैं बार बार पल्लू गिराकर फिर अदा से संभालती हैं .
एक नाभिदेवी नाभि दर्शन कराने में दक्ष हैं ,
फिर भी इल्ज़ाम ये कि तुम लोगों को साड़ी में आसानी रहती है.हमें साड़ी पहिनाने में तुम्हारी साज़िश है.
क्या करें कहां जाय गिरा कंदरा नदी नाले समंदर हर जगह यही वाणी
सुनाई देगी हम सब पुरुष पापी हैं और तुम सब देवियां .
हा हा हा देवियां.
शास्त्रीजी की गंभीर चर्चा में गंभीर लोग ही आयें अन्य लोग कहीं और रेंकें.शास्त्रीजी ने सत्य वचन कह कर हमारा मन जीत लिया.
सभी हमें मुर्ख भले समझे पर हैं हम बड़े ऊंचे किस्म के संत है. है न शास्त्रीजी.
अब हां कह दीजिये न.
पर आप भी कुछ कम नहीं हैं प्रभू हमको मरवायेंगे फिर तमाशा देखेंगे दूर से ऐसा मती करियो हमे बहुत बुरा लगेगा.शास्त्रीजी जानते हैं हम तन में हैं ही नहीं.एक मश्हूर ग़ज़ल की पंक्तियां हैं
प्यार का पहला ख़त लिखनें में वक्त तो लगता है.
नये परिन्दों को उड़ने में वक्त तो लगता है,
जिस्म की बात नहीं थी उस के दिल तक जाना था,
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है.
मेरे पूरक ??
चीर हरण मेरा होता आया
जुआ जब जब तुमने था खेला
वनवास काँटा मैने
धोबी को जब वचन तुमने दिया
घर दोनों ने बसाया
मालिक तुम कहलाये
करवाचौथ का व्रत मैने रखा
लम्बी आयु तुमने पायी
नौ महीने कोख मे मैने रखा
वंश बढ़ा तुम्हारा
भोगा और सहा सिर्फ़ मैने
फिर किस अधिकार से
मेरे पूरक तुम कहलाये ??
बिल्कुल असहमत!!
केवल लक्षणों पर आधारित सोच है{अगर वाकई सोच कर लिखा है जो कि लगता नही है}जिन लक्षणों से आप परेशान हैं उनके ऐतिहासिक समाजिक कारणो^ पर रिसर्च कीजिये और निषपक्ष बयान दीजिये।कुण्ठाएँ निकालते रहने से कुछ नही होगा।
और जवान पुरुषों से ही क्या पूछें , बूढे बेचारे भी वयाग्रा खा खाकर बलत्कृत हो रहे हैं स्त्रियों द्वारा।
रचना जी से यहाँ एक करारे कमेंट की उम्मीद थी ,इस पोस्ट का लिंक उन्हीं से मिला।
शास्त्री जी आपके विचारों से एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में सहमति है -नारी प्रत्यक्षतः जानबूझ कर ऐसा नहीं करती मगर ऐसा हो जाता है ! वह मानसिक शोषण नही करती लोग शोषित हो जाते हैं -कारण वह पुरुषों के क्षेत्र में निरंतर अतिक्रमण कर रही है .यह सही है या ग़लत विज्ञान का विषय यह नही है -मगर तथ्य यह है की जाना सदियों से नर का अधिपत्य था वह अब नारियों से अतिक्रमित हो रहा है -हम गुफा जीवन की और देखें तो बमुश्किल २५ हजार वर्ष पहले जब हम गुफाओं में रहते थे तो केवल पुरुषों की टोली शिकार पर निकलती थी -महिलायें उतनी ही जिम्मेदारी से घर आँगन का ख्याल रखती थीं -सिल बता संभालती थीं -चूल्हा चौका करती थी ,कुछ साग सब्जियाँ उगाती थी .यह लाखों वर्ष से होता आया था .
गुफा जीवन बदला और आज हम रोल रिवर्सल के दंभ भरने लगे जबकि हमारी जीन अभी भी वही हैं ज्यादा नहीं बदले है -तो मुश्किलें तो आ रही हैं .अपराध बेतहाशा बढ़ रहा है -बलात्कार दिन दूने रात चौगुने !इनके लिए हमें सामाज जैविकी से उत्तर लेने होंगे .
समाज जैविकी के बारे में कभी साईब्लोग पर विस्तार से लिखूंगा .
