हिन्दी जगत में पेरेटो सिद्धांत की चर्चा सबसे पहले ज्ञान जी ने की थी. यह सिद्धांत हर उस प्रक्रिया पर लागू होता है जहां बहुत सारे लोग, वस्तुएं, या प्रक्रियायें एकसाथ कार्य करती है. पेरेटो सिद्धांत के गणित की सहायता से इस तरह एक एक समूह के व्यवहार को सही सही समझा जा सकता है.
आज के इस लेख के संदर्भ में इस सिद्धांत को मोटे तौर पर रखा जाये तो वह इस तरह होगा:
यदि कही भी एक समूह (उदाहरण, चिट्ठाकारों का समूह) कार्य कर रहा हो तो
(1) उस समूह के 20% लोग उस समूह में रहते हुए भी उस समूह में किसी तरह का सामूहिक योगदान नहीं करेंगे.
(2) उस समूह के 20% लोग उस समूह में रहते हुए भी उस समूह में किसी तरह का नुकसानदायक कार्य करेंगे.
(2) वह समूह बचे हुए 60% लोगों के कारण खुशी, समर्पण, एवं दक्षता के साथ कार्य करता है.
जब से हिन्दी चिट्ठों ने 250 का आंकडा पार किया है तब से ये तीनों समूह बडे आसानी से देखे जा सकते हैं. 20% अपनी डपली बजाते है, हरेक से पठन/प्रशंसा की उम्मीद करते हैं, लेकिन इस समूह के लिए वे कुछ नहीं करते. झगडा हो रहा हो, अपनी बला से. किसी की बुराई हो रही हो, अपनी बला से. उनको तो उनका अपना चिट्ठा अच्छी तरह से चलना चाहिये, बाकी लोग भाड में जाये.
बीस प्रतिशत ऐसे हैं जिनको इस समूह से सब कुछ चाहिये, लेकिन कोई न कोई कारण बना कर वे शांति भंग जरूर करेंगे. आनंद में खलल डालना इनका जन्मजात हक है. ये लोग चिट्ठों पर जबर्दस्ती भडकाऊ टिप्पणी करेंगे, प्रति टिप्पणी करेंगे, या कुछ नहीं तो आ बैल मुझे मार की स्टाईल में एक चिट्ठा ही पेल देंगे. फल यह है कि अगले एक से तीन हफ्ते लोगों में जम कर या तो जूतमपैजार होता है या कोई चिट्ठाकार सीधे सन्यास की सोचने लगता है.
अब सवाल है कि दिनेशराय द्विवेदी इसमें कहां फिट होते हैं. जरा ठहरे!!
जो 60% लोग समूह को चलाते हैं, उनमें कई लोग किसी के बिन कहे तमाम तरह की जिम्मेदारियां अपने सर ले लेते हैं. किसी भी शादी में चले जाईये आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इसतरह का कार्य स्वेछा से एवं बिन प्रतिफल करते हैं. चिट्ठाजगत में तमाम लोग एवं तमाम चिट्ठे इस तरह का कार्य कर रहे हैं.
दिनेश जी जब से चिट्ठालेखन में आये हैं तब से उन्होंने अन्य चिट्ठाकरों को प्रोत्साहित करना अपना मिशन बना लिया है. आज बहुत से लोगों को उनकी टिप्पणी का इंतजार रहता है, और यही है खतरे की घंटी!! जो लोग इस तरह स्वेछा से “कर सेवा” करते हैं, वे तुरंत ही तीव्रवादियों की नजर में आ जाते हैं एवं आज या कल उनको ब्लास्ट कर दिया जायगा. कोई न कोई टिप्पणी आ जायगी कि यह आदमी बेकार बैठा है अत: अगला समीर लाल बनने की कोशिश कर रहा है.
दिनेश जी! यह एक चेतावनी है!! आप जो सेवा कर रहे हैं यह हिन्दीजगत के लिये अमूल्य है. लेकिन इसके साथ साथ आप निशाने पर आ गये हैं. कल को आप के पैर के नीचे कोई सुरंग फट जाये तो ताज्जुब न करना. हर व्यक्ति जो दूसरों की सेवा के लिये अपने आप को अर्पित करता है उसके साथ ऐसा होता है.
