साहित्य समाज का दर्पण है, एवं चिट्ठासाहित्य पर एक नजर किसी को भी यकीन दिलाने के लिये पर्याप्त है कि हर कोई चाहता है कि भारतीय समाज में परिवर्तन आये.
न्याय एवं कानून की स्थिति में तुरंत बदलाव जरूरी है जिससे कि जनता की प्राथमिक न्यायिक जरूरते समय पर पूरी हों. सरकारी तंत्र में परिवर्तन जरूरी है जिससे कि जनता को अत्यावश्यक कागजात बिना बाबू की खुशामद किये समय पर मिल सके. बाजार में परिवर्तन जरूरी है जिससे जनता को आवश्यक वस्तुएं सही कीमत पर सुलभ हो. शिक्षण, चिकित्सा, आवागमन, सुरक्षा, आदि की जरूरत सब को है. पेयजल तो जीवन है.
चित्र: लेखक चंबल की मिट्टी से जुडा हुआ है. 1950 के डाकुओं से भरे चंबल एवं आज के चंबल में जमीनआसमान का फरक है. चित्र अक्टूबर 2007, ककनमठ के एतिहासिक अनुसंधान के दौरान, चंबल के एक क्षेत्र में लिया गया था.
औसत व्यक्ति से पूछिये, वह कहेगा कि बदलाव असंभव है. कारण यह है कि वह समस्या को गलत कोण से देख रहा है. उसे इस बात का अनुमान नहीं है कि परिवर्तन कैसे आता है. उसे इस बात का भी अनुमान नहीं है कि हिन्दुस्तान में पिछले 60 सालों में कितना परिवर्तन आ चुका है. वे सिर्फ उन बातों को देखते हैं जहां अभी भी परेशानी होती है एवं जल्दबाजी में कह बैठते हैं कि कुछ नहीं होने वाला.
मेरे अधिकतर पाठकों ने 1950 आदि का हिन्दुस्तान नहीं देखा है. स्कूली बच्चे को एक पेंसिल कम से कम 6 महीने चलाना पडता था. कलम 4 से 6 साल से पहले दूसरी नहीं मिलती थी. चमडे के जूते दो दो तीन तीन साल चलाने पडते थे (यदि जूते पहनना भाग्य में बदा था तो). आर्थिक रूप से सुदृड लोग साईकिलों पर दफ्तर जाते थे. दर्ख्वास्त लगाने के 10 साल बाद टेलीफोन मिलता था. एक स्कूटर (वेस्पा) के लिये 6 से 8 साल इंतजार करना पडता था. रेलगाडी का सफर नरक के समान था.
आज बच्चे को जितनी पेंसिले चाहिये उतनी उपलब्ध हैं. बालपेन के कारण हफ्ते हफ्ते नई कलम मिल जाती है. एक छोडिये, अधिकतर बच्चे एक समय आधी दर्जन कलमें अपनी मेज पर रखते हैं. जूते जितनी जरूरत है उतनी खरीदी जाती हैं. स्कूटर छोडिये, अब मध्यवर्गीय परिवार आसान लोन एवं किश्त पर कार खरीदता है. प्राईवेट टेलिफोन 1 दिन में एवं सरकारी 2 से 3 दिन में मिल जाता है. रेलगाडी में रिजर्वेशन की सुविधा के कारण सफर ने एक नया आयाम पा लिया है.
सिर्फ निराशावादी नजरों से समाज को टटोलने के बदले उसके दूसरे पहलू को ईमानदारी से देखिये. आप पायेंगे कि 1950 आदि (मेरे बचपन के साल) की तुलना में आज हम स्वर्ग में रह रहे हैं.
समाज सुधर रहा है. और सुधरेगा. यह जग की रीत है. शर्त सिर्फ इतनी है कि आप अपनी जिम्मेदारी के प्रति सचेत एवं समर्पित रहें.
(शीर्षक पर क्लिक करने पर टिप्पणी-पट आपके समक्ष आ जायगा)
बदलने के लिये तो प्रभू ने आप जैसे लोगों को भेजा है। जिस दिन कर्तव्य बोध जग्रत हुआ सम्झो धरा पर स्वर्ग है।
सही है. धनात्मक रूप से देखें तो बदलाव तो है. कभी अपनी आबादी का पेट भी न भर पाने वाला भारत आज कई मामलों में न सिर्फ़ आत्मनिर्भर है बल्कि दूसरों को कुछ देने में सक्षम है. स्पेस प्रोग्राम को ही लीजिये. हम अन्य देशों के उपग्रह अपने यहाँ से छोड़ रहे हैं. आर्थिक रूप से एक बड़ी ताक़त बनकर उभरे हैं. वाकई बदलाव बहुत आया है. मगर अभी भी बहुत काम होना बाकी है.
आप ने ठीक कहा.सरकारी तंत्र में परिवर्तन जरूरी है, बाजार में परिवर्तन जरूरी,और बड़ी बात, हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है.
परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। सब कुछ हर पल परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तन लगातार हो रहा है। जो कल था, एक पल पहले था, वह परिवर्तित हो चुका है। समाज भी प्रकृति का अभिन्न भाग है, वह भी लगातार परिवर्तित होता रहता है। हम समाज को बदलने का प्रयत्न करें या न करें समाज में परिवर्तन लगातार हो रहे हैं। हम परिवर्तनों की दिशा भी निर्धारित नहीं कर सकते, क्यों कि समाज परिवर्तन के लिए हम एक मामूली कारक हैं। हम परिवर्तन की गति को तीव्र या धीमी कर सकते हैं। वह भी सामूहिक प्रयासों से। हम वही करना चाहते हैं। लेकिन इस से पहले हमें समझना होगा कि वर्तमान समाज की परिवर्तन की दिशा क्या है? और हमें उसे धीमा करना है या तेज?
मेरे अधिकतर पाठकों ने 1950 आदि का हिन्दुस्तान नहीं देखा है. स्कूली बच्चे को एक पेंसिल कम से कम 6 महीने चलाना पडता था.
आज बच्चे को जितनी पेंसिले चाहिये उतनी उपलब्ध हैं. बालपेन के कारण हफ्ते हफ्ते नई कलम मिल जाती है. एक छोडिये, अधिकतर बच्चे एक समय आधी दर्जन कलमें अपनी मेज पर रखते हैं.
ये सब उन्ही घरो मे हैं जहां बच्चो की संख्या को इश्वरिये दाएं नहीं मन जाता हैं . पहले किसी भी घर मे ६-७ बच्चो से कम नहीं होते थे पर परिवार को नियोजित कर के लोगो ने विकास को आगे बढाया हैं और इस का विरोध बहुत सम्प्रदायों और धर्मो ने किया हैं .
हिन्दुस्तान में पिछले 60 सालों में कितना परिवर्तन आ चुका है.
विकास की दर कितनी भी बढ़ गयी हो पर अभी भी सोच का नजरिया बहुत छोटा और संकुचित हैं . लोग विकास चाहते हैं पर केवल वो विकास जो उनके लिये हो और उनकी सोच मे सही हो , जबकि विकास को larger extent मे देखना होगा
समाज सुधर रहा है. और सुधरेगा
समाज का सुधारना और देश मे विकास होना बिल्कुल अलग अलग चीज़े हैं . विकास का मतलब हैं की हम भौतिक चीजों को पा रहे हैं जबकि समाज सुदार का अर्थ हैं की हम मन और विचार मे विकसित हो रहे हैं . हमारे यहाँ रुढिवादी सोच हैं समाज की आज भी सोच मे हम मे से ज्यादा १९५० से फी पीछे १९४७ मे खडे हैं . आज भी हम भारत – पकिस्तान बटवारे से ऊपर नहीं उठे हैं , आज भी हम धर्म के नाम पर मन्दिर , मस्जित और चर्च तोड़ते हैं . आज भी operation ब्लू स्टार होते हैं . आज भी धर्म के नाम पर दलितों के साथ अन्याय होता हैं . आज भी एक दलित लड़की से सो कॉल्ड उच्च समाज शादी नही कर सकता पर उसका रैप कर सकता हैं . आज भी लिंग भेद के नाम पर कन्या की ह्त्या होती हैं .
और सबसे बड़ी बात आज भी कही कुछ गलत होता हैं तो हम “बाज़ार वाद ” को दोष देते हैं .
@हम परिवर्तनों की दिशा भी निर्धारित नहीं कर सकते, क्यों कि समाज परिवर्तन के लिए हम एक मामूली कारक हैं।(डॉ.दिनेश राय द्विवेदी)
असहमत हैं हम। समाज में जो भी परिवर्तन हुआ है, उसे मनुष्यों ने ही किया है। एक व्यक्ति का बूँद बराबर योगदान भी सागर का एक सुनिश्चित हिस्सा होता है। इसका महत्व कम नहीं हो जाता। नियतिवादी हो जाने से हमारे प्रयास और परिश्रम में कमीं आने की सम्भावना है।
अस्तित्ववादी दर्शन (existentialism) कहता है कि व्यक्ति अपनी प्रास्थिति का निर्माता और उत्तरदायी दोनो है। यह एक उपयोगी दर्शन है।
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कोई भी चीज़ स्थिर नही है, परिवर्तन श्रस्टी का नियम है, आप बदलो न बदलो बदलेगी दुनिया, हा परिवर्तन की जिस दिशा को आपने इंगित किया वह उनलोगों के लिए प्रेरणा है जो नकारात्मक सोचते है, वो यह नही जानते की वो बदलाब में सकारात्मक तरीके से शामिल नही होंगे तो नकारात्मक तरीके से हवा उन्हें बदल देगी क़तरा-क़तरा
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इस प्रकृति में ऐसा कुछ नहीं है जो न बदलता हो. अगर कुछ नहीं बदलता है तो वह हैं मानव मूल्य. पर आज कल लोगों ने मानव मूल्यों की ही अपनी-अपनी परिभाषाएं बना डाली हैं, और अपनी जायज और नाजायज जरूरतों को पूरी करने के लिए उन परिभाषाओं को भी रोज बदल रहे हैं.