यह तो विचार विमर्श नहीं है. यह तो गाली युद्ध है, एक दूसरे को नीचा दिखाया जा रहा है. इस से क्या हासिल होगा? कुछ मिनट का संतोष कि हमने भी खूब जवाब दिया. क्या यही उद्देश्य है ब्लागिंग का और ब्लाग पर आने-जाने का?
आज जरा सा नाम कमाना हो तो पुरुषों के खिलाफ़ और नारी के समर्थन में कुछ भी लिखीए आपको हाथों हाथ लपक लिया जायेगा। ये ट्रेंड है आज का। ऐसा नहीं है कि मैं दुनिया की इस आधी आबादी के खिलाफ़ हूं। पर जब देखा जाता है कि आज की हेमाएं, शबानाएं, नीनाएं, देवीआएं नारी होते हुए नारी की राहों में कांटे बिछाती हैं, और उन्हीं की आगवानी कर समाज गौरवान्वित होता है और वे ही नारी उद्धार की बातें करती हैं तो कोफ़्त होती है ऐसी बातें करने वालों पर।
विडंबना है कि बच्चियों की भ्रुण हत्या के लिए उनकी दादी, बुआ तथा माँ ज्यादा जिम्मेवार हैं। इस सब की तरफ़ ध्यान ना देकर पुरुष की तथाकथित बराबरी के लिए नारी ने जो पत्नोमुख रास्ता अख्तियार किया है वह कहां तक उचित है। इस तरह के सारे संगठन अपने सुसज्जित कमरों से बाहर आ बच्चियों की शिक्षा, सुरक्षा तथा सेहत पर ध्यान दें और दिलायें, तभी संसार का भविष्य सुरक्षित हो पायेगा।
@ gagansharma09
इस तरह के सारे संगठन अपने सुसज्जित कमरों से बाहर आ बच्चियों की शिक्षा, सुरक्षा तथा सेहत पर ध्यान दें और दिलायें, तभी संसार का भविष्य सुरक्षित हो पायेगा।
ab sab kuch ham kar dae to aap kyaa achaar daalegae yaa bartan maajegae yaa kapdey dhoyae gae .
kuch kaam kaaj aap bhi karlo
maa nae pedaa kar diyaa , biwi nae bistar kaa sukh dae diyaa aur beti nae moksh dilwaa diyaa tum nithaale bhaashan daetey raho
यदि इस प्रकार से बलात्कार के आंकड़े बनाए जाने लगें तो क्या ही बढिया हो. क्योंकि आप जिस मानसिक बलात्कार की बात कह रहे हैं, उसे तो हर आयु की स्त्री – क्या बूढी,क्या बची, क्या जवान , क्या कुरूप या पगली तक भी, दिन रात झेलती है. जो आँखों आँखों तक में उसे निगल जाने वाले, छेड़ने वाली, चुहल करने वाले, भद्दे कमेंट्स करने वाली, मजाक उड़ाने वाली आदि आदि आदि आदि लाखों लाख बलात्कृताएं ही नही, अरबों बलात्कृताएं मिल जाएँगी. इन में यदि ऐसे आंकडें भी सम्मिलित कर लिए जाएँ कि कौन पुरूष किस – किस स्त्री की कल्पना मात्र से कब कब स्खलित हुआ तो इस संसार के ९९% पुरूष इस मानसिक बलात्कार के दोषी हैं. स्त्री के लिए तो यह मानसिक बलात्कार की सजा का प्रावधान बहुत हक़ में ही जाएगा.
और जनाब ज़रा यह बता दें कि जिन के साथ बलात्कार होता है क्या वे अभी गत १५-२० वर्ष की ही स्त्रियाँ हैं? क्योंकि भई उस से पहले तो स्त्रियाँ साडी सलवार आदि वस्त्रों में ही तो रहा करती थीं, उन्हें देख कर उत्तेजित हो कर आक्रमण करने वाले पुरुषों को किस वस्त्राधारित तर्क की जरूरत से सही सिद्ध करेंगे? यह तो वही हुआ कि गाजर बड़ी रसीली दिख गयी तो हड़प ली. दोष तो उस गाजर का ही है न कि भला वह इतनी रसीली थी ही क्यों और वह मेरी नजर में आई ही क्यों?
कितने भी भोथरे तर्क गढ़ कर आप पाप को पाप कहने से रोकने की जद्दोजहद करते रहें, पर पाप पाप ही रहेगा. और वह पलट पलट कर कुतर्क रचने को बस्द्ति करेगा जिनकी नंगी सच्चाई से मुँह फेरने के चक्कर में और नंगई दिखेगी.