हां, एक बात याद रखें, 60 प्रतिशत लोग, जो हिन्दी चिट्ठा संसार को चला रहे वे हमेशा आप की प्रेरणा के लिये आभारी रहेंगे एवं आपकी टिप्पणियों की राह देखते ही रहेंगे!! जब तीव्रवादियों का आक्रमण होगा तब हम आपके साथ होंगे, और आप उन 20% लोगों के कारण हम 60% को मत छोड जाना!
यह तो बहुत सोचने पर मजबूर करने वाली बात है. लेकिन मैने पाया है कि टिप्पणी करने के बदले टिप्पणी मिलना जरूरी नहीं और न ऐसी उम्मीद करनी चाहिए. कम से कम मेरा तो यही अनुभव है. वैसे आपकी सलाह याद रहेगी.
आप की चेतावनी सर माथे। पर पढ़े पर प्रतिक्रिया के अतिरिक्त कोई टिप्पणी कभी नहीं की, नए चिट्ठों को छोड़ कर। जो समझ आया वह कहा। कभी बाद में गलती भी महसूस की तो उसे स्वीकारा दुरुस्त किया।
फिर भी कोई सुरंग फटे तो फटे। हमला भी होगा तो झेलेंगे और मुकाबला करेंगे, बिना कोई दुर्भाव पाले।
विचार भिन्नता के कारण मित्रता का त्याग नहीं किया जा सकता। आप बेफिक्र रहें अंत तक साथ निभेगा।
स्वान्त सुखाय चिट्ठाकार किस वर्ग में आते हैं? जो अपनी बात कह देते हैं और एक आनंद अनुभव करते हैं. कुछ लोग उनकी निंदा कर देते हैं और कुछ लोग सराहना. पर उन की स्वान्त सुखाय चिट्ठाकारी चलती रहती है.
अपनी श्रेणी का अध्ययन शुरू
कर दिया है आज से.
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बहुत सही लिखा आपने। दिनेश जी की ऊर्जा का कायल हूं मैं!
दिनेशजी के बारे में सौफीसद सच और उसके जरिये पूरे ब्लाग जगत की चिंता। टिप्पणी के बदले टिप्पणी पाना तो एक किस्म की बेईमानी है। अलबत्ता आपकी इस पोस्ट के माध्यम से कहना चाहूंगा कि मैं खुद को ब्लागर नहीं मानता। जानता भी नहीं । ब्लागर का प्रयोग मैं वर्डपैड या एमएस वर्ड की तरह ही कर रहा हूं । यहां लिखना उनसे बेहतर इसलिए है क्योंकि इस पर रोज़ लिखने की प्रेरणा मिलती है ताकि शब्दों का सफर रोज़ नया लगे।
इसीलिए कुछ चुनींदा चिट्ठों के अलावा और कहीं नज़र भी नहीं डालता।
अभी अभी डॉ अमर कुमार जी का लेख पढ़ कर आ रहा हूँ….ओर कायल हो गया हूँ…….कुछ सार्थक चर्चा आपने भी की है ….सुरेश चन्द्र जी की स्पष्ट वादिता मैंने कई बार देखी है……द्रिवेदी जी विद्वान आदमी है..जानते बूझते है…बस एक बात कहता हूँ किसी के विचारो से असहमत होना मतलब विरोधी होना नही है….ऐसा सभी चिट्ठाकारो को खुले मन से समझना चाहिए …एक वैचारिक बहस अगर व्यक्तिगत ना होकर के मुद्दों पर हो तो उससे अच्छा कुछ नही….
आदरणीय द्विवेदी जी का बाल बांका न होगा ,वे विद्वान् हैं -फिर मैं तो हूँ ना ..पर शास्त्री जी आप सावधान रहें -मुझे लगता है इस समय कमजोर कड़ी आप ही है (मजाक में कहा )
द्विवेदी जी की टिप्पणियाँ संक्षिप्त, लेकिन सारगर्भित रहती हैं। मुझे तो इंतज़ार रहता है भई, उनका!
चापलूसी बंद करो. टाईटल कूछ और