जहाँ से मैं आया हूँ वहां शहर में कोई चाय की दूकान नहीं थी. लोग चाय पिया करें इस के लिए चाय कम्पनियां लोगों को मुफ्त जलेबियाँ खिलाती थीं. मुफ्त एक प्याली चाय पियो और २५० ग्राम जलेबियाँ खाओ. आज शहर में हर तीसरी-चौथी दूकान पर चाय मिलती है. किसी से मिलने जाओ तो चाय पियो. कोई मिलने आए तो उसे चाय पिलाओ.
बहुत कुछ बदला है और बहुत कुछ बदल रहा है. कुछ ग़लत सही में बदला है. कुछ सही भी ग़लत में बदल गया है. आज सुबह पार्क में एक सज्जन बता रहे थे कि उनका बेटा उन्हें मां-बहन की गालियाँ देता है और ऐसा इस लिए कि वह अपना मकान उस के नाम नहीं कर रहे. बाप-बेटे का रिश्ता बदल गया है. पुलिस से शिकायत करते हैं तो वह आती है और बेटे के यहाँ चाय पी कर और अपनी फीस लेकर चली जाती है. पुलिस में शायद कुछ नहीं बदला है. बेटा फ़िर गालियाँ देता है कि साले वाप ने पुलिस में शिकायत कर दी और पुलिस ५०० रुपए का चूना लगा कर चली गई.
समाज में बदलाव पर एक पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है, पर फ़िर भी ऐसा बहुत कुछ है जो बदलना चाहिए पर बदल नहीं रहा है. यह भी बदलेगा पर कब और इस का बदला हुआ रूप क्या होगा यह कहना मुश्किल है.
“समाज सुधर रहा है. और सुधरेगा. यह जग की रीत है. शर्त सिर्फ इतनी है कि आप अपनी जिम्मेदारी के प्रति सचेत एवं समर्पित रहें.”
आप ने जो तस्वीर दिखाई है, उससे तो आप की बात सही लगती है।
“स्कूली बच्चे को एक पेंसिल कम से कम 6 महीने चलाना पडता था. कलम 4 से 6 साल से पहले दूसरी नहीं मिलती थी. चमडे के जूते दो दो तीन तीन साल चलाने पडते थे (यदि जूते पहनना भाग्य में बदा था तो). आर्थिक रूप से सुदृड लोग साईकिलों पर दफ्तर जाते थे. दर्ख्वास्त लगाने के 10 साल बाद टेलीफोन मिलता था. एक स्कूटर (वेस्पा) के लिये 6 से 8 साल इंतजार करना पडता था. रेलगाडी का सफर नरक के समान था.”
आपने बड़े पुराने दिन याद दिला दिए शास्त्री जी ! धन्यवाद
मेरा एक सुझाव है की उपरोक्त पर ” क्या आप जानते हैं….. ?” पर एक लेख लिखें ! आपकी लेखनी से यह जानकारी अत्यन्त रुचिकर एवं ज्ञानवर्धक होगी !
आपकी कलम से एक और बेहतरीन आलेख पढ़कर अच्छा लगा !
सही कहा है आपने कि समाज बदल रहा है और बदलेगा । सुधार भी हो ही रहा है, शायद सब तरफ नही, पर होगा जरूर । आप जिन दिनों की बात कर रहे हैं वह मेरे भी बचपन का समय रहा है हम ५ भाई बहन थे साल में एक बार दशहरे पर नये चप्ल या जूते मिलते थे ओर खराब हो जाने पर ४ आने में मिलने वाली टायर की चप्पल पर गुजारा करना पडता था ।
पर कभी कोई कमी महसूस नही हुई शायद इसलिये कि सारे ही उसी हाल में थे ।
आपकी फोटो के पीछे का इलाका कुछ-कुछ वैसा लग रहा है, जैसा कि लादेन को कभी-कभी टीवी में दिखाते हैं. (आप की तारीफ तो सभी करते हैं, मैंने सोचा बच्चे की तरह आप की गोदी में चढ़ क्यों न आप की ही मूंछे नोची जाँय.)
वैसे ये मूंछों में छिपी हुई मुस्कान कुछ कुछ मोनालिसा जैसी आपको रहस्यमयी मुस्कान का स्वामी बना रही है.;)
कहीं ख़ुद को सदाबहार देवानंद तो नहीं न समझ रहे हैं. ;0
तसवीर बढ़िया है!
निहारता रहा!
शुभकामनाएं
विश्व्नाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
आपके आलेख बहुत प्रेरणादायी होते हैं. लिखते रहे, ऐसे लेखो की कमी है.