@ gagansharma09
इस तरह के सारे संगठन अपने सुसज्जित कमरों से बाहर आ बच्चियों की शिक्षा, सुरक्षा तथा सेहत पर ध्यान दें और दिलायें, तभी संसार का भविष्य सुरक्षित हो पायेगा।
ab sab kuch ham kar dae to aap kyaa achaar daalegae yaa bartan maajegae yaa kapdey dhoyae gae .
kuch kaam kaaj aap bhi karlo
maa nae pedaa kar diyaa , biwi nae bistar kaa sukh dae diyaa aur beti nae moksh dilwaa diyaa tum nithaale bhaashan daetey raho
अब आये हैं तो कहते चलें कि आज की पोस्ट से घोर असहमति है । फ़िर भी इसने विमर्श के लिये मौका दिया है, आज ही सुजाता ने बडी अच्छी पोस्ट चढाई है इसी सन्दर्भ में, आगे लोगों की प्रतिक्रिया का इन्तजार रहेगा ।
मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ.
एक आपबीती मेरी भी सुनें.
मैं एक बार बाज़ार जा रहा था. मैंने एक लड़की को देखा, वह लगभग २४ साल की थी. जींस और टीशर्ट पहने हुए थी. जहाँ तक मेरा अनुमान है, उसने टीशर्ट के नीचे चोली भी पहनी थी पर सब कुछ इतना टाइट था कि हर ‘ पर्वत की चोटी ‘ और ‘ घाटी ‘के दर्शन हो रहे थे. मैं पूछता हूँ कि क्या मेरी सोच गन्दी है या उसका पहनावा.
सीधा जवाब है पहनावा, मैंने मन ही मन कहा (हरी ॐ ये भारत है या रोम) आज हर जगह अधनंगी लडकियां दिख जाती हैं. कोई इस अपसंस्कृति को क्यों नहीं रोकता !!
यदि आगे उसका किसी ने रेप कर दिया हो तो , उस बलात्कारी को दोषी कैसे ठहराएंगे !!
चलिए यदि वह दोषी हो भी तो क्या मेरे मन में काम दुर्भावनाएं जगाने के लिए वह दोषी नहीं मेरा तो मानसिक उत्पीडन उसने किया ही.
यही कारण है कि जींस पहनी या कु-वस्त्र पहनी लड़कियों से मैं उनकी ओर बिना देखे ही बात करना पसंद करता हूँ, कौन अपना बलात्कार करवाए . जबकि सलवार सूट पहनी लड़कियों के प्रति मैं अति विनम्रता से पेश आता हूँ. बस में सीट छोड़ दूँगा. और कहीं पर भी किसी भी लड़की की सहायता को तैयार रहता हूँ.
SUJATA
http://sarathi.info/archives/1124
http://sarathi.info/archives/1126
http://sarathi.info/archives/1131
http://sarathi.info/archives/1132
kyuki mae is vishy par niranter asmati prakat kartee rahee hun issii blog par so puneh usii baat ko usii blog par kehna ??
PAR MAERII GHOR ASHEMATI HAEN
शास्त्री जी की बात से लगभग पूरी तरह से असहमत हुं। जो उनका observation है और जो statistics उन्होनें दी हैं उनसे पूरी तरह असहमत हूँ। चाहे पुरुष हों या स्त्रीयाँ सभी मे अच्छे और बुरे variants होते हैं । कुछ बुरी स्त्रीयों के inappropriate पहनावे को लेकर सारी स्त्री जाती कि मानसिक सोच को गलत और बहुत से पुरुषो को जो कि अपनी इन्द्रीयों को वश मे नहीं रख पाते उनको cleanchit देना सरासर गलत है। अगर वहशीपन कि बात की जाए तो पुरुष आज भी स्त्री से ज़्यादा proportion में वहशी हैं।
मेरी असहमति दर्ज हो किंतु ये केवल विषयवस्तु से ही नहीं है वरन उस घोषणा से भी है कि ये बात आप किसी विमर्श के लिए है, अपितु हमें तो साफ जान पड़ता है कि पोस्ट, पोस्ट नहीं है पोलिमिक्स भी नहीं है, केवल ट्राल है। किसर और का लिखा होता तो वहीं करते जो ट्राल के साथ किया जाना चाहिए यानि इग्नोर करते पर आपने लिखा है इसलिए ट्राल लिखने की प्रवृत्ति से असहमति जरूरी है (विषय वस्तु तो इस असहमति के योग्य नहीं है)
हालॉंकि मेरे लिए अधिक चिंता की बात ये है कि आप सरीखा व्यक्ति ऐसा सोच कैसे पाता है। फिर समझ आता है कि चूंकि आप विकासवाद को ही नकारते हैं (क्यों न नकारें, आखिर डार्विन सवीकारेंगे तो इसाईयत पर छींटें आएंगी) विकासवाद को नकारने का परिणाम यह है कि आप जिस तर्क से पीढि़त को ही दोषी करार दे रहे हैं वह खढ़ा रह पा रहा है वरना सोचें और बताएं कि किन प्रक्रियाओं के तहत पुरूष ऐसा बन गया कि स्त्री देह का दर्शन भर उसे उत्तेजित कर देता है- आप झट कहेंगे कि क्या करें प्रभु ने बनाया ऐसा है- जबकि विकासवाद कहेगा कि किसी ससुरे प्रभु ने ऐसा नही बनाया वरना पुरूष खुद ही इस पशुत्व का विकास करता रहा है। खैर छोड़े कुल मिलाकर सार से कि इस सारे कुतर्क के पीछे की सच्चाई ये है कि आप मनुष्य को इसी मानसिक संरचना के साथ किसी ऊपरवाले की निर्मिति मानते हैं इसलिए उसे दोषमुक्त कर दे रहे हैं तथा औरतों को अपनी ‘हद’ में रहने की सलाह भी।
हमारी इससे असहमति है। दर्ज करें। बाद की पोस्टों की उपेक्षा करेंगे।
bahut sundar swaagat hai aapkaa. isase saaf jaahir hai ki aap apanee kamjoriyan janate\janatee hain, nahee to koi kaaran nahee yun chhup ke badhaas nikaalane kaa.
shastreejee dhyaan den, bahas hogee to kuchh to fal saamane aayegaa—par yah kaisee bhaa\shaa
“gaganbaesharma09 on September 3, 2008 11:07 pm”
मुझे हैरत है इस प्रकार की परिचर्चा को पढ़कर जो कथित बुद्धिजीवी ब्लॉगरों के बीच हो रही है। यहाँ स्पष्टतः दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं समानान्तर चल पड़ी हैं। अपने-अपने चरम की ओर खींचती हुई। दोनो खेमे अपना-अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अतिवाद का सहारा ले रहे हैं इसलिए व्यावहारिक धरातल की सच्चाई से दोनो दूर होते जा रहे हैं, एक दूसरे की विपरीत दिशा में।
शास्त्री जी की ‘मानसिक बलात्कार’ की थियरी अतिरंजित है, तो सुजाता जी की बुर्का पहनने की घोषणा भी उतनी ही निराशाजनक है।
इस सनक को एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों को पाँच श्रेणियों में बाँट सकते हैं:- १.अर्द्धनग्न २.उत्तेजक ३.आकर्षक ४.सादगी भरे ५.पूर्ण आवृत्त अनाकर्षक। आप अपने चारो ओर के समाज में और फिल्म-टीवी के पर्दे पर नजर दौड़ाइए तो आसानी से ये श्रेणियाँ पहचान लेंगे।
इन पाँच श्रेणियों में शास्त्री जी को शायद पहली और अधिक से अधिक दूसरी श्रेणी से आपत्ति होगी। मुझे नहीं लगता कि वो पाँचवीं श्रेणी की वकालत कर रहे हैं जैसा कि सुजाता जी ने अपनी ‘नोटपैड’ पर लिख मारा है।
इसी प्रकार मै समझता हूँ कि दूसरा नारीवादी पक्ष भी शास्त्री जी का प्रबल विरोध करते हुए भी अपने घर की बेटियों-बहनों को पहली श्रेणी के कपड़े तो नहीं ही पहनाना चाहेगा। फिर कोई इस बात को क्यों अनदेखा कर रहा है कि बहुमत श्रेणी नं.३ के पक्ष में ही जाएगा। मतभेद होगा भी तो नं.२ और नं.४ के बीच हो सकता है क्यों कि व्यक्तिगत दृष्टिकोण में स्वाभाविक अन्तर होना लाज़िमी है। कुछ अदद राखी सावन्तों अथवा धार्मिक कूपमण्डूकों के अलावा नं.१ व नं.५ के समर्थक तो ढूँढे नहीं मिलेंगे। खासकर इस चर्चा में शामिल आदरणीय ब्लॉगरों और टिप्पणीकारों के बीच तो कत्तई नहीं।
फिर झगड़ा किस बात का है भाई? क्यों विरोधी पक्ष के ऊपर जबरदस्ती नं.१ या नं.५ का लेबल चिपकाने को हलकान हुए जा रहे हैं आपलोग? कल्पनालोक से बाहर आकर देखिए न, आज भी अधिकांश नर-नारी एक साथ सामाजिक और पारिवारिक जीवन नॉर्मल होकर जी रहे हैं।
@मेरे पूरक
रचना जी ने बहती गंगा में हाथ धोने के लिए अपनी प्रिय कविता यहाँ भी चेंप दी। उनका जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज है। शायद विदेशी सहायता पा रहा है। मैने उनके ब्लॉग पर कभी मध्यमार्ग के सुनहरे रास्ते पर चलने के लिए उन्हें आमन्त्रित करने के उद्देश्य से उनकी कविता का जवाब यों दिया था:-
‘अंधे का पुत्र अंधा’ से बात आगे बढ़ गयी थी
चीर हरण की शर्म धोने के लिए
‘महाभारत’ की लड़ाई लड़ी गयी थी
धोबी को दिया गया वचन
दे गया राम को भी वही वियोग
जो सीता ने वनवास में पाया
लव-कुश से राम की गोद भी खाली रही
नहीं मिला संयोग
आज भी हम सीताराम कहते हैं
राम-सीता नहीं
घर बसाने पर
मालकिन का दर्जा भी अपने-आप मिलता है
कोई मालिक ख़ैरात नहीं करता है
लम्बी आयु की कामना में
करवाचौथ
इसमें कोई स्वार्थ न हो
तो बन्द कर दें इसे
बहुतों ने किया भी है
लेकिन
शायद यह हो न सकेगा
प्रकृति का वरदान
माँ की कोख
इसपर भी तेरा-मेरा?
क्या कहें!
इसका पूरक भी बताना पड़ेगा?
कथाओं को पूरा पढ़ना जरूरी है
अपने को अलग करने की
दीवानगी
कहाँ तक ले जाएगी?
डर लगता है।
मुझे हैरत है, इस प्रकार की परिचर्चा को पढ़कर… जो कथित बुद्धिजीवी ब्लॉगरों के बीच हो रही है। यहाँ स्पष्टतः दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं समानान्तर चल पड़ी हैं। अपने-अपने चरम की ओर खींचती हुई। दोनो खेमे अपना-अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अतिवाद का सहारा ले रहे हैं इसलिए व्यावहारिक धरातल की सच्चाई से दोनो दूर होते जा रहे हैं, एक दूसरे की विपरीत दिशा में।
शास्त्री जी की ‘मानसिक बलात्कार’ की थियरी अतिरंजित है, तो सुजाता जी की बुर्का पहनने की घोषणा भी उतनी ही निराशाजनक है।
इस सनक को एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं।
महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों को पाँच श्रेणियों में बाँट सकते हैं:- १.अर्द्धनग्न २.उत्तेजक ३.आकर्षक ४.सादगी भरे ५.पूर्ण आवृत्त अनाकर्षक। आप अपने चारो ओर के समाज में और फिल्म-टीवी के पर्दे पर नजर दौड़ाइए तो आसानी से ये श्रेणियाँ पहचान लेंगे।
इन पाँच श्रेणियों में शास्त्री जी को शायद पहली और अधिक से अधिक दूसरी श्रेणी से आपत्ति होगी। मुझे नहीं लगता कि वो पाँचवीं श्रेणी की वकालत कर रहे हैं जैसा कि सुजाता जी ने अपनी ‘नोटपैड’ पर लिख मारा है।
इसी प्रकार मै समझता हूँ कि दूसरा नारीवादी पक्ष भी शास्त्री जी का प्रबल विरोध करते हुए भी अपने घर की बेटियों-बहनों को पहली श्रेणी के कपड़े तो नहीं ही पहनाना चाहेगा। फिर कोई इस बात को क्यों अनदेखा कर रहा है कि बहुमत श्रेणी नं.३ के पक्ष में ही जाएगा। मतभेद होगा भी तो नं.२ और नं.४ के बीच हो सकता है क्यों कि व्यक्तिगत दृष्टिकोण में स्वाभाविक अन्तर होना लाज़िमी है। कुछ अदद राखी सावन्तों अथवा धार्मिक कूपमण्डूकों के अलावा नं.१ व नं.५ के समर्थक तो ढूँढे नहीं मिलेंगे। खासकर इस चर्चा में शामिल आदरणीय ब्लॉगरों और टिप्पणीकारों के बीच तो कत्तई नहीं।
फिर झगड़ा किस बात का है भाई? क्यों विरोधी पक्ष के ऊपर जबरदस्ती नं.१ या नं.५ का लेबल चिपकाने को हलकान हुए जा रहे हैं आपलोग? कल्पनालोक से बाहर आकर देखिए न, आज भी अधिकांश नर-नारी एक साथ सामाजिक और पारिवारिक जीवन नॉर्मल होकर जी रहे हैं।
@मेरे पूरक
रचना जी ने बहती गंगा में हाथ धोने के लिए अपनी प्रिय कविता यहाँ भी चेंप दी। उनका जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज है। शायद विदेशी सहायता पा रहा है। मैने उनके ब्लॉग पर कभी मध्यमार्ग के सुनहरे रास्ते पर चलने के लिए उन्हें आमन्त्रित करने के उद्देश्य से उनकी कविता का जवाब यों दिया था:-
‘अंधे का पुत्र अंधा’ से बात आगे बढ़ गयी थी
चीर हरण की शर्म धोने के लिए
‘महाभारत’ की लड़ाई लड़ी गयी थी
धोबी को दिया गया वचन
दे गया राम को भी वही वियोग
जो सीता ने वनवास में पाया
लव-कुश से राम की गोद भी खाली रही
नहीं मिला संयोग
आज भी हम सीताराम कहते हैं
राम-सीता नहीं
घर बसाने पर
मालकिन का दर्जा भी अपने-आप मिलता है
कोई मालिक ख़ैरात नहीं करता है
लम्बी आयु की कामना में
करवाचौथ
इसमें कोई स्वार्थ न हो
तो बन्द कर दें इसे
बहुतों ने किया भी है
लेकिन
शायद यह हो न सकेगा
प्रकृति का वरदान
माँ की कोख
इसपर भी तेरा-मेरा?
क्या कहें!
इसका पूरक भी बताना पड़ेगा?
कथाओं को पूरा पढ़ना जरूरी है
अपने को अलग करने की
दीवानगी
कहाँ तक ले जाएगी?
डर लगता है।
रचना जी ने बहती गंगा में हाथ धोने के लिए उनका जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज है। शायद विदेशी सहायता पा रहा है। Mr siddarth shanklar tripathi
you need to learn not pass personal comments
please give full explanation of शायद विदेशी सहायता पा रहा है।
And mr shashtri
When you publish comments you need to moderate the comments which have personal sledgeing
Both you should prove that i am a fanatica and i am getting aidf from abroad . You are both trying to label a common blogger as fanatic and someone who is recieveing aod fr her efforts form abroad . both of you need to appologise for suchstatements and improve your own understanding about woman and mr siddarth about blogging
and mr sidaarth see the links below whioc i ahve pasted in another comment and why have you ignore them
I PITY MR SIDDARTH THOUGHT PROOCESS AND EQUALLY FEEL SORRY FOR MR SHASHTRY WHO WANTS TO PUBLISH SUCH ILLOGICAL THINGS ON HIS BLOG
http://sarathi.info/archives/1124
http://sarathi.info/archives/1126
http://sarathi.info/archives/1131
http://sarathi.info/archives/1132
रचना जी,
सबसे पहले आपका आदेश सर-माथे। मेरी टिप्पणी से आपके मन को तकलीफ़ हुई है तो इसका हमें अत्यन्त खेद है,हमें क्षमा करें। शायद हम अपने शब्दों को आपके समझने लायक नहीं चुन सके।
असल में हम भारत के भीतर जब ऐसा कुछ होता देखते हैं जो यहाँ की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के विपरीत है तो स्वाभाविक रूप से ऐसा लगता है कि इसका श्रोत पश्चिमी देशों की सभ्यता और संस्कृति में से निकला होगा। “पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव” लिखने के बजाय मैने “विदेशी सहायता” का प्रयोग सिर्फ़ भाषा में नवीन व्यञ्जना लाने के लिए कर दिया था, जो मेरी समझ से personal sledgeing की श्रेणी में नहीं आता। इशारा सिर्फ़ वहाँ के उन्मुक्त समाज की ओर था।
यदि आपके मन में “विदेशी सहायता पाने वाले आतंकवादियों का भाव” आ गया तो हम इसे अपना दुर्भाग्य मानते हैं।
और इस दुर्भाग्य पर पश्चाताप ही कर सकते हैं। एक दुर्भाग्य हमारा यह भी है कि हम आपके कुछ विचारों का समर्थन नहीं कर पाते और आपको असहमति का प्रत्येक शब्द ‘अपशब्द’ और personal sledgeing लगता है।
`बहती गंगा में हाथ धोने’ से तात्पर्य यह था कि जिस मुद्दे पर बहस हो रही थी उसमें मेरे पूरक कविता पेश करने का औचित्य मेरी समझ में नहीं आया। यह तो मुख्य मुद्दे को दूसरी राह पर ले जाना हुआ।
आपके लिए ‘…जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज’ कहना कितना सही था उसे सिद्ध करने के लिए आपकी यह प्रतिक्रिया और वह कविता ही काफ़ी है। अन्य उदाहरण देकर मैं दूसरों का समय खराब करना नहीं चाहता।
आपने गुस्से में आकर जो टाइप किया है उसे एक बार ख़ुद पढ़कर देखिए कि अच्छा भला इन्सान भी इस अवस्था में कितनी साधारण गलतियाँ करने लगता है।…i am a fanatica and i am getting aidf from abroad. …mr sidaarth see the links below whioc i ahve pasted
रही बात मेरी ‘विचार प्रक्रिया’ पर दया करने [I PITY MR SIDDARTH THOUGHT PROOCESS] की तो यह मुझे बुरा नहीं लगेगा। मैं यदि आपके भीतर ‘दया’ और ‘करुणा’ के भावों का लेश मात्र भी संचार करा पाता हूँ तो अपने को तुच्छ प्राणी समझने के बजाय धन्य मान लूंगा।
तार्किकता की परिभाषा दुबारा पढ़ना पड़ेगा तभी आपकी “..SUCH ILLOGICAL THINGS” का सूत्र पकड़ पाऊंगा। तबतक पुनः क्षमा।
आपके आदेशानुसार full explanation की मेरी कोशिश इससे आगे नहीं बढ़ पा रही है, इसलिए यदि कुछ छूट गया हो तो “…appologise” करता हूँ।
(पाठकों से एक स्पष्टीकरण: मैने अंग्रेजी के शब्दों की copy & paste के अलावे उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है)
रचना जी,
सबसे पहले आपका आदेश सर-माथे। मेरी टिप्पणी से आपके मन को तकलीफ़ हुई है तो इसका हमें अत्यन्त खेद है,हमें क्षमा करें। शायद हम अपने शब्दों को आपके समझने लायक नहीं चुन सके।
असल में हम भारत के भीतर जब ऐसा कुछ होता देखते हैं जो यहाँ की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के विपरीत है तो स्वाभाविक रूप से ऐसा लगता है कि इसका श्रोत पश्चिमी देशों की सभ्यता और संस्कृति में से निकला होगा। “पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव” लिखने के बजाय मैने “विदेशी सहायता” का प्रयोग सिर्फ़ भाषा में नवीन व्यञ्जना लाने के लिए कर दिया था, जो मेरी समझ से personal sledgeing की श्रेणी में नहीं आता। इशारा सिर्फ़ वहाँ के उन्मुक्त समाज की ओर था।
यदि आपके मन में “विदेशी सहायता पाने वाले आतंकवादियों का भाव” आ गया तो हम इसे अपना दुर्भाग्य मानते हैं।
और इस दुर्भाग्य पर पश्चाताप ही कर सकते हैं। एक दुर्भाग्य हमारा यह भी है कि हम आपके कुछ विचारों का समर्थन नहीं कर पाते और आपको असहमति का प्रत्येक शब्द ‘अपशब्द’ और personal sledgeing लगता है।
`बहती गंगा में हाथ धोने’ से तात्पर्य यह था कि जिस मुद्दे पर बहस हो रही थी उसमें मेरे पूरक कविता पेश करने का औचित्य मेरी समझ में नहीं आया। यह तो मुख्य मुद्दे को दूसरी राह पर ले जाना हुआ।
आपके लिए ‘…जगजाहिर चरमपंथ असीम ऊर्जा से लबरेज’ कहना कितना सही था उसे सिद्ध करने के लिए आपकी यह प्रतिक्रिया और वह कविता ही काफ़ी है। अन्य उदाहरण देकर मैं दूसरों का समय खराब करना नहीं चाहता।
आपने गुस्से में आकर जो टाइप किया है उसे एक बार ख़ुद पढ़कर देखिए कि अच्छा भला इन्सान भी इस अवस्था में कितनी साधारण गलतियाँ करने लगता है।…i am a fanatica and i am getting aidf from abroad. …mr sidaarth see the links below whioc i ahve pasted
रही बात मेरी ‘विचार प्रक्रिया’ पर दया करने [I PITY MR SIDDARTH THOUGHT PROOCESS] की तो यह मुझे बुरा नहीं लगेगा। मैं यदि आपके भीतर ‘दया’ और ‘करुणा’ के भावों का लेश मात्र भी संचार करा पाता हूँ तो अपने को तुच्छ प्राणी समझने के बजाय धन्य मान लूंगा।
तार्किकता की परिभाषा दुबारा पढ़ना पड़ेगा तभी आपकी “..SUCH ILLOGICAL THINGS” का सूत्र पकड़ पाऊंगा। तबतक पुनः क्षमा।
आपके आदेशानुसार full explanation की मेरी कोशिश इससे आगे नहीं बढ़ पा रही है, इसलिए यदि कुछ छूट गया हो तो “…appologise” करता हूँ।
(पाठकों से एक स्पष्टीकरण: मैने अंग्रेजी के शब्दों की copy & paste के अलावे उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है)
mr sidaarth
the problem with most indians is that they are not willing to see and accept the changes in the society . they are afraid to see any change coming thru . the indian culture has been one where many cultures are intermixed . what you call as उन्मुक्त समाज i would prefer to call it as free society . there is a difference between unmukt and mukt .
`बहती गंगा में हाथ धोने’ से तात्पर्य यह था कि जिस मुद्दे पर बहस हो रही थी उसमें मेरे पूरक कविता पेश करने का औचित्य मेरी समझ में नहीं आया। यह तो मुख्य मुद्दे को दूसरी राह पर ले जाना हुआ।
Since डा अरविंद की टिप्पणी in last post was on purak and the question of this post was on the same comment i post my comment as a “poem ” and if you feel its a way of diverting the issue then you need to read the whole post and the post before and all the links that i have posted here to make u understand that i am talking on the relevent issue and its no whjere mandatory to post a comment in prose only or is it ??
पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव” लिखने के बजाय मैने “विदेशी सहायता” का प्रयोग सिर्फ़ भाषा में नवीन व्यञ्जना लाने के लिए कर दिया था, you are free to write any thing but when you mark it @ rachna then its targetted to me or for that matter to any blogger whose name you take . there is a ethics in blogging which is not followed in hindi blogging and if you people are so against foriegn culture STOP BLOGGING because blogging came from google or weblog and computers are also not indian born so stop using all these techniques , why follow them . Why be so self centered to use things that benefit you and when others use it becomes “विदेशी सहायता” . STOP USING YOUR COMPUTER ALL TOGHETHER , DONT POST ANY COMMENT , DONT BLOG BECAUSE ALL THSE THINGS ARE FOREIGN AND NOT A PART OF प्राचीन सभ्यता और संस्कृति .
personal sledging is when we take a name and write things so that we can assasinate the character of a individual like you did by saying “विदेशी सहायता” .
PLEASE TAKE MY SINCERE ADVICE AND FIRST DECIDE IF YOU WANT TO BLOG OR NOT BECAUSE BLOGGING IS NOT OF INDIAN ORIGIN AND ONLY THEN POST OTHER COMMENTS OR REPLY TO THIS COMMENT AS if we have to set rules we should first set them for ourselfs .
PLEASE STOP BLOGGING AND COMMENTING because it will show that you are a slave to USA
मैडम रचना जी,
आप धन्य हैं… …आपको शत शत नमन् … कुतर्क करने में मैं अक्षम हूँ, इसलिए क्षमा याचना के साथ good bye. मेरे ब्लॉग पर आप ही जैसी किसी अनाम सख़्सियत की नेक सलाह है कि मुझे नारी ब्लॉ्ग्स पर अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करनी चाहिए। आगे से इस gagging order का खयाल रखूंगा। धन्यवाद।
कुतर्क करने में मैं अक्षम हूँ, aap sab cheeza mae aksham haen kyuki aap discussion ko kutark kaeh rahey haen ,
aap discussion karna hee nahin jaantey aur kyuki baat akaty thee so kutark hogayee
mae to yahaan thee hee nahin discussion mae
aap nae @ likh kar mujeh baadhy kiya ki aap ko jwaab dun
aur jo paalayan kartey haen wo yahii kehtey haen
aap paalayan kar rahey haen yae maamney kae liyae dhyanyvaad , blogging kab band kar rahey avshy suchna dae yahii par haa haa